Friday 11 March 2016

बैक्ग्राउंड म्यूज़िक



बहुत पहले जब बहुत सारे गाँव थे, तो एक अनाम गाँव भी था। छोटा सा। वहाँ सबकुछ अच्छा था।

उस गाँव में ख़ुशहाली थी। लोग मज़े में थे। सुबह उठते; दिन भर काम करते; शाम में परिवार और दोस्तों के साथ हँसते। सो जाते। फिर सुबह उठते; दिन भर काम करते- पसीना बहाते। परिवार और दोस्तों के साथ हँसते। और सो जाते। ना ज़्यादा कमाते थे, और ना ज़्यादा कमाना चाहते थे।

उसी गाँव में एक बाँसुरी वाला रहता था। वो कहाँ से आया - कहाँ का था - किसी को नहीं पता था। बस वो था। जब भी लोग काम करने जाते, वो सड़क किनारे कोई धुन छेड़ता। शाम में जब लोग लौटते तो वो किसी और धुन के साथ बातें कर रहा होता। लोग उसे देखते, मुस्कुराते और भूल जाते। जब लोग सड़क किनारे बातें कर रहे होते, बाँसुरी की कोई धुन आस-पास टहलती रहती। बाँसुरी वाला भी नहीं जानता था और गाँव वाले भी नहीं जानते थे - लेकिन अनजाने में वो उन सब की बातों का हिस्सा था। उसकी धुन गाँव वालों की बातों में घुल चुकी थी। दूसरे गाँव वाले कहते कि अनाम गाँव के लोग बहुत मीठी और सुरीली भाषा में बात करते हैं।

सब कुछ अच्छा था।

एक दिन गाँव के कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। बाँसुरी वाला रोज़ की तरह बाँसुरी बजा रहा था। दो लोगों में किसी बात पर कहा-सुनी हो गयी। बाँसुरी बजती रही। वो दो लोग लड़ पड़े। बाँसुरी बजती रही। पूरा गाँव लड़ाई में व्यस्त हो गया। दो गुट बन गए। बाँसुरी बजती रही।

तभी किसी आदमी ने चिल्ला कर कहा,"बंद करो ये बाँसुरी बजाना। कुछ काम नहीं है क्या!"

बाँसुरी वाला चुप हो गया। वो उस इंसान को देखता रहा। उसने देखा कि लड़ाई बढ़ चुकी है।अब कोई भी बाँसुरी की घुन में इंट्रेस्टेड नहीं था।

वो चुप ही रहा।

फिर बाँसुरी वाला कहीं चला गया। कोई उसे जानता नहीं था, तो किसी ने उसके जाने को नोटिस नहीं किया। लेकिन वो जा चुका था। हमेशा के लिए।

उसके बाद शामें वैसी नहीं रहीं। जो लोग शाम में सड़क किनारे गप्प मारते रहते थे, उन्हें अब बात करने में मज़ा नहीं आता था। लोगों की बातें अब बेसुरी हो चुकी थीं।

गाँव का बैकग्राउंड म्यूज़िक खो गया था।

8.3.2016