Thursday, 6 October 2011

वापसी



पटना से वो निकल चुका था | 


सुबह सुबह ही उसके पापा ने उसे तीन बार आवाज़ दे कर उठाया था | माँ भी कई दफा याद दिला चुकी थी कि आज छपरा जाना है दादा-दादी से मिलने | कई रोज़ हुए वो गया नहीं था मिलने | अब दिल्ली में रहने लगा था | पिछले चार सालों में दिल्ली से फ़ोन भी नहीं किया दादा दादी या चचेरे भाई-बहन से बात करने  के लिए | ऐसा नहीं था कि वो बात करना नहीं चाहता था | उसने कई बार फ़ोन करने का सोचा भी, लेकिन हर दफा यह सोच कर रह जाता कि बात क्या करे ? अपने  भाई-बहन से प्यार भी बहुत करता था | उसके छोटे भाई-बहन भी उसे बहुत  मानते थे | जबसे उनके पापा और रोहन के चाचा इस दुनिया को छोड़ कर कही और वक़्त काटने गए, तब से रोहन खुद को चचेरे भाई -बहन के ज्यादा करीब पाता था | लेकिन फ़ोन पर तब ही बात करता था जब पटना आता |

कार में बैठे हुए करीबन एक घंटा बीत गया | वक़्त काटने के लिए वो कहानियों की एक किताब लेकर बैठा था | आगे पापा और ड्राईवर बैठे थे | पीछे माँ  के साथ रोहन गुलज़ार की कहानियों में कुछ किरदार ढूँढ रहा था | "सीमा" पढ़ने के बाद खुद के बारे में सोचने लगा | वो जानना चाहता था कि वो किस कहानी का हिस्सा है?कहानी लिखने का नया शौक चढ़ा था, तो लैपटॉप निकाल कर कुछ टाइप करने लगा | उसकी माँ रह-रह कर एक दफा देख लेती कि आखिर वो कर क्या रहा है | ऐसा नहीं था की उन्हें कुछ समझ आता | लेकिन रोहन कुछ 7-8 महीने बाद घर आया था तो किसी बहाने उससे बात करती रहती थी | मज़ाक में  बोल देती कि उन्हें लैपटॉप पर काम करना सीखा दे ,फिर वो भी फेसबुक पर उसकी खबर रखेंगी! घर के बगल की किसी शैतान बच्ची ने उन्हें फेसबुक का मतलब  समझाया था |

वो सोनपुर से आगे नया गाँव पहुच गए थे | रोहन सोच रहा था कि वो वहाँ जाकर क्या करेगा | शायद कोई और कहानी पढ़ेगा या दोनों बच्चों के साथ वक़्त बिताएगा | छपरा से उसकी बहुत यादें जुड़ी थी | बचपन वहीँ  बीता था | उसे याद आ रहा था जब वो मुजफ्फरपुर में रहा करते थे | उस समय कार नहीं थी तो ट्रेन से घंटो का सफ़र तय करके छपरा जाते | बात तेरह-चौदह साल पहले की है | उस वक़्त घर में बहुत लोग रहा करते थे- दोनों चाचा-चाची, दादा-दादी, सारे बच्चे, और हमेशा  कोई न कोई आता रहता था- कोई रिश्तेदार- कोई पड़ोसी | कुछ ऐसा लगता था जैसे कोई मेला सा लगा हो जहाँ सबकुछ घर में ही मिल जाए- खुशियाँ सबसे ज्यादा |

लेकिन अब सबकुछ बदल गया था | दोनों चाचा की मौत हो चुकी थी | बड़ी चाची ने आत्महत्या की थी | उनका बेटा, और रोहन का पहला चचेरा भाई अब अपने ननिहाल रहता था | दस साल हुए, घर का कोई भी सदस्य शानू से नहीं मिल पाया | चाची के मरने के एक साल बाद बड़े चाचा की मौत हुयी | जब बड़े चाचा की मौत हुई तो शानू के मामा ने बाप को आग लगाने के लिए भी शानू को नहीं आने दिया | रोहन के पापा ने बहुत कोशिश की लेकिन शानू को ला ना सके |  रोहन के एक और छोटे भाई की मृत्यु हुयी थी | फिर छोटे चाचा की मौत भी | ये सबकुछ तीन या चार साल के भीतर हुआ था | कुछ ऐसा लगता था जैसे बसे बसाये घर में सुनामी आ गया  और कुछ रेफ्यूजी से इंसान जिंदा रह गए जो पुरानी यादों को भूल तो नहीं पाते थे लेकिन याद भी नहीं करते थे |

रोहन के साथ दिक्कत थी | उसका बचपन कही उसके जेहेन में छुपा हुआ था जो रह-रह कर उसे याद आता रहता | बहुत प्यार तो वो किसी से नहीं करता था  लेकिन अपने बचपन से उसे बहुत प्यार था | उसका घर उसकी यादों का एक कैनवस था जिस पर उसने अपने जेहेन में एक तस्वीर बना रखी थी | उसके बनाये  तस्वीर पर कोई और अपने रंग चढ़ा दे ये उसे मंज़ूर ना था भले ही वो ज़िंदगी क्यों ना हो | इसलिए उसने बेहतर समझा था सब से पीछा छुड़ा लेने में | शायद  इसलिए किसी से ज्यादा बात नहीं करता था | ये कितना सच है-उसे भी नहीं मालूम |

धीरे -धीरे छपरा नज़दीक आ रहा था और बचपन भी | पटना से करीब 3 घंटे का सफ़र है छपरा का | अब वो शीतलपुर पहुँच गए थे | अचानक से रोहन के चेहरे पर एक स्माइल आ गयी | बचपन में जब भी शीतलपुर से गुजरता तो उसके पापा गाड़ी रोक कर रसगुल्ला  खिलाया करते थे सबको | वहां के रसगुल्लों में क्या खासियत थी, ये तो  नहीं पता लेकिन सब कहते थे अच्छा होता है तो वो भी खा लिया करता |  उसके पापा हमेशा पूछते, "स्पंज खाओगे ?" दरअसल वो रसगुल्ले बहुत ही मुलायम होते, और स्पंज जैसे लगते थे | कोई बहुत ही अलग से रसगुल्ले नहीं हुआ करते थे, लेकिन इतने सालों से खाता आया था तो अच्छे  भी लगने लगे थे | ऐसा ही वो दिल्ली में भी किया करता था जब भी पुरानी दिल्ली में जलेबीवाले के पास से गुज़रता |  उसे वहाँ के जलेबी बहुत पसंद नहीं थे फिर भी जब भी वहाँ से  गुजरता खाता ज़रूर | एक रूटीन सा था उसकी ज़िन्दगी में- शायद उसके पापा से मिला था विरासत में | और ना जाने क्या-क्या उसके पापा को उसके दादा  से मिला होगा | लेकिन पता नहीं क्यों आज उसने रसगुल्ले नहीं खाए | पापा  ने बस पूछा भर | तो उसने सीधे से मना कर दिया | सोनपुर के आगे उसे उलटी हुई थी  इसलिए खाने का मन नहीं कर रहा था | या फिर बचपन से दूरी बनाने की कोशिश कर रहा था |

छपरा नज़दीक आ गया | तबियत ठीक ना मालूम हुई तो रोहन ने आँखें झेप ली | सोचा कुछ देर सो जाएगा तो सफ़र जल्दी ख़त्म होगा | आँखें झेप कर नींद तो  ना आ सकी, यादें आती रहीं | वो बचपन के उन दिनों को याद करने लगा जब हर त्यौहार में पूरा परिवार दादाजी के घर आता था | घर भी बहुत बड़ा  था और बच्चों के खेलने के लिए तो भव्य था |  ना जाने उस घर में कौन-कौन से खेल इजाद किये थे सबने मिलकर | अब तो सिर्फ खयालों में ही मुलाक़ात हो सकती थी सबसे एक साथ | कुछ रिश्तेदारों से रिश्ता टूट गया, तो कुछ का दुनिया से | सबसे ज्यादा मज़ा छठ पूजा में आता जब परिवार के साथ-साथ आस पास के लोग भी घर में आते थे | उसकी दादी छठ पूजा करती थीं | तीन-चार दिन तो ऐसा माहौल रहता था जैसे घर में ओल्म्पिक्स का आयोजन हुआ हो | लम्बे और बड़े से घर में  उधम मचाते रहते थे सब के सब | शाम होती तो सब शिव मंदिर चले जाते जो था घर के पास ही लेकिन नन्ही पावों को बड़ी दूर लगता | सभी  बच्चे  खेलते खेलते चले जाते वहाँ | कोई एक बड़ा होता था उनके साथ उनका ख़याल रखने को | अब रोहन नास्तिक हो गया था |

आँख खुली जब पापा ने बोला छपरा आ गया | 'आये तो वो छपरा थे' ये सोचते हुए रोहन ने आस पास देखा | गाड़ी उस गली में चल रही थी जो बचपन में बहुत ही  बड़ी लगती थी उसे | आज लगा जैसे वो गली बहुत संकरी और छोटी हो गयी है | रस्ते में वो मंदिर तो नहीं दिखा लेकिन उस मंदिर तक पहुचने का रास्ता दिखा | चेहरे  पर मुस्कान आई |

गाड़ी घर के बाहर रुकी | दादाजी कुर्सी पर बैठे थे- हाथ में पंखा लिए- दरवाजे के पास ही | ऐसा लगा सालों से वहीँ बैठे थे- अपने परिवार के इंतज़ार में |  रोहन को कुछ अंतर दिखा ही नहीं वहाँ | सालों पहले भी बाबा वहीँ बैठा करते थे और आज भी वहीँ- उसी कुर्सी पर | रोहन के पापा ने बताया नहीं था कि वो आ रहे हैं- सरप्राइज़ देने का  सोचा था |

कई दिनों बाद बड़े पोते को देख कर दादाजी का गला रूंध गया | बस धीरे से चिल्ला पड़े," ऐ बाबु, देखो भईया मिलने आया  है |”