Wednesday 11 May 2016

मेट्रो



...और उससे मेरी नज़रें मिली। मैं झेप गया। 

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मेट्रो मेरे जीवन का हिस्सा है। अगर मेट्रो नहीं होता तो शायद मैं अपने पसंदीदा राइटर की कहानियाँ नहीं पढ़ पाता और ना ही अपने हार्ड ड्राइव में रखीं फिल्में देख पाता। क्योंकि ऑफिस जाने में सवा घंटे लगते हैं- और दिन के ढाई से तीन घंटे मैं मेट्रो में ही बिताता हूँ, इसलिए मैं इसे अपना घर भी कह सकता हूँ। लेकिन मेट्रो को घर कहना अजीब लगता है। इसे जीवन का हिस्सा कहना ठीक रहेगा। 

जीवन इतना ख़ास नहीं है कि इसमें हर वक़्त एक कहानी खोज लूँ। लेकिन जब भी सुबह उठता हूँ तो एक कहानी की तलाश करने लगता हूँ। इसी कहानी को खोजते हुए मैं ब्रश करता हूँ। मैं ब्रश करीब दस-बारह मिनट तक करता हूँ। बारह मिनट में एक छोटा सपना देख लिया जा सकता है। जैसे कि मैं एक पहाड़ पर गया (ये सोचने में सिर्फ तीस सेकंड लगेंगे); पहाड़ के आसपास जंगल के बारे में सोचना (ये खूबसूरत हिस्सा है- ढाई मिनट लगेंगे); पहाड़ पर मुझे एक चिड़िया दिखी जो मुझे बुला रही है (एक मिनट); मैं उस चिड़िया से बातचीत करता हूँ, और इसी दौरान एक छोटी सी कविता भी लिखता हूँ (बातचीत और कविता में काफी वक़्त लगता है- चार मिनट लग जाएंगे); फिर चिड़िया मुस्कुराते हुए उड़ जाती है, और मैं धीरे-धीरे उस कहानी से वापस आ जाता हूँ- ब्रश करने (दो मिनट में सबकुछ ख़त्म करना ही पड़ेगा)। 

ब्रश करने के बाद नहाना, और पिछली रात को बाहर निकाले कपड़े पहनने के दौरान भी मैं कई कहानी बुनता रहता हूँ। कहानियों को बुनने में मुझे सबसे मुश्किल उनका अंत खोजने में लगता है। 

इन्ही सब के बीच मैं मेट्रो में बैठ चुका हूँ। मेट्रो में सीट मिलना एक बड़ी बात है- इसलिए जैसे ही सीट मिलती है मैं कुछ करने के प्रेशर में आ जाता हूँ। मतलब ये कि मेट्रो मैं बैठने कि इक्षा हर किसी की होती है, लेकिन हर कोई बैठ नहीं पाता। और अगर मुझे ये मौका मिला है तो मैं इसे यूँ ही नहीं खो सकता। ऐसे वक़्त के लिए मेरे पास एक किताब होती है, या मेरे मोबाइल में सेव की गयी फ़िल्म।

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आज मेट्रो में बैठने के बाद मैं एक पसंदीदा राइटर की किताब पढ़ रहा था। तभी उससे मेरी नज़र मिली, और मैं झेप गया। 

वो ठीक मेरे सामने बैठी थी। उसका नाम मुझे नहीं पता लेकिन अगर मुझे उसका कुछ नाम रखना होता तो मैं उसे स्वाति कहता- वो एक स्वाति जैसी लग रही थी। 

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मैं जिस स्कूल में पढता था वहाँ हर दूसरी लड़की का नाम स्वाति था। ये इतना खूबसूरत नाम था कि हर किसी ने अपने अपने घर में एक स्वाति को देखा हुआ था। मुझे कोई पुराना स्कूल का दोस्त मिल जाए तो हम हर किसी की बात करते हैं, लेकिन हमारे बातचीत के हिस्से में कोई स्वाति नहीं है, क्योंकि स्वाति बहुत सारी थीं। मुझे स्वाति नाम से कोई लड़की याद नहीं आती। 

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ये भी एक स्वाति जैसी थी। 

मैं पसंदीदा राइटर कि कहानी के दूसरे पन्ने पर पहुँचा ही था कि पेज बदलते हुए हमारी नज़र मिल गयी। वो अपनी एक दोस्त के साथ बातें कर रही थी। उसकी दोस्त एक श्रुति जैसी थी- हर स्वाति की एक श्रुति दोस्त होती है। 

मैंने स्वाति को दस सेकंड के लिए देखा होगा। और आठवें सेकंड में उसने मुझे उसे देखते हुए देख लिया। हमारी नज़रें मुश्किल से दो सेकंड के लिए मिली होंगी। दसवें सेकंड में मैं झेप गया। 

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मुझे नज़रें मिलने पर पहले झेंपने की आदत है। मैं बचपन में आँख लड़ाने वाला खेल भी ठीक से नहीं खेल पाता था। मुझे ऐसा लगता है कि लोगों को ज़्यादा देर तक देखो तो वो बुरा मान जायेंगे। क्यों बुरा मान जायेंगे, ये मुझे नहीं पता। लेकिन कई लोग बुरा मान जाते हैं, ये मैं जानता हूँ। लेकिन मुझे ऐसा भी लगता है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज़्यादा बुरा मानते हैं। स्कूल के दिनों में सीनियर लड़कों से इसलिए भी लड़ाई हो जाती थी कि हमने उन्हें कुछ देर के लिए लगातार देख लिया था। जब मैं भी सीनियर हुआ तो कोई जूनियर कुछ देर के लिए लगातार देखता तो मैं भी बुरा मान जाता और उसे जाकर पीट देता। 

स्कूल की लड़कियाँ कभी भी बुरा नहीं मानती। क्योंकि आजतक मैंने किसी लड़की को किसी लड़के को इसलिए पीटते नहीं देखा कि वो उसे देख रहा था। लेकिन ये भी हो सकता है कि लड़कियों को भी गुस्सा आता हो, और वो लड़ाई करना नहीं चाहती हों। मैं इस बात का ठीक-ठीक जवाब नहीं दे सकता क्योंकि मैं पुरुष हूँ, और जीवन भर सिर्फ पुरुष ही रहा हूँ। मैं शिव की तरह अर्धनारी नहीं बन पाया। अगर ऐसा बनता तो मैं बहुत से सवालों का जवाब जान जाता। 

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मैं आँखें झेंपने के बाद सीधा किताब पढ़ने लगा। लेकिन अब किताब की कहानी से मेरा ध्यान हट चुका था। मुझे एक कहानी अपने आसपास दिखलायी दे रही थी, जिसका नायक मैं था- और नायिका स्वाति। जीवन के किसी भी हिस्से में नायक बनना मुझे सबसे अच्छा लगता है। नायक को लोग ध्यान से देखते हैं। नायक का दोस्त अच्छा लगता है, लेकिन उसे ध्यान से नहीं देखते। उसे नायक के दोस्त के रूप में ही जानते हैं। 

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मैं जब स्कूल में था एक नायक की तरह रहता था (ऐसा मैं सोचता हूँ, और मुझे ऐसा सोचना अच्छा लगता है)। मेरे कई दोस्तों को लोग सिर्फ इसलिए जानते थे क्योंकि वो मेरे दोस्त थे। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मेरे आसपास नायक बढ़ गए। और धीरे-धीरे मुझे भी लोग किसी के दोस्त के रूप में जानने लगे। मैं ऐसे दोस्तों से दूरी बना कर ही रखता हूँ। 

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अभी स्वाति अपनी दोस्त से मेरे ही बारे में बात कर रही है। ये मैं जानता हूँ। क्योंकि श्रुति ने मुझे अचानक से देखा है। मैं फिर से झेप गया हूँ। उन दोनों के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं है। इसलिए मैं कह नहीं सकता कि अभी मुझे नायक माना जा रहा है या खलनायक। 

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मुझे खलनायकों से भी कोई दिक्कत नहीं रही। खलनायक को भी लोग ध्यान से देखते हैं। लेकिन उसके बारे में अच्छा नहीं सोचते। 

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स्वाति और श्रुति के बात करने के तरीके में बदलाव भी आ चुका है। मेट्रो में भीड़ नहीं है। मैं स्वाति से बात भी कर सकता हूँ। 

तभी राजीव चौक मेट्रो आ गया। मुझे लगा स्वाति भी वहीँ उतरेगी। लेकिन वो अपना सामान नहीं समेट रही। स्वाति देखने से चांदनी चौक या दरियागंज की लग रही है। इसलिए वो यहाँ नहीं उतरेगी। वो मेरी तरफ़ देख भी नहीं रही। मैं धीरे-धीरे अपना सामान समेट रहा हूँ, और स्वाति को आँखों के किनारे से देख रहा हूँ। 

मैं बाहर निकलता हूँ। जैसे ही गेट बंद होता है, मैं स्वाति को देखता हूँ। वो एक बड़े मुस्कान के साथ मुझे देख रही होती है। श्रुति भी मुस्कुराते हुए स्वाति को देख रही होती है। 

मुझे एक नयी कहानी मिल गयी है। 

...और मैं मुस्कुराते हुए झेप जाता हूँ। 


11.5.2016