Thursday, 28 April 2022

महानता का बोझ

[एक नॉन-महान इंसान की शॉर्ट फ़िल्म जैसा कुछ, क्योंकि फ़ीचर फ़िल्म महान लोगों के लिए आरक्षित है।]


वो धीरे-धीरे चल रहा था और चलते-चलते सोच रहा था कि आज का कितना काम बाक़ी रह गया। आज वो एक महान इंसान से मिल कर लौट रहा था।

महान इंसान ने खाना खिलाते हुए समझाया था कि महानता का दुःख कोई और नहीं समझ सकता। महान इंसान लगातार पृथ्वी को उसकी धूरी पर घूमाता है। कभी-कभी जब सूरज के पास रोशनी कम हो जाती है तो उसको एक दिन की रोशनी उधार भी देता है। नॉन-महान इंसान ये सब सुनता और हाँ में हाँ मिलाता - जैसे महान इंसान के आसपास के लोग मिलाते। महान इंसान कुछ देर के लिए अपने मोहल्ले का भगवान बन जाता। नॉन-महान लोगों को लगता कि वो भी कुछ देर के लिए ख़ास आदमी हो गए हैं।

महान आदमी की महानता का बोझ इतना होता कि एक समाज का कंधा हमेशा दर्द में रहता। महानता का बोझ नॉन-महान लोगों को उठाना पड़ता है। नॉन-महान लोग अद्भुत होते हैं। इनका कंधा हमेशा थोड़े दर्द में होता फिर भी एक नए आदमी को महान बना देते।

महानता के बोझ तले दबे इस इंसान को अब लगने लगा था कि किसी और के महान बनने में इसका कोई फ़ायदा नहीं। नॉन-महान इंसान अचानक से अपने पास का बिखरा हुआ संसार देखने लगा था। उसने पाया वो लगतार बीत रहा था। उसके बीतने में किसी की महानता कम नहीं हो रही थी।

उसने डिसाइड किया कि अब वो महान इंसान से नहीं मिलेगा। महान इंसान को इसकी भनक लग गयी। वो खुद नॉन-महान इंसान से मिलने आया। और उसने पेप्सी आगे बढ़ाया। महान इंसान को पता था कि नॉन-महान इंसान हमेशा पेप्सी के लालच में आ जाता है। महान इंसान के दिए पेप्सी में 5.28 मिलीग्राम अफ़ीम होता है। सरकार इसकी परमिशन भी देती है। ये बिलकुल लीगल है। इलेक्शन के समय इसकी मात्रा 5.28 मिलीग्राम से 10.12 मिलीग्राम तक बढ़ाने का प्रावधान भी है। सरकार और महान इंसान के बीच के इस नेक्सस को समझने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही थी।

इस नॉन-महान इंसान ने पेप्सी पीने से इनकार कर दिया। कई सालों बाद महान इंसान को किसी ने ना कहा था। महान इंसान ये सह नहीं पाया। उसने सरकार को फ़ोन किया। सरकार महान इंसान के दर्द को समझ गयी। महान इंसान और सरकार ने मिलकर एक इलाज निकाला। उन्होंने नॉन-महान इंसान के घर पानी की जगह अफ़ीम वाली पेप्सी भेजने का इरादा किया।

अब नॉन-महान इंसान कोई भी नल चलाता तो पेप्सी निकलती। वो समझ गया। उसने ठान लिया कि अब कुछ भी हो जाए वो इस लालच में नहीं फँसेगा।

महान इंसान की महानता को चैलेंज मिल रहा था। आसपास के बाक़ी नॉन-महान लोगों को सब धुंधला-धुंधला दिखता। वो भी पीठ पीछे आपस में डिस्कस कर रहे थे। महान इंसान को सब समझ में आ रहा था। नॉन-महान इंसानों को वो लगातार पेप्सी पिला रहा था। पेप्सी पीते ही वो सब चुप हो जाते और महान इंसान के चुटकुले पर हँसते।

लेकिन जिसने पेप्सी पीने से मना कर दिया था वो अब प्यास से मरता जा रहा था। सरकार ने उसकी पानी का सप्लाई बिल्कुल रोक दिया। वो दर-दर भटकता लेकिन कोई पानी नहीं देता। उसने देखा कि असल में पूरा शहर सिर्फ़ पेप्सी पीता है। अब लोग पेप्सी से नहाने भी लगे हैं। लोगों के शरीर पर चींटी रेंग रही है - किसी को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ रहा।

एक दिन आया जब प्यास से पागल इस नॉन-महान इंसान के सामने महान इंसान 1.5 लीटर की पेप्सी की बोतल लेकर आया। अपने पागलपन में नॉन-महान इंसान को सब साफ़-साफ़ दिखने लगा था।

महान इंसान ने बोला, “ज़िंदा रहना है तो पेप्सी पीनी ही पड़ेगी।”

नॉन-महान इंसान ने जवाब दिया, “अब मुझे सब साफ़ दिख रहा है। तुम्हारे महानता के बोझ से मेरा कंधा टूट गया है। मैं मर जाऊँगा लेकिन पेप्सी नहीं पियूँगा।”

महान इंसान ने हंसते हुए एक गिलास पानी पिया। वो पेप्सी कभी नहीं पीता था। नॉन-महान इंसान मुस्कुराते हुए वहीं मर गया। बहुत सारे नॉन-महान इंसान एकत्रित हुए। महान इंसान सबको रोता हुआ दिखा।

महान इंसान ने बोला, “ये कोई आम आदमी नहीं था। ये बहुत महान इंसान था।”

Sunday, 18 October 2020

संतरे का बीज खाने से पेट में संतरे का पेड़ उग जाता है

सुबह का समय है।

रोहन कल रात जब सोया तो उसने सोचा कि 'नींद कैसे आती है' को देखेगा। नींद को आते देखना उसका सबसे बड़ा एडवेंचर था। रोज़ कोशिश करता कि आज देख ही लेगा नींद कैसे आती है। रोहन के लिए ये एक बड़ा सवाल था। उसने बहुत लोगों से पूछा भी, जवाब कोई ठीक से नहीं दे रहा था।

“मम्मी, नींद कैसे आ जाती है?”

“जब हम सोने जाते हैं तो आ जाती है।”

“वो तो हमको भी पता है। लेकिन आती कैसे है? पैदल, या कार में? या दादाजी की तरह ट्रेन में?”

रोहन के इस मासूम सवाल को सुन कर माँ को हँसी आ गयी। अब इस बात का जवाब कोई कैसे दे कि नींद का mode of travel क्या है! लेकिन सवाल अपनी जगह सही भी है - अगर कोई कहीं आता है तो किसी तरह से तो आता होगा। नींद भी आती है, और रोहन को बहुत नींद आती है। वो बस उसे पकड़ना चाहता था कि बैठ कर उसे समझा दे कि ‘देखो नींद, रात में ही आया करो। दिन में मत आओ। स्कूल में तो बिलकुल ही मत आओ। इंग्लिश मैडम बहुत ग़ुस्सा करती हैं। शाम में भी मत आया करो। दोस्तों के साथ खेलने का समय होता है। तुम तो बस रात में आया करो।’ लेकिन नींद शैतान मिले तब तो! वो चुपके से आती और रोहन को चुपके से सुला कर भाग जाती।

सुबह हुयी तो फिर वही अफसोस 'अरे, आज फिर नींद को आते नहीं देख पाए।' और इसी अफसोस के साथ वो स्कूल जा रहा था।

रोहन की उम्र आठ साल है। उसके मोटे-मोटे संतरे जैसे गाल हैं। लोग बिना permission उसके गाल पकड़ लेते। रोहन को ये बिलकुल पसंद नहीं। गाल उसके अपने हैं। कोई और क्यों पकड़ेगा? और पकड़ कर अजीब तरह से खींच लेता है बोलते हुए कि ‘अरे रोहन तुमरा गाल तो संतरे की तरह है!’ ये कुछ चीजें हैं जो रोहन बहुत seriously सोचता है। वो लोगों को इन बातों पर जज भी करता है कि कौन कितना अच्छा दोस्त बन सकता है। अच्छी बात ये कि उसकी क्लास में कोई भी ऐसी हरकत नहीं करता। ये बस बड़े लोग करते हैं।

“बैग में टिफ़िन रख दिया है। खा लेना। बिना खाये टिफ़िन लेकर वापस मत आ जाना।” स्कूल बस के रास्ते में माँ रोहन से बातें कर रही थी।

"तुम भिंडी मत दिया करो टिफिन में। वो तो घर पे खाने का होता है। स्कूल के लिए कुछ अच्छा देना होता है।" रोहन बोरिंग खाने से परेशान रहता था। बहुत दिन से सोच रहा था कि माँ को साफ साफ बता देना ही ठीक है। आज उसने बोल दिया।

"आज सिर्फ फ्रूट्स दिए हैं। संतरा और सेब। खा लेना। चलो बस आ गयी है। जल्दी से पकड़ लो।"

रोहन पटना में रहता है। उसका स्कूल उसके घर से बहुत दूर नहीं है। लेकिन रोहन को ऐसा लगता है कि बहुत दूर है। उसकी छोटी-छोटी आंखों में सब बड़ा दिखता है। ये तो अच्छा है कि बस में अंकित भी होता है। तो रास्ता जल्दी कट जाता है।

"रोहन! रोहन!" अंकित पीछे वाली सीट पर रोहन का इंतज़ार कर रहा था। स्कूल बस में पीछे की सीट बड़े क्लास के स्टूडेंट्स के लिए रिज़र्व रहती थी। लेकिन आज अंकित वहाँ पहले से बैठा था।

"आज पीछे का सीट कैसे मिल गया?" रोहन बहुत खुशी में पीछे पहुँच कर पूछा।

"पता नहीं यार। आज तो कोई आया ही नहीं। हम देखे खाली है तो जल्दी से आ गए और तुम्हारे लिए भी सीट रिज़र्व कर लिए।" अंकित ने पूरी बात को समझाया।

"पीछे से तो सब बिल्कुल अलग जैसा दिखता है। ड्राइवर अंकल और दूर चले गए…"

"बाहर देखो। ये वाला खिड़की बड़ा है। सर भी बाहर जा सकता है…" अंकित ने सर को बाहर निकालते हुए कहा।

रोहन थोड़ा डर गया। "सर बाहर मत निकालो अंकित, प्लीज।"

अंकित बाहर हवा से बातें करने लगा। अंकित कभी भी कहीं भी किसी से भी बात कर लेता था। वो सबका दोस्त था। हवा के साथ भी दोस्ती कर ली। "हवा हवा… तुम किधर जाती है?"

"मैं तो हवा हूँ ना अंकित। मैं सब जगह जाती हूँ।"

"तुमको कहीं जाने के लिए बस नहीं लेना होता?"

"नहीं। मैं तो उड़ के चली जाती हूँ। तुम भी चाहो तो उड़ सकते हो।"

"रोहन, तुमको पता है हम भी चाहें तो उड़ सकते हैं!" अंकित ने सर को अंदर लाते हुए कहा।

"कहाँ उड़ सकते हैं?" रोहन को समझ नहीं आया।

"अभी हवा हमको बतायी कि अगर हम चाहें तो उड़ सकते हैं जैसे हवा उड़ती है।"

"तुम हवा से भी बात कर सकते हो?" रोहन ने पहले भी अंकित को सबसे बात करते हुए देखा था। कभी पेन से, कभी पेपर से। एक बार अंकित टिफिन बॉक्स से भी बात कर रहा था। और उसने टिफिन बॉक्स को बोला, "कुछ अच्छा खाना खिला दे यार टिफिन!", और टिफिन बॉक्स से पिज़्ज़ा निकला था। उस दिन से रोहन ने मान लिया था कि अंकित किसी से भी बात कर सकता है। लेकिन अंकित को हवा से बात करते हुए पहली बार देख रहा था।

"हाँ। हम हवा से भी बात कर लेते हैं। हवा ने बोला है कि अगर हमारा मूड करे तो हम उड़ सकते हैं। ये तो अच्छा बात पता चल गया। बहुत दिन से सोच रहे थे कि उड़ने का कैसे प्लानिंग करना होगा। जल्दी मूड बना कर उड़ना चाहिए।" अंकित को नया काम मिल गया था।

"हमारा मूड नहीं है। बाद में उड़ेंगे।" रोहन उड़ने से डर रहा था। उसने अब तक उड़ने का सपना भी नहीं देखा था। रोहन कुछ भी करने से पहले उसका सपना देखता है। फिर उसे कर लेता है। इसलिए नींद उसे बहुत पसंद भी है।

रोहन और अंकित स्कूल पहुँच गए। अंकित सबका फेवरेट है लेकिन ये बात कि वो किसी से भी बात कर सकता है बस रोहन को पता है। क्लास में भी अंकित रोहन के साथ ही बैठता है। रोहन अंकित को किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहता।

"अंकित, क्या हम तुम्हारे पास बैठ जायें?" श्रेया ने एक दिन अंकित से पूछा। अंकित ने रोहन को बताया कि श्रेया उसके पास बैठना चाहती है। रोहन ने कुछ नहीं कहा। लेकिन वो ये बात सह नहीं पाया।

"अगर श्रेया तुम्हारे पास बैठेगी तो उसको तुम्हारे सुपरपावर के बारे में पता चल जाएगा। फिर वो सबको बता देगी। हमको कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन तुम देख लो…" रोहन ने अपने तरफ से पूरी कोशिश की कि श्रेया अंकित के पास ना बैठे।

"श्रेया को पता चल जाएगा तो कोई बात नहीं। हम उसको बता देंगे। वो अच्छी है। किसी को नहीं बताएगी।" अंकित को बहुत क्लैरिटी थी। रोहन के लिए ये सबसे दुखद दिन था। पहली बार अंकित और रोहन के बीच कोई और आ गया था। रोहन उठ कर किसी और सीट पर बैठ गया। टिफिन ब्रेक में दूर से उसने देखा तो अंकित और श्रेया पिज़्ज़ा खा रहे थे। ये देखते ही रोहन रो पड़ा।

उसके तीन दिन बाद तक रोहन को बुखार था।

फिर बुखार ठीक हो गया। और उसने मान लिया कि क्लास में भले ही अंकित श्रेया के साथ बैठता है लेकिन बस में उसके लिए सीट रिज़र्व कर के रखता है।

अब टिफिन के समय अंकित, रोहन और श्रेया साथ ही खाना भी खाते हैं।

"आज क्या लाये हो टिफिन में रोहन?" श्रेया ने पूछा।

"आज फ्रूट्स लाये हैं। संतरा और सेब। तुमलोग भी खाओ।" रोहन हमेशा खाना शेयर करता है।

"संतरा हमारा फेवरेट है!" अंकित बहुत खुश हो गया।

"सच में?" रोहन को ये बात पता ही नहीं थी। उसे हर दिन कुछ नया पता चलता था अंकित के बारे में।

"हाँ, अंकित का फेवरेट तो संतरा ही है।" श्रेया टिफिन से संतरा उठाते हुए बोली। रोहन थोड़ा दुःखी हुआ कि श्रेया को ये बात पहले से पता थी।

"हमारा फेवरेट सेब भी है। ये बस रोहन को पता है।" अंकित ने ये बात रोहन को देखते हुए बोला। "पहले तो हमलोग बहुत सेब खाते थे जब भी रोहन टिफिन में लाता था।"

 रोहन के चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी। उसे याद आया कि जब वो अंकित के साथ बैठा होता तो वो बहुत हँसता भी था।

"तुमलोग एक बात जानते हो, हमलोग जो भी फ्रूट खाते हैं अगर गलती से उसका बीज खा लोगे तो उसका पेड़ हमारे पेट में उग जाता है।" अंकित ने संतरे का बीज निकालते हुए बोला।

"सच में?" श्रेया को विश्वास ही नहीं हुआ।

"हाँ। ऐसा ही तो होता है। सब जानते हैं। तुमको नहीं पता?" अंकित के लिए ये बहुत आम बात थी।

"नहीं। हम तो ऐसा नहीं सुने। कोई नहीं बोला।" रोहन को भी यकीन नहीं हो रहा था।

"अरे, सबको पता है। इसलिए हमलोग बीज नहीं खाते। फेंक देना होता है। नहीं तो पेड़ निकल जाएगा।"

रोहन संतरा खा रहा था। ये सुनते सुनते उनके मुँह में बीज आ गया। वो समझ नहीं पा रहा था कि अब इस बीज का क्या करना है। वो हमेशा बीज फेंक देता है, लेकिन अभी पहली बार उसको ये बात पता चली है। रोहन ने सारे बीज मुँह से निकाले और फेंक दिए।

लेकिन एक बीज मुँह में ही रखा। वो चाह कर भी नहीं फेंक पाया।

पूरे दिन, सारे क्लास में वो बीज उसके मुँह में ही था। रोहन थोड़ा डर भी रहा था। लेकिन ये सोचना भर उसे बहुत रोमांच दे रहा था कि ये संभावना भी है कि उसके पेट में संतरे का पेड़ उग सकता है।

अचानक गलती से उसने वो बीज निगल लिया।

बीज निगलते ही रोहन के दिल की धड़कन बढ़ गयी। वो डर गया। उसको ऐसा लगा कि उसके पेट में कुछ तो हुआ है। लेकिन क्या, वो नहीं जानता था।

"क्या हो गया तुमको? तुम्हारा तबियत ठीक नहीं लग रहा है?" छुट्टी के समय अंकित ने रोहन से पूछा। 

रोहन ने सोचा कि अंकित को सच बता दे कि उसने बीज खा लिया है। ये बताने से उसके पेट का दर्द ठीक हो जाएगा। लेकिन वो बोल नहीं पाया। "बस थोड़ा सा पेट दर्द हो रहा है। ऐसे ही। ज़्यादा नहीं। अभी ठीक हो जाएगा।"

"कुछ ज़्यादा दर्द हो तो बताओ। हम तुम्हारे पेट से बात कर लेते हैं?" अंकित पेट से बात करके पेट को बोल सकता था कि 'पेट, दर्द मत करो।' और पेट ये बात मान भी जाता।

"नहीं। पेट से बात मत करो। पेट थोड़ा रेस्ट कर रहा है।" रोहन फिर से डर गया। वो नहीं चाहता था कि अंकित को पता चल जाये कि रोहन के पेट में बीज है। पेट तो सब सच बता देगा। और अंकित ने मना भी किया था कि बीज नहीं खाना चाहिए।

रोहन घर पहुँचा। उसके पेट का दर्द बढ़ता जा रहा था। लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। उसने धीरे से अपने पेट से बोला "पेट, दर्द मत करो।"

लेकिन पेट की भाषा तो बस अंकित को पता थी। रोहन की बात पेट क्यों मान लेता।

शाम में रोहन ने अपनी माँ से बात करने की कोशिश की। "मम्मी, संतरा खाने से पेट में संतरे का पेड़ उग जाता है?"

माँ ने हंसी में कह दिया "हाँ, उग तो जाता है लेकिन अगर संतरे का बीज खाओगे तो। सिर्फ़ संतरा खाने से कुछ नहीं होता।'

रोहन सन्न रह गया। उससे गलती हो गयी थी। उसको बीज नहीं निगलना चाहिए था।

रात में रोहन को एक सपना आया। उसने सपने में देखा कि उसके हाथ पर एक पत्ता उग आया है। ध्यान से देखा तो उसके मुँह से एक टहनी निकल रही थी। एक और टहनी। फिर कहीं कुछ और पत्ते। और सबसे अंत में उसने देखा कि एक टहनी पर एक संतरा उग आया है।

रोहन संतरे का पेड़ बन चुका था।

नींद खुली तो वो अपने बिस्तर पर ही था। "बस सपना ही था!" रोहन खुश हुआ कि वो अब भी रोहन है।

लेकिन…

रोहन की नज़र उसकी कोहनी पर गयी। वहाँ एक छोटा सा पत्ता उग आया था। रोहन डर गया।

रोहन ने सारा काम जल्दबाज़ी में निपटाया। माँ से पहले ही घर से निकल गया। माँ पीछे। रोहन आगे। स्कूल बस के आने से पहले ही स्कूल बस में चढ़ने की तैयारी करने लगा। माँ को भी समझ नहीं आया कि बात क्या है।

"अंकित, पता है…" स्कूल बस में चढ़ते ही रोहन ने अंकित से बात करनी चाही।

"रुको, एक चीज़ दिखायें तुमको?" अंकित ने एक कॉपी निकाल रखी थी। "हम बहुत दिन से कोशिश कर रहे थे। अपने कॉपी में मोर पंख रखे थे। उसको चॉक खिलाये। आज सुबह मोर पंख डबल हो गया!"

रोहन सबकुछ भूल कर मोर पंख को देखने लगा। "ये तो बहुत सुंदर है!" 

"हाँ। अब हम इसको दो का चार कर देंगे। फिर तुमको गिफ्ट करेंगे।" 

रोहन अंदर ही अंदर रोने लगा। अब वो अंकित से गिफ्ट नहीं ले पायेगा। पेड़ बन कर तो बस किसी एक जगह खड़ा रहना होगा। पेड़ तो चल नहीं सकते।

"अंकित, अगर कोई पेड़ बन जाये तो क्या करना चाहिए?" रोहन ने उदास चेहरे से अंकित से सवाल किया।

"पेड़ तो बहुत मुश्किल से बनते हैं। उतना आसान नहीं है। हम भी कभी कभी कोशिश करते हैं। किसी को बताना मत। श्रेया को भी नहीं…" अंकित ने रोहन को करीब लाकर एक ज़रूरी बात बतायी। "हम संतरा का बीज खा लेते हैं कभी कभी। सोचो, अगर संतरा का पेड़ बन गए तो कितना अच्छा हो जाएगा। कभी संतरा खरीदना नहीं पड़ेगा। जब मन करेगा खा लेंगे। और सबसे ज़रूरी बात पता है?"

"क्या?"

"पेड़ बन कर बाकी लोग को ऑक्सीजन दे सकते हैं।" अंकित के चेहरे पे एक चमक आ गयी।

रोहन पूरे दिन सोचता रहा कि क्या करे। अंकित चाह कर भी पेड़ नहीं बन पा रहा। और रोहन धीरे धीरे पेड़ बनता जा रहा है। उसने देखा अब उसके हाथ और पैर पर पत्ते उग चुके थे। उसने महसूस किया कि उसके मुँह से एक टहनी निकल रही है। कल रात जो उसने सपना देखा था, आज वो सच होने लगा था।

अब रोहन को समझ आ गया कि क्या करना है।

स्कूल की छुट्टी के बाद रोहन अकेले स्कूल से बस थोड़ी दूर एक सुनसान जगह जाकर खड़ा हो गया। उसने अंकित को अलविदा भी नहीं बोला। वो जानता था कि अंकित उसको ऐसे जाने नहीं देगा। और ये भी जानता था कि अंकित तो जब चाहे उससे बात कर लेगा। अंकित तो पेड़ों से भी बात कर लेता है।

रोहन उस जगह खड़े होकर संतरे का पेड़ बन गया। अब वो ऑक्सीजन लेता नहीं, पूरी दुनिया को ऑक्सीजन देने लगा।

लेकिन, बहुत देर इंतज़ार के बाद भी अंकित नहीं आया। रोहन अब वहाँ से हिल नहीं सकता था। उसके पैर से जड़ें निकल कर ज़मीन में जा चुकी थीं। वो अब जीवन भर वहीं खड़ा रहने वाला था।

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पंद्रह साल बाद।

अंकित अब कॉलेज जा चुका है। स्कूल खत्म हुए काफी समय बीत गया है। एक दिन अंकित ऐसे ही स्कूल घूमने आया है। वही इमारत। पुरानी यादें। पुराने दोस्त। 

पूरे दिन स्कूल के अंदर घूमने के बाद, अंकित यूँ ही सड़क पर चलने लगा। श्रेया भी उसके साथ ही है। पैदल चलते हुए वो दोनों एक सुनसान जगह पहुँचे। अंकित अपने स्कूल के असपास सबकुछ इत्मीनान से देखना चाहता है।

"अरे, ये कितना सुंदर पेड़ है!" अंकित ने श्रेया को बोला।

"हाँ। हमलोग ने ये कभी देखा क्यों नहीं?" श्रेया भी इस पेड़ को नहीं पहचानती थी। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे वो कुछ नया डिस्कवर कर रहे हों।

"हम इस तरफ़ नहीं आया करते थे, इसलिए।" अंकित पेड़ के करीब जाते हुए बोल रहा है।

तभी अचानक तेज़ हवा चली।

"आंधी जैसा आने वाला है। अजीब हवा है यार। अचानक से मौसम बदल गया।" अंकित के लिए अब हवा सिर्फ हवा या तेज़ हवा है। कुछ और नहीं।

"जल्दी चलो।" श्रेया ने अंकित को बोला।

और पता नहीं कैसे, कुछ संतरे ज़मीन पर गिर गए।

"अरे, तुम्हारे फेवरेट संतरे!" श्रेया हंसने लगी। अंकित को समझ नहीं आया कि ये संतरे अचानक कैसे गिर गए। उसने पेड़ को देखा। बहुत ध्यान से देखा। फिर कुछ संतरे उठाये। मुस्कुराया। पेड़ को अंतिम बार देखा और लौट गया।

Sunday, 1 December 2019

End Notes

End Note 1


मेरी आँखें सच में कभी बंद हो जाएंगी। और फिर कभी नहीं खुलेंगी। मैं मरूँगा। अपने अंतिम क्षणों में मेरा पश्चाताप क्या होगा? इस सवाल को हमेशा तो नहीं सोचता, लेकिन कभी-कभी ज़रूर सोचता हूँ।

मैं अपने बहुत सारे इक्कठा किये गए किताबों को नहीं पढ़ सकने का दुःख मनाऊंगा। मैं अपने हार्ड-ड्राइव में अनदेखे फिल्मों को नहीं देखने का शोक मनाऊंगा। मैं ठीक से प्रेम नहीं कर पाया, इस बात से दुखी रहूँगा। मैं कुछ लोगों से बहुत कुछ कहना चाहता था। उनसे ना कह पाने का दुःख रहेगा। मैं सबसे पहले एक क्रिकेटर बनना चाहता था। फिर पत्रकार। बीच में टेबल-टेनिस प्लेयर भी। लेकिन कुछ भी पूरा नहीं चाहता था। अब भी जो भी चाहता हूँ उसे पूरा नहीं चाहता। मैं घर से जब भी निकलता हूँ पूरा नहीं निकलता। मेरा कुछ हिस्सा घर में रह जाता है। जब कोई रिश्ता ख़त्म होता है, तो मेरा कुछ हिस्सा किसी के पास छूट जाता है। मरते वक़्त ये दुःख भी हो सकता है कि मैं पूरा नहीं मरा। मेरे बहुत हिस्से बहुत लोगों के पास ज़िंदा रह जाएंगे। लेकिन इस बात से खुश भी हो सकता हूँ कि मेरे मरने के बाद लोग कुछ दिन तक मुझे याद रखेंगे। फिर वो भूल जाएंगे, जैसे मैं बहुत लोगों को भूल चूका हूँ। भूलना ज़रूरी है, वरना सर-दर्द बहुत बढ़ जाएगा।

मुझे सुसाइड नहीं करना। लेकिन मुझे सुसाइड नोट लिखना पसंद है। हर सुसाइड नोट तब तक के जीवन का सार होता है; एक पड़ाव होता है। और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन। 
मैं इस जीवन में बहुत सारे सुसाइड नोट लिखना चाहता हूँ। सुसाइड नोट विराम हैं, मृत्यु पूर्ण विराम।

-10.4.2016
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End Note 2


मैं कई दिनों से कुछ महान लिखना चाह रहा था... कुछ ऐसा जिसे पढ़कर तुम धन्य हो जाओ। कुछ ऐसा जो तुम्हारे सामने मुझे फिर से महान बना दे - लेकिन मैं ऐसा ना कुछ लिख पाया, ना कह पाया।

लेकिन मैं लगातार महान लोगों से मिलता रहा। सच बताऊँ तो उनसे मिलकर मैं धन्य नहीं हो पाया। वो भी लगातार, अनवरत कोशिश कर रहे थे कुछ महान कहने की... कुछ अद्भुत सा कर देने की। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनकी महानता के बीच भी चावल-दाल के दाम में कोई बदलाव नहीं आया। वो महान बने रहे, लेकिन मेरे ऑटो के भाड़े में कोई फर्क नहीं आया। उनकी महानता के किस्से सुनकर भी ऑटो 18 रुपये से ही डाउन हुआ। ओला और उबर में सर्ज प्राइस आता रहा।

दुनिया की सभी महान कहानियों को सुनकर भी कहीं कुछ नहीं बदला। मुझे कभी-कभी लगता कि इतनी महानता के बीच मैं भी सिर्फ कुछ बोल कर निकल लूँगा। लेकिन जब-जब मैंने कुछ बोलने भर की कोशिश की, मुझे एक झूठ की दुर्गन्ध सुनाई दी। महानता का झूठ कितना बड़ा है! महानता के ठीक बीचोबीच किसी को ये दुर्गन्ध सुनाई नहीं दे रही। क्योंकि दुर्गन्ध की आदत हो गयी है।

हमारे सभी धर्मों में भगवान लगातार महान हैं। मरने के बाद सभी राजनेता महान हैं। हमारे दादा, परदादा, पिता, बड़े भाई, माँ - सभी लगातार महानता का चोला ओढ़े हुए रहते हैं। और इस सभी महानता के बीच मुझे महान होना सबसे आम नज़र आया। क्या ऐसा हो सकता है कि मैं और तुम वैसे मिलें जैसे की हमें मिलना था? आम होकर। अपनी बहुत सारी कमियों के साथ जीना आसान नहीं होता क्या? महानता के बोझ से दब कर हमारी दोस्ती दम तोड़ देगी।

राम के ऊपर महान होने का इतना बोझ था कि सीता को छोड़ना पड़ा। क्या हमारे समय में ऐसा राम नहीं आएगा जो सीता के साथ सिर्फ इसलिए खड़ा रहे कि वो उससे प्यार करता है? महान होने का मूल्य अगर अपने प्रेम को खोना है तो ऐसी महानता किस काम की?

काश हमारे आदर्श कम महान लोग होते तो शायद ये दुनिया जीने की लिए और बेहतर हो जाती।

6.9.2019
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End Note 3


मैं पाश की कविता को कई-कई दिनों तक दोहराता हूँ- 'मैं अब विदा लेता हूँ'...

किसी नए व्यक्ति से मिलता हूँ, और जब हमारे पास बात करने को कुछ नहीं होता, तो मैं उस खाली समय में पूछता हूँ, "क्या तुमने पाश की कविता पढ़ी है?"

"कौन सी कविता?"

"अब विदा लेता हूँ।"

"नहीं। ये तो नहीं पढ़ी।"

"ओह। मैं पढ़ दूँ?"

"हाँ..."

और मुझे नहीं पता मैंने कितने लोगों को ये कविता सुनाई है। कई लोग तो कविता सुनना पसंद भी नहीं करते। और ये एक बेहद लंबी कविता है। इस कविता के ख़त्म होते तक उनकी कॉफी भी ख़त्म हो जाती थी। गले तक जीवन से भरी हुई कविता।

मुझे हमेशा लगता कि मैंने एक नाटक ख़त्म किया है। मेरे लिए इस कविता को पढ़ना एक परफॉर्मेन्स होता। और मैं कोशिश करता बेहद ईमानदारी से इसे पढूँ। बिना किसी झूठ के। हम कई बार अपने झूठे समझ से परफॉर्म कर रहे होते हैं, कि सामने वाला रो दे। या हँस-हँस के पागल हो जाए। जो जैसा है उसको वैसा नहीं कर पाते।

और मैं कई बार दुखी हुआ हूँ जब सामने वाले ने औपचारिक तारीफ़ के बाद बोला है, "कितना डिप्रेस्ड था पाश। Suicidal है ये कविता।"

मैंने ज़िन्दगी, प्रेम और संघर्ष की इससे खूबसूरत कविता नहीं पढ़ी है। इस कविता में पाश जीना चाहता है। कितना आसान है ज़िन्दगी की चाहत रखने वाले इंसान को suicidal बोल देना? ज़िन्दगी का समूचापन एक अंत तो मांगता है। लेकिन एक कवि का अंत कवि decide करता है। और वो कई सदियों तक अपनी कविता में ज़िंदा भी रह सकता है। ये अमर होने की प्रक्रिया है जो किसी और के पास नहीं है - सिर्फ एक लेखक, एक कवि के पास है।

हमें हर कहानी का अंत चाहिए। एक बेहद romantic आदमी अंत में विश्वास नहीं रखता होगा शायद। क्योंकि अंत तो real है। लेकिन हम सभी को सभी कहानियों में अंत ढूंढना है। वरना हमारे समझ की arc अधूरी रह जाएगी।

अब विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
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उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना
-----
तुम्हें
मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूँ
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तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना...

18.9.2019
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End Note 4


मैंने पाया है कि हम सब एक आदत से बंधे हुए हैं। ना चाहते हुए भी हमारी आदतें हमारे साथ ही रहती हैं। जैसे कि ऑफिस जाने की आदत। अगर हमसे ये आदत छीन ली जाए तो अचानक से सबकुछ निरर्थक लगने लगेगा।

शुरुआत में शायद लगे कि वाह! सब कितना बढ़िया है। मैं यही तो करना चाहता था! जीवन जीना इसे ही तो कहते हैं। लेकिन हमारे अंदर का control freak तुरंत से सबकुछ एक ढांचे में चाहेगा। सब कुछ का एक schedule होना चाहिए - कुछ ना करने का एक बेहतरीन schedule हम तुरंत से बना लेंगे। हम इंसान हैं। हमें सभी चीजों पर अपना control चाहिए - दोस्त पर, ऑफिस में, शहर में, देश पर, धरती पर... चाँद और मंगल पर।

ये जानते हुए कि इन सबका कुछ खास मतलब नहीं है, हम लगातार एक रेस का हिस्सा हैं। बिन दौड़े हम जी नहीं सकते। दौड़ना हमारी आदत है। जैसे ही एक इंसान इस दौड़ में थोड़ा सा भी सुस्ताने लगता है, पूरी इंसानी civilisation उसको दौड़ने के लिए उकसाती है। एक तंत्र तैयार है आपको दौड़ाने के लिए - loan, EMI, दोस्तों की सफ़लता, कुछ साबित करने की होड़...

इस दौड़ से थोड़ा वक्त भर निकाल लेना भी क्रांति है। लेकिन सभी क्रांतिकारी एक अलग दौड़ का हिस्सा बन गए, धीरे-धीरे...

18.9.2019
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End Note 5


इस घर को छोड़ कर जा रहा हूँ। करीब ढाई साल रहा। बम्बई का पहला घर। अब कहीं और जा रहा हूँ।

'Home' सिर्फ आपके Uber, Ola, Swiggy, Zomato या Amazon में लिखा address नहीं होता। घर एक स्पेस देता है 'मैं' होने का। ये घर कोई इंसान भी हो सकता है, जिसके पास हम बार-बार जाना चाहते हैं, जाते हैं।

घर बदलते हुए सबसे पहले इन apps में से नए 'home' को अपडेट करना होगा। एक नए जगह को समझना होगा, और फिर उस नए जगह से लगाव हो जाएगा। इस घर को भूल जाऊंगा, जैसे पिछले घरों को भूलता आया हूँ।

हर घर के साथ एक संबंध बना होता है। यहीं पर बेतकल्लुफ होकर सोया। घंटों सोया। रातों जगा। और जिया। बम्बई को जिया। यहाँ की 21वीं फ्लोर की बालकनी से बम्बई बहुत सुंदर दिखती है। बम्बई की monsoon के मज़े यहीं से मिलते थे।

एक घर से निकलना एक रिश्ते से निकलने जैसा है।

22.9.2019
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End Note 6


अंत कैसा होता होगा की कल्पना में मैंने कितना वक़्त गँवाया है!

मेरे खिड़की पर कुछ पंछी आते हैं। सिर्फ उदास दिनों में इनकी आवाज़ ध्यान से सुनता हूँ। खुशी के दिन अपने साथ इतना कुछ लाते हैं कि उनमें ही फँस जाता हूँ। अंत के समय कोई एक आवाज़ होगी जो मैं अंतिम बार सुनूँगा। मैं ऐसी कामना करता हूँ कि वो आवाज़ या तो तुम्हारी हो या एक पक्षी की। पक्षियों की आवाज़ में संगीत है।

और तुम्हारी आवाज़ मेरे लिए संगीत।

समय के साथ हमारी आवाज़ थोड़ी-थोड़ी तो बदल जाती होगी, जैसे हमारी शक्ल बदल रही होती है। अंत के दिनों में तुम्हारी शक्ल पहचानना मुश्किल होगा। इसलिए मैं लगभग रोज़ एक बार हमारे अंतिम संवाद को याद करता हूँ। मैं मन में उन शब्दों को दोहराता हूँ, कि अंत में तुम्हें तुम्हारी आवाज़ से पहचान लूँ।

लेकिन हमारे अंतिम संवाद सुखद नहीं थे। सुखद होते तो वो अंतिम नहीं होते। और दुख के संवाद को याद कर के मैं फिर से दुखी हो जाता हूँ।

खैर, ये सोच कर कि कभी ऐसा दिन आएगा जब मैं एक पक्षी की आवाज़ अंतिम बार सुनूँगा, मैं दुखी हो जाता हूँ। इसलिए पक्षियों की आवाज़ बार-बार सुनता हूँ, एकांत में। अंतिम दिन अगर कोई पक्षी नहीं आये तो मैं मन में उनकी आवाज़ दोहरा लूँगा, जैसे तुम्हारे शब्द दोहराता हूँ।

पक्षियों से कोई बैर नहीं, ना पक्षियों को मुझसे बैर है। इसलिए उनकी आवाज़ हमेशा सुखद रहेगी।

30.11.2019
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End Notes 7
मैं अंत पर खड़े सभी किरदारों को देखता हूँ - स्कूल का दोस्त, दादी, चाचा... चाची। अंत पर खड़े लोगों में उदासी दिखती है। ठीक अंत पर कोई खुश नहीं दिखता। ठीक अंत पर एक समुद्र दिखता है, अंतहीन। अगर खराब कविता लिखता तो इस समुद्र को 'आंसुओं का समुद्र' लिखता। लेकिन हम इतने आँसू कहाँ बहाते हैं कि समुद्र भर दें। 

ठीक अंत पर खड़े दोस्त से बात करना चाहता हूँ।

अमित मेरा दोस्त था। उसने आत्महत्या की, बहुत छोटी बात पर। मैं क्लास 7 में था। अमित 8वीं में। उसके मरने की खबर सुनकर मैं रोया, लेकिन मुझे लगा कि मैं बड़ा हो गया हूँ। दोस्त ने आत्महत्या कर ली है। ये खबर आपको कहीं से भी बच्चा बने नहीं रहने दे सकती। कुछ दिन या महीने में ये बात भूल गया।

पिछले कुछ दिनों से अमित याद आता है कभी कभी। मैंने अचानक से बहुत दोस्तों से उसके बारे में बात की है। मैं उससे भी बात करना चाहता हूँ। शायद बात कर के समझा भी लूँ कि इतनी जल्दी आत्महत्या करना ठीक नहीं है। अभी तो हमने कुछ झेला भी नहीं है। ज़िन्दगी बहुत लंबी है। बहुत कुछ देखना है। और उसके बाद अगर मन करे तो आत्महत्या कर सकते हैं। लेकिन इतनी जल्दी नहीं दोस्त।

ये सब बनावटी बात है। मैं नहीं जानता अमित क्या महसूस कर रहा था। बस एक सेकंड लगा होगा, और पिताजी के सर्विस रिवाल्वर ने अपना काम कर दिया होगा।

उसके पास किसी को होना चाहिए था। कोई दोस्त। बच्चा था। किसी 8वीं के बच्चे को देखता हूँ तो लगता है हम क्या कर रहे थे 8वीं में! लेकिन इन बच्चों के जीवन में भी क्या चल रहा है, हमें कहाँ पता है।

एक प्रिय कवि को खोना दुख देता है। एक प्रिय कविता को खोना भी दुख देता है। दोस्त को खोना एक कविता को खोने जैसा है।

18.1.20 


Thursday, 12 July 2018

एक प्रेम कहानी



सुनो,

मेरी आँखें सच में कभी बंद हो जाएंगी। और फिर कभी नहीं खुलेंगी। मैं मरूँगा। अपने अंतिम क्षणों में मेरा पश्चाताप क्या होगा? इस सवाल को हमेशा तो नहीं सोचता, लेकिन कभी-कभी ज़रूर सोचता हूँ।

मैं अपने बहुत सारे इक्कठा किये गए किताबों को नहीं पढ़ सकने का दुःख मनाऊँगा। मैं अपने हार्ड-ड्राइव में अनदेखे फिल्मों को नहीं देखने का शोक मनाऊँगा। मैं ठीक से प्रेम नहीं कर पाया, इस बात से दुखी रहूँगा। मैं कुछ लोगों से बहुत कुछ कहना चाहता था। उनसे ना कह पाने का दुःख रहेगा। मैं सबसे पहले एक क्रिकेटर बनना चाहता था। फिर पत्रकार। बीच में टेबल-टेनिस प्लेयर भी। लेकिन कुछ भी पूरा नहीं चाहता था। अभी भी जो भी चाहता हूँ उसे पूरा नहीं चाहता। मैं घर से जब भी निकलता हूँ पूरा नहीं निकलता। मेरा कुछ हिस्सा घर में रह जाता है। जब कोई रिश्ता ख़त्म होता है, तो मेरा कुछ हिस्सा किसी के पास छूट जाता है। मरते वक़्त ये दुःख भी हो सकता है कि मैं पूरा नहीं मरा। मेरे बहुत हिस्से बहुत लोगों के पास ज़िंदा रह जाएंगे। लेकिन इस बात से खुश भी हो सकता हूँ कि मेरे मरने के बाद लोग कुछ दिन तक मुझे याद रखेंगे। फिर वो भूल जाएंगे, जैसे मैं बहुत लोगों को भूल चुका हूँ। भूलना ज़रूरी है, वरना सर-दर्द बहुत बढ़ जाएगा।

मुझे सुसाइड नहीं करना। लेकिन मुझे सुसाइड नोट लिखना पसंद है। हर सुसाइड नोट तब तक के जीवन का सार होता है; एक पड़ाव होता है। और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन।

मैं इस जीवन में बहुत सारे सुसाइड नोट लिखना चाहता हूँ। सुसाइड नोट विराम हैं, मृत्यु पूर्ण विराम।

तुम इसे पढ़ कर भूल जाना।

तुम्हारा,
मैं।

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दृश्य: कनॉट प्लेस का एक कॉफ़ी शॉप।

दोनों 12 साल बाद मिल रहे हैं। कॉलेज के दिनों में जंतर-मंतर पर आंदोलन के साथी। अब वो नौकरी करने लगा है। और वो मेरठ में अपने परिवार के साथ रहती है।

"मुझे कभी लगा नहीं था कि हम इस जीवन में दोबारा मिलेंगे। मैं तो मान चुका था कि हम दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं।"

"मैंने भी नहीं सोचा था। लेकिन कई सालों बाद दिल्ली आना हुआ तो सोचा तुमसे मिल लूँ। इसलिए फेसबुक पर मेसेज किया।"

"अच्छा किया जो तुमने मेसेज किया। मैं तो कई बार मेरठ आया। लेकिन हिम्मत नहीं हुयी तुम्हें मेसेज करने की। और अब टाइम भी तो नहीं रहता। सिर्फ ऑफिस के काम से मेरठ आता हूँ।"

"तुम्हें याद है जंतर-मंतर और आर्ट्स फैक्लटी के धरने और आंदोलन! तुम्हारे चक्कर में क्या-क्या नहीं किया मैंने।"

"तुम्हारी समझ भी तो अच्छी थी उन सभी इशूज़ की। इतने साल में मुझे कोई लड़की मिली नहीं जिसकी पॉलिटिकल क्लैरिटी तुम्हारे जैसी हो।"

"वो सब कॉलेज के टाइम की बातें हैं। सोचा था दुनिया बदल ही देंगे। दो बच्चे हैं। उन्हें भी बदल नहीं पाती! और आजकल स्कूल में इतना होमवर्क मिलता है बाबा! पूरा दिन उनके होमवर्क कराने में गुज़र जाता है। जानते हो, बहुत थक जाती हूँ।"

"तुम्हारे बाबा कहने की आदत नहीं गयी।"

"हा! तुम्हें ये याद है? बहुत बदल गयी हूँ लेकिन। तुम कैसे हो? क्या चल रहा है जीवन में?"

"मैं बहुत खुश हूँ। अच्छी नौकरी है। ऑफिस घर के पास ही है। तो ज़्यादा ट्रैवेल नहीं होता। ऑफिस में सबकुछ है। वहीँ सुबह जिम कर लेता हूँ। तीन महीने पहले मुझे अपनी केबिन भी मिली है। सब बढ़िया है।"

"हम्म..."

"क्या?"

"तुम्हें बिल्कुल भी याद नहीं होगा। बहुत मामूली बात है लेकिन... छोड़ दो।"

"क्या? बताओ तो... इतना कुछ तो हमने छोड़ दिया। बातों को भी..."

"यहीं सेंट्रल पार्क में तुमने कभी कहा था कि अगर हम कभी अलग हुए, और कई सालों बाद तुम्हें ये पता चले कि मैं किसी बड़े कंपनी में एक अच्छी नौकरी कर रहा हूँ, तो समझ जाना कि मैं खुश नहीं हूँ..."

"... हा! मैं भी कितना बेवकूफ था ना!"

"हाँ, तुम बहुत बेवकूफ थे।"

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इस रिश्ते को ख़त्म हुए बारह साल बीत गए हैं। लेकिन वो एहसास अब भी मेरे साथ है, स्ट्रांग कॉफ़ी की तरह।
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मैं यहीं कहीं रहती थी। यहाँ जहाँ वो नहीं था। वो भी यहीं कहीं रहता था। वहाँ जहाँ मैं नहीं थी। हम साथ-साथ रहते थे, और साथ नहीं भी। कौन किसका है ये सोचते हुए एक रिश्ता निभा रहे थे।

मेरा इस रिश्ते में ना रहने का कारण उसका ज़्यादा रहना था।
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हम दोनों प्यार करते थे। मेरा उससे प्यार करना उतना ही सच है जितना मेरा होना। मैं कहीं भी जाता हूँ, मेरा कुछ हिस्सा उसके पास ही रखा होता है। प्यार कभी ख़त्म नहीं होता। वो सतही धूल के नीचे दबा होता है। वो अगर एक फूँक भर देती, तो वो उभर आता।

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सोलह साल पहले। कॉलेज के शुरुआती दिन। थिएटर क्लब के ऑडिशन चल रहे हैं। लड़का और लड़की भी ऑडिशन दे रहे हैं।

लड़का: “शायद आपका फ़ोन बज रहा है।”

लड़की: “जी नहीं। मेरा फ़ोन साइलेन्स पर है।”

लड़का: “आप इकोनॉमिक ऑनर्स में हैं ना?”

लड़की: “मैं आपकी ही क्लास में हूँ। इंग्लिश ऑनर्स। आपने ध्यान से नहीं देखा होगा।”

“मुझे लग रहा था कि मैंने कहीं तो आपको देखा है। सॉरी।”

“सॉरी की बात नहीं है। बस एक हफ़्ता तो हुआ है कॉलेज को शुरू हुए। किसी को किसी का चेहरा याद रहे ज़रूरी नहीं।”

“मैं रोहित।”

“मैं प्रीती।”

“सो, थिएटर?”

“हाँ। बचपन से मन था कभी तो थिएटर करूँ। स्कूल में भी नहीं किया। कॉलेज ऑडिशन का देखा तो सोचा कि कर सकती हूँ… आप?”

“मैं तो थिएटर करता हूँ। बाहर भी एक ग्रुप है। उनके साथ करता हूँ। कॉलेज में भी जॉइन कर लूँगा तो अच्छा रहेगा।”

“ओह, तो आप वेटरन हैं।”

“अरे नहीं। और ये आप मत कहिये। काफ़ी फॉर्मल लगता है।”

“आप ही आप कर रहे हैं। वरना मुझे तो काफ़ी ऑकवर्ड लग ही रहा था आप करके बात करना।”

“ओ! सॉरी! अब रेस्पेक्ट नहीं दूँगा!”

“अरे, रेस्पेक्ट और ‘आप’ का क्या लेना देना? रेस्पेक्ट तो बिना आप बोले भी दे सकते हैं।”
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ऑडिशन के बाद।

“प्रीती! प्रीती!”

“अरे, तुम।”

“हाँ। तो कैसा रहा ऑडिशन? तुम्हारा सलेक्शन हुआ?”

“नहीं यार। मेरा तो नहीं हुआ। बोला कि एक्सपीरियंस कम लग रहा है। अरे, फर्स्ट ईयर में हूँ। कैसे एक्सपीरियंस आएगा? ये थर्ड ईयर वाले बहुत ज़्यादा समझते हैं अपने आप को। तुम्हारा तो हो गया होगा?”

“हाँ, हो तो गया है। मैं कुछ बात करूँ क्या तुम्हारे लिए…”

“नहीं नहीं। मुझे थिएटर का क्राउड भी कुछ खास नहीं लगा। इसी बहाने क्लास थोड़ा ठीक से अटेंड कर लूँगी। चलो, फिर क्लास में मिलेंगे।”

“ओके। मिलते हैं आराम से।”
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कुछ महीने बाद। कॉलेज इलेक्शन के दौरान।

“प्रीती…”

“हाँ रोहित। तुम क्लास क्यों नहीं आते? तुम्हारे अटेंडेंस का क्या होगा?”

“अरे रिहर्सल होते हैं ना। अटेंडेंस का टेंशन नहीं है। वो तो हम थिएटर वालों का मैनेज हो जाता है। लेकिन मुझे तुम्हारा फ़ेवर चाहिए।”

“कैसा फ़ेवर?”

“एक्चुअली, मैंने एक पार्टी जॉइन की है। हमलोग इलेक्शन भी लड़ रहे हैं। तो तुम भी सपोर्ट करो हमें।”

“कैसे सपोर्ट करूँ? और, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?”

“अरे, हम तो लाल हैं। अपनी पॉलिटिक्स बताओ?”

“अपना तो कोई रंग नहीं है। जो सही है वो सही है। जो गलत है वो गलत है।”

“मतलब कोई आइडेंटिटी नहीं है। पता है, समाज के लिए ऐसे लोग सबसे ख़तरनाक होते हैं जो असल में श्योर नहीं होते कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है।”

“तुम्हें कैसे पता कि मुझे अपनी पॉलिटिक्स नहीं पता? और तुम सिर्फ एक पार्टी जॉइन करके मोरल हाईग्राउंड कैसे ले सकते हो? अभी तो फ़ेवर चाहिए था तुम्हारी पॉलिटिक्स को!

“अरे, मेरा मतलब वो नहीं था। मैं कह रहा था कि एक पार्टी रहती है तो अपने विचारों को दिशा मिल जाती है… इसलिए पार्टी जॉइन कर लो। मेरा टारगेट भी पूरा हो जाएगा…”

ज़ोर से हँसते हुए, “अरे, समाज के रक्षक के टार्गेट्स भी हैं! तब तो जॉइन करना ही पड़ेगा। वरना क्रांति कैसे आएगी!”

“अरे, साथ काम करेंगे… क्रांति आ जाएगी।”

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हमारे जीवन में सिर्फ़ अदाकार आते हैं, अलग अलग किरदारों में। मैं भी जिनके जीवन मे कदम रखता हूँ दरअसल उनके जीवन के नाटक में एक किरदार ही हूँ।

हम सब झूठे हैं। लेकिन इस झूठ के सच का अनंत आनंद है। मुझे सच बोलने वाले किसी किरदार का इंतज़ार नहीं है। ना ही मैं वो किरदार हूँ जो कहीं जाकर सच बोलेगा। मुझे बेहद झूठे और झूठ में सच जीने वाले लोगों का इंतज़ार है। जो इस भ्रम में हैं कि वो दरअसल सच्चे हैं, ऐसे लोगों से दूर एक दूसरे शहर में नाटक खेलना चाहता हूँ।

हमारा ये भ्रम कि हम दुनिया बदल रहे हैं, बहुत बड़ा था। इस भ्रम का झूठा ‘सच’ हमें एक नशा देता था। व्यक्तिगत जीवन उतना मायने नहीं रखता था।
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बेहद प्यार में डूबा हुआ होने के एहसास से बेहतर कुछ भी नहीं होता होगा। लोगों का बेहद प्यार में डूबा पल मानव समाज के सबसे बेहतरीन पलों में से एक होगा।

मैं जितने देर भी प्यार के करीब रहती हूँ उतनी देर एक बेहतर इंसान कैसा होता है, महसूस करती हूँ।
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मुझे नहीं पता बेहतर प्यार कैसे करते हैं। शायद सबकुछ खो कर भी जिसकी चाहत बराबर रहे वो बेहतर प्यार होता हो। खुसरो का निज़ामुद्दीन के लिए, या मेरे बचपन के एक दोस्त का मेरी क्लास की एक लड़की के लिए। ज़रूरी नहीं कि सभी प्यार की कहानियाँ अमर हो जायें। अमर होना अप्राकृतिक भी है। इंसान उस पल में क्या बन पाया, ये ज़रूरी है। 

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दृश्य: आर्ट्स फैक्लटी, डी.यू, का मैदान। यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ एक कैंपेन के बाद। दोनों सुबह से नारे लगाने के बाद फुर्सत के पलों में।

लड़की: “तुम कोई कविता सुना सकते हो क्या?”

लड़का: “अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें…”

“बेहतर कविता।”

“ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो, नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें।”

“मैं थकी हुई हूँ। और फिलहाल फ़राज़ साहब मुझे कोई सुकून नहीं दे रहे। कुछ बेहतर सुनाओ। थिएटर करने वाले के पास तो ख़ज़ाना होना चाहिए ग़ज़लों और कविताओं की।”

“बेहतर कविता क्या है? जो पाश ने लिखी है? या जो ग़ालिब ने?”

“बेहतर वो है जो फिलहाल मेरा पेट भर दे।”

“तो इस समय सदी के सबसे बड़े शायर कैन्टीन के मोहन भैया हैं।” 
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दोनों खाना खाते हुए।

“ये बताओ आज के कैंपेन का एडमिनिस्ट्रेशन पर कुछ फ़र्क पड़ेगा?”

“कैसे नहीं पड़ेगा! बिल्कुल पड़ेगा। दो से तीन हज़ार स्टूडेंट्स ने हल्ला किया है। वी.सी की हालत टाइट हो गयी थी। मैंने खुद देखा किस तरह वो डरा हुआ था।”

“जानते हो, पिछले साल भी ऐसा हंगामा हुआ था। और उसके पिछले साल भी। और हम आज फिर हंगामा कर रहे हैं। बार-बार लगातार हंगामा करने की क्या ज़रूरत अगर फ़र्क पड़ रहा हो तो?”

“हम पॉलिटिकल लोग हैं। हम इतनी सतही बात नहीं कर सकते। पॉलिटिक्स एक प्रक्रिया है। तुम अंत की खोज कर रही हो। हम अभी शुरुआती दौर में हैं। पिछले दस साल में यूनिवर्सिटी का फ़ीस सौ प्रतिशत बढ़ चुका है। लेकिन ये पाँच सौ प्रतिशत भी बढ़ सकता था। हम अपना काम तो करते रहेंगे ना।”

“मैं इनकार नहीं कर रही। मैं बस पूछ रही हूँ कि ये प्रक्रिया कहीं छलावा तो नहीं है हम सभी को व्यस्त रखने के लिए।”

“हो भी सकता है। मैं मना नहीं करता हूँ। लेकिन इसकी खोज तो हमें खुद ही करनी है। जैसे तुम्हारे मन में ये सवाल आना बड़ी बात है।”

“अब ये सवाल तुम्हारे मन में भी डाल दिया है कॉमरेड। पार्टी से रिज़ाइन कर डालो!” बोलते-बोलते हँस पड़ती है।

“इतना नकली कम्युनिस्ट नहीं हूँ कि गर्लफ्रेंड की बात में आकर पार्टी छोड़ दूँ। चलो, तुम्हें भी क्लास के लिए जाना है, और मेरी भी रिहर्सल है।”
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“आज शाम कहीं चलते हैं?”

“कहाँ?”

“सेंट्रल पार्क… डायरेक्ट मेट्रो।”

“मेरी रिहर्सल लंबी चलेगी। अच्छा, कल का प्लान करें क्या?”

“उफ्फ! तुम और तुम्हारी रिहर्सल। बस पछताओगे!”

“आप मेरे पछतावे की चिंता ना करें। बस ये बताइये कि क्या कल का डेट हमें मिल सकता है?”

“मेरी सेक्रेटरी से पूछ लेना! अच्छा बाए!”

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मैं जानती थी कि तुम्हें थिएटर और पार्टी की ज़्यादा चिंता थी। वो तुम्हारी प्रायोरिटी थीं। मैंने तब भी कंप्लेन नहीं किया। अब भी नहीं करती हूँ। लेकिन, हम शायद साथ नहीं चल रहे थे। 

मैं चाहती थी कि हम साथ चलें। तुम थोड़ा आगे चल रहे थे। मैं कभी-कभी बोलना चाहती थी कि ये वाला मोड़ लेना है, लेकिन तुम दूसरी तरफ़ बढ़ चुके होते थे। मैं तुम्हें बुलाती थी। लेकिन उन नारों और थिएटर की तालियों में मेरी आवाज़ तुम तक नहीं पहुँचती थी। मैं कई बार रुकती भी थी। लेकिन तुम कई बार मुड़ते नहीं थे।

अब शायद तुम मुड़ सकते हो। लेकिन वो सारे मोड़ नक्शे पर नहीं हैं।

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"मैंने कई बार तुमसे कहा है कि टूथपेस्ट को ऊपर से नहीं, नीचे से प्रेस किया करो। लेकिन तुम मेरी बात नहीं समझते।" प्रीती सुबह सुबह झल्लाते हुए रोहित से बोल रही थी। "मेरी एक बात मान लेने से घर नहीं गिर जाएगा, या तुम कम रिबेलियस नहीं हो जाओगे।"

"प्रीती... सुबह सुबह मत शुरू हो जाओ यार। अभी आधे घंटे पहले सोने आया हूँ। पूरी रात हमलोग नाटक की रिहर्सल कर रहे थे। मेरा पहला टिकेटेड शो है। कुछ देर में वापस जाना है। प्लीज़..." रोहित नींद में ही था।

कॉलेज ख़त्म हो चुका है। रोहित अब सिर्फ थिएटर करता है और प्रीती नौकरी। जब दोनों के बीच चार साल पहले प्यार शुरू हुआ था तब ये किसी ने नहीं सोचा था कि जीवन में इस तरह के भी मुद्दे आएंगे जिन्हें सुलझाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना प्यार। टूथपेस्ट भी प्रेम की तरह ज़रूरी है, और चाय की कप को बिस्तर के नीचे से हटाना भी। प्रेम के मायने प्रेम से परे कुछ और होते हैं। प्रेम इन सबके इर्द-गिर्द ही कहीं रहता है।

“बाबा! मैं सिर्फ़ इतना कह रही हूँ कि मेरी बात को थोड़ा तो ध्यान में रख सकते हो ना? मैं ऑफिस जा रही हूँ। आज थोड़ा लेट ही आऊँगी।”

“ठीक है।” रोहित नींद में ही बोल रहा था।
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“प्रीती, तुम अपने ऑफिस में कुछ ज़्यादा ही इन्वॉल्व नहीं हो गयी हो?”

“ज़्यादा ही इन्वॉल्व होना होता है। दाल में नमक कम है। प्लीज पास करना।”

“ये लो। हमलोग तो कभी आराम से बैठ कर बात ही नहीं कर पा रहे हैं।”

“कैसे करेंगे… कभी तुम्हारे रिहर्सल, तो कभी मेरी ऑफिस। ये दिक्कत तो रहेगी ही।”

“तुम्हारा भी सेलेक्शन कॉलेज थिएटर क्लब में हो जाता तो शायद ये दिक्कत ना होती।”

“रोहित, साथ थिएटर करने वाले सभी लोग रिलेशनशिप में नहीं आ जाते।”

“तो ऐसे कैसे चलेगा? हमलोग अंजान बनकर रह गए हैं।”

“जो कंप्लेन मेरा होना चाहिए, वो तुम कर रहे हो?”

“क्या फ़र्क पड़ता है कि कौन कंप्लेन कर रहा है। हम दोनों को सच तो पता ही है ना।”

“हाँ। पता है।”

“तो?”

“तो कुछ भी नहीं। आज भी थोड़ा लेट हो जाएगा।”

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हम दोनों लेट कर चुके थे। कई साल साथ रहने के बाद भी हम नहीं समझ पाए एक दूसरे को। बहुत कुछ समझा। एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखा। लेकिन हम वो नहीं कर पाए जो करना चाहते थे।

हम दुनिया घूमना चाहते थे। चेयरमैन माओ के मेमोरियल को साथ देखना चाहते थे। और स्विट्जरलैंड भी साथ जाना चाहते थे। इजिप्ट के पिरामिड्स पर फ़ोटो खींचना था। और नॉर्थन लाइट्स को साथ महसूस करना था। हमारे सपने बहुत सुंदर थे। हम दोनों ने कई साल इन सपनों को पाला पोसा था।

और इन सबका भी अंत आया।
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हमने कुछ नहीं किया।

हमने सिर्फ अपने 'होने' का एक घर बना लिया- ईंट पत्थर का नहीं, यादों का। खाली वक़्त में बैठे-बैठे इंस्टाग्राम पर मैं तुम्हारे सिर्फ वो फ़ोटो देखता हूँ जो मैंने खींची हैं। उस वक़्त में हम साथ थे। बाकी फ़ोटो भी शायद अच्छे हों, लेकिन वो हमारे 'साथ होने' के पल नहीं थे। जब मैंने तुम्हारी फ़ोटो खींची थी तो हम कुछ नहीं कर रहे थे। हमें नहीं मालूम था कि कुछ समय बाद ये फ़ोटो मुझे वो सुकून देंगे जो दफ़्तर से लौटने के बाद घर देता है। बाकि सब तो दुनिया है। तुम घर हो।

इंस्टाग्राम पर भी बहुत भीड़ है- दिल्ली के भीड़ की तरह। लेकिन इन सबसे छुपते-छुपाते जब मैं तुम तक पहुँचता हूँ तब मैं भीड़ से दूर खुद को एक पार्क में पाता हूँ, तुम्हारे साथ।

सिर्फ ये साथ होने का एहसास सुंदर है। हमने कुछ नहीं किया... ना हम कुछ करेंगे। लेकिन ये एहसास जब तक हमारे साथ रहेगा, जीवन सुंदर दिखता रहेगा।
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सुनो,

ये एक और सुसाइड नोट है। मैं आत्महत्या नहीं करूँगा, और इसे तुम भूल जाना।

मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ। हमेशा। मुझे किसी भी परिस्तिथि से निकलने का सिर्फ एक रास्ता पता है- आत्महत्या। मैं इसे कभी गलत नहीं मानता। खुद से चुनी हुई अनंत की यात्रा कभी गलत नहीं हो सकती।

लेकिन मैं कई कई बार मरना चाहता हूँ। हम जो कहानी लिख रहे हैं उसके कई अंत हैं। और मेरी मृत्यु एक। सभी कहानी एक साथ खत्म नहीं होंगे। कुछ कहानियों को बीच में छोड़ना पड़ेगा।

लेकिन यात्राओं को बीच में कैसे छोड़ दें?

मैंने तुमसे पहले भी कहा है मुझे सुसाइड नोट लिखना इसलिए पसंद है क्योंकि ये तब तक के जीवन का सार होता है। ये विदाई का गीत है जो गद्य में लिखा गया है। मुझे विदाई के गीत भी पसंद हैं और जीवन का रस भी।

मैं जीवन से बेहद प्यार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि दुनियावी बातें मेरी सुसाइड नोट में कभी ना आयें- जैसे इसने इसको मारा, ये उससे नफ़रत करता है, वो लोग इन लोगों को मार रहे हैं- ये सब छोटी बातें हैं। लेकिन ये छोटी बातें बहुत कुछ कहती हैं जो लगभग रोज़ सुनना पड़ता है- फेसबुक पर, अख़बारों में, न्यूज़ में, टी.वी पर। हम सिर्फ इसे ही सुनते हैं। 

मैं एक अच्छी कविता सुनते हुए विदा चाहता हूँ। फ़राज़ की ग़ज़ल… जो मैंने तुम्हें सुनाई थी।

मैं एक अच्छी दुनिया से विदा चाहता हूँ।

तुम मेरे लिए एक अच्छी दुनिया बना देना। मैं विदा ले लूँगा।

तुम्हारा,
मैं। 
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हम जबसे बिछड़े क्या क्या सोचा करते हैं,
हम बैठे बैठे यादों को पाला पोसा करते हैं
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Wednesday, 11 May 2016

मेट्रो



...और उससे मेरी नज़रें मिली। मैं झेप गया। 

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मेट्रो मेरे जीवन का हिस्सा है। अगर मेट्रो नहीं होता तो शायद मैं अपने पसंदीदा राइटर की कहानियाँ नहीं पढ़ पाता और ना ही अपने हार्ड ड्राइव में रखीं फिल्में देख पाता। क्योंकि ऑफिस जाने में सवा घंटे लगते हैं- और दिन के ढाई से तीन घंटे मैं मेट्रो में ही बिताता हूँ, इसलिए मैं इसे अपना घर भी कह सकता हूँ। लेकिन मेट्रो को घर कहना अजीब लगता है। इसे जीवन का हिस्सा कहना ठीक रहेगा। 

जीवन इतना ख़ास नहीं है कि इसमें हर वक़्त एक कहानी खोज लूँ। लेकिन जब भी सुबह उठता हूँ तो एक कहानी की तलाश करने लगता हूँ। इसी कहानी को खोजते हुए मैं ब्रश करता हूँ। मैं ब्रश करीब दस-बारह मिनट तक करता हूँ। बारह मिनट में एक छोटा सपना देख लिया जा सकता है। जैसे कि मैं एक पहाड़ पर गया (ये सोचने में सिर्फ तीस सेकंड लगेंगे); पहाड़ के आसपास जंगल के बारे में सोचना (ये खूबसूरत हिस्सा है- ढाई मिनट लगेंगे); पहाड़ पर मुझे एक चिड़िया दिखी जो मुझे बुला रही है (एक मिनट); मैं उस चिड़िया से बातचीत करता हूँ, और इसी दौरान एक छोटी सी कविता भी लिखता हूँ (बातचीत और कविता में काफी वक़्त लगता है- चार मिनट लग जाएंगे); फिर चिड़िया मुस्कुराते हुए उड़ जाती है, और मैं धीरे-धीरे उस कहानी से वापस आ जाता हूँ- ब्रश करने (दो मिनट में सबकुछ ख़त्म करना ही पड़ेगा)। 

ब्रश करने के बाद नहाना, और पिछली रात को बाहर निकाले कपड़े पहनने के दौरान भी मैं कई कहानी बुनता रहता हूँ। कहानियों को बुनने में मुझे सबसे मुश्किल उनका अंत खोजने में लगता है। 

इन्ही सब के बीच मैं मेट्रो में बैठ चुका हूँ। मेट्रो में सीट मिलना एक बड़ी बात है- इसलिए जैसे ही सीट मिलती है मैं कुछ करने के प्रेशर में आ जाता हूँ। मतलब ये कि मेट्रो मैं बैठने कि इक्षा हर किसी की होती है, लेकिन हर कोई बैठ नहीं पाता। और अगर मुझे ये मौका मिला है तो मैं इसे यूँ ही नहीं खो सकता। ऐसे वक़्त के लिए मेरे पास एक किताब होती है, या मेरे मोबाइल में सेव की गयी फ़िल्म।

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आज मेट्रो में बैठने के बाद मैं एक पसंदीदा राइटर की किताब पढ़ रहा था। तभी उससे मेरी नज़र मिली, और मैं झेप गया। 

वो ठीक मेरे सामने बैठी थी। उसका नाम मुझे नहीं पता लेकिन अगर मुझे उसका कुछ नाम रखना होता तो मैं उसे स्वाति कहता- वो एक स्वाति जैसी लग रही थी। 

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मैं जिस स्कूल में पढता था वहाँ हर दूसरी लड़की का नाम स्वाति था। ये इतना खूबसूरत नाम था कि हर किसी ने अपने अपने घर में एक स्वाति को देखा हुआ था। मुझे कोई पुराना स्कूल का दोस्त मिल जाए तो हम हर किसी की बात करते हैं, लेकिन हमारे बातचीत के हिस्से में कोई स्वाति नहीं है, क्योंकि स्वाति बहुत सारी थीं। मुझे स्वाति नाम से कोई लड़की याद नहीं आती। 

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ये भी एक स्वाति जैसी थी। 

मैं पसंदीदा राइटर कि कहानी के दूसरे पन्ने पर पहुँचा ही था कि पेज बदलते हुए हमारी नज़र मिल गयी। वो अपनी एक दोस्त के साथ बातें कर रही थी। उसकी दोस्त एक श्रुति जैसी थी- हर स्वाति की एक श्रुति दोस्त होती है। 

मैंने स्वाति को दस सेकंड के लिए देखा होगा। और आठवें सेकंड में उसने मुझे उसे देखते हुए देख लिया। हमारी नज़रें मुश्किल से दो सेकंड के लिए मिली होंगी। दसवें सेकंड में मैं झेप गया। 

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मुझे नज़रें मिलने पर पहले झेंपने की आदत है। मैं बचपन में आँख लड़ाने वाला खेल भी ठीक से नहीं खेल पाता था। मुझे ऐसा लगता है कि लोगों को ज़्यादा देर तक देखो तो वो बुरा मान जायेंगे। क्यों बुरा मान जायेंगे, ये मुझे नहीं पता। लेकिन कई लोग बुरा मान जाते हैं, ये मैं जानता हूँ। लेकिन मुझे ऐसा भी लगता है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज़्यादा बुरा मानते हैं। स्कूल के दिनों में सीनियर लड़कों से इसलिए भी लड़ाई हो जाती थी कि हमने उन्हें कुछ देर के लिए लगातार देख लिया था। जब मैं भी सीनियर हुआ तो कोई जूनियर कुछ देर के लिए लगातार देखता तो मैं भी बुरा मान जाता और उसे जाकर पीट देता। 

स्कूल की लड़कियाँ कभी भी बुरा नहीं मानती। क्योंकि आजतक मैंने किसी लड़की को किसी लड़के को इसलिए पीटते नहीं देखा कि वो उसे देख रहा था। लेकिन ये भी हो सकता है कि लड़कियों को भी गुस्सा आता हो, और वो लड़ाई करना नहीं चाहती हों। मैं इस बात का ठीक-ठीक जवाब नहीं दे सकता क्योंकि मैं पुरुष हूँ, और जीवन भर सिर्फ पुरुष ही रहा हूँ। मैं शिव की तरह अर्धनारी नहीं बन पाया। अगर ऐसा बनता तो मैं बहुत से सवालों का जवाब जान जाता। 

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मैं आँखें झेंपने के बाद सीधा किताब पढ़ने लगा। लेकिन अब किताब की कहानी से मेरा ध्यान हट चुका था। मुझे एक कहानी अपने आसपास दिखलायी दे रही थी, जिसका नायक मैं था- और नायिका स्वाति। जीवन के किसी भी हिस्से में नायक बनना मुझे सबसे अच्छा लगता है। नायक को लोग ध्यान से देखते हैं। नायक का दोस्त अच्छा लगता है, लेकिन उसे ध्यान से नहीं देखते। उसे नायक के दोस्त के रूप में ही जानते हैं। 

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मैं जब स्कूल में था एक नायक की तरह रहता था (ऐसा मैं सोचता हूँ, और मुझे ऐसा सोचना अच्छा लगता है)। मेरे कई दोस्तों को लोग सिर्फ इसलिए जानते थे क्योंकि वो मेरे दोस्त थे। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मेरे आसपास नायक बढ़ गए। और धीरे-धीरे मुझे भी लोग किसी के दोस्त के रूप में जानने लगे। मैं ऐसे दोस्तों से दूरी बना कर ही रखता हूँ। 

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अभी स्वाति अपनी दोस्त से मेरे ही बारे में बात कर रही है। ये मैं जानता हूँ। क्योंकि श्रुति ने मुझे अचानक से देखा है। मैं फिर से झेप गया हूँ। उन दोनों के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं है। इसलिए मैं कह नहीं सकता कि अभी मुझे नायक माना जा रहा है या खलनायक। 

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मुझे खलनायकों से भी कोई दिक्कत नहीं रही। खलनायक को भी लोग ध्यान से देखते हैं। लेकिन उसके बारे में अच्छा नहीं सोचते। 

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स्वाति और श्रुति के बात करने के तरीके में बदलाव भी आ चुका है। मेट्रो में भीड़ नहीं है। मैं स्वाति से बात भी कर सकता हूँ। 

तभी राजीव चौक मेट्रो आ गया। मुझे लगा स्वाति भी वहीँ उतरेगी। लेकिन वो अपना सामान नहीं समेट रही। स्वाति देखने से चांदनी चौक या दरियागंज की लग रही है। इसलिए वो यहाँ नहीं उतरेगी। वो मेरी तरफ़ देख भी नहीं रही। मैं धीरे-धीरे अपना सामान समेट रहा हूँ, और स्वाति को आँखों के किनारे से देख रहा हूँ। 

मैं बाहर निकलता हूँ। जैसे ही गेट बंद होता है, मैं स्वाति को देखता हूँ। वो एक बड़े मुस्कान के साथ मुझे देख रही होती है। श्रुति भी मुस्कुराते हुए स्वाति को देख रही होती है। 

मुझे एक नयी कहानी मिल गयी है। 

...और मैं मुस्कुराते हुए झेप जाता हूँ। 


11.5.2016

Friday, 11 March 2016

बैक्ग्राउंड म्यूज़िक



बहुत पहले जब बहुत सारे गाँव थे, तो एक अनाम गाँव भी था। छोटा सा। वहाँ सबकुछ अच्छा था।

उस गाँव में ख़ुशहाली थी। लोग मज़े में थे। सुबह उठते; दिन भर काम करते; शाम में परिवार और दोस्तों के साथ हँसते। सो जाते। फिर सुबह उठते; दिन भर काम करते- पसीना बहाते। परिवार और दोस्तों के साथ हँसते। और सो जाते। ना ज़्यादा कमाते थे, और ना ज़्यादा कमाना चाहते थे।

उसी गाँव में एक बाँसुरी वाला रहता था। वो कहाँ से आया - कहाँ का था - किसी को नहीं पता था। बस वो था। जब भी लोग काम करने जाते, वो सड़क किनारे कोई धुन छेड़ता। शाम में जब लोग लौटते तो वो किसी और धुन के साथ बातें कर रहा होता। लोग उसे देखते, मुस्कुराते और भूल जाते। जब लोग सड़क किनारे बातें कर रहे होते, बाँसुरी की कोई धुन आस-पास टहलती रहती। बाँसुरी वाला भी नहीं जानता था और गाँव वाले भी नहीं जानते थे - लेकिन अनजाने में वो उन सब की बातों का हिस्सा था। उसकी धुन गाँव वालों की बातों में घुल चुकी थी। दूसरे गाँव वाले कहते कि अनाम गाँव के लोग बहुत मीठी और सुरीली भाषा में बात करते हैं।

सब कुछ अच्छा था।

एक दिन गाँव के कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। बाँसुरी वाला रोज़ की तरह बाँसुरी बजा रहा था। दो लोगों में किसी बात पर कहा-सुनी हो गयी। बाँसुरी बजती रही। वो दो लोग लड़ पड़े। बाँसुरी बजती रही। पूरा गाँव लड़ाई में व्यस्त हो गया। दो गुट बन गए। बाँसुरी बजती रही।

तभी किसी आदमी ने चिल्ला कर कहा,"बंद करो ये बाँसुरी बजाना। कुछ काम नहीं है क्या!"

बाँसुरी वाला चुप हो गया। वो उस इंसान को देखता रहा। उसने देखा कि लड़ाई बढ़ चुकी है।अब कोई भी बाँसुरी की घुन में इंट्रेस्टेड नहीं था।

वो चुप ही रहा।

फिर बाँसुरी वाला कहीं चला गया। कोई उसे जानता नहीं था, तो किसी ने उसके जाने को नोटिस नहीं किया। लेकिन वो जा चुका था। हमेशा के लिए।

उसके बाद शामें वैसी नहीं रहीं। जो लोग शाम में सड़क किनारे गप्प मारते रहते थे, उन्हें अब बात करने में मज़ा नहीं आता था। लोगों की बातें अब बेसुरी हो चुकी थीं।

गाँव का बैकग्राउंड म्यूज़िक खो गया था।

8.3.2016

Monday, 2 February 2015

शहर का अकेलापन‬

-1-

सुबह की धूप और शाम के अँधेरे में फर्क ख़त्म होने लगा है। 
ऐसा ही कुछ सोच कर वो नयी सड़क के अनजान गलियों का सफ़र तय कर रहा था। 
"किधर जाना है?" रिक्शे वाले ने पूछा। 
"नई दिल्ली मेट्रो।"
"40 रुपया।"

वो चलने लगता है। उसे मालूम नहीं कि वो क्यों नयी सड़क गया था- या क्यों नयी दिल्ली जा रहा था। 
"किधर रहते हो?" रिक्शेवाले से पूछा। 
"यहीं- दरियागंज के पास।"
"दिन का कितना काम लेते हो?"
"300 से 400। कोई ठीक नहीं है। कभी ज़्यादा। कभी कम।"
"इस बार किसको वोट दोगे?"
"सोचा नहीं है।" रिक्शेवाला संभल का जवाब देता है।

"ठीक आदमी को वोट देना।"
"हाँ। दे देंगे।"

"यहीं उतार दो।"

एक बेमतलबी संवाद के बाद वो आगे बढ़ चला- कहीं और। उसे नहीं मालूम कि वो कहाँ जा रहा था। एक नशे की हालत में शहर के कोने-कोने भटक रहा था। 
अकेलापन एक नशा है। वो अकेलेपन से लड़ रहा था।

"सिगरेट देना।"
"कौन सी?"
"कोई भी।"

"किधर रहते हो?" दूकान वाले से पूछा। 
"लक्ष्मी नगर।"
"इतने दूर से रोज़ यहाँ आते हो?"
"हाँ।"

और भी लोग थे वहाँ। वो और बात नहीं कर सका। सिगरेट ख़त्म करके वो मेट्रो की तरफ बढ़ा- सोचते हुए कि उसे जाना किधर है।
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