Saturday 29 December 2012

लूडो


“आप चलिए| अब आपका चांस है|”

“हाँ पता है| रुकिए, हम जरा चाय चढ़ा कर आते हैं| तब तक आप गोटी इधर-उधर मत कर दीजियेगा| हम सब देख रहे हैं|” 

और गोमती चाय चढ़ाने किचन में चली गयीं| सिन्हा जी ने जैसे ही देखा की गोमती जी किचन में गयीं, उन्होंने अपनी दो लाल गोटियों को कुछ कदम आगे बढ़ाया, कुछ पोजीशन बदला ताकि गोमती जी की पीली गोटियाँ उन्हें काट ना सके| पीली गोटियों को भी थोड़ा सा कंविनिएंट पोजीशन में रख दिया| अब खेल वो जीत रहे थे| फिर वो अखबार पढ़ने लगे ताकि गोमती जी को कोई शक ना हो सके| 

ये सिलसिला कई सालों से चल रहा है| सिन्हा जी को रिटायर हुए सात साल हो गए हैं| वो बिहार सरकार के बिजली विभाग में हेड क्लर्क हो कर रिटायर हुए थे| सीधे सादे व्यक्तित्व वाले इंसान थे| करियर में कभी किसी ऐसे चक्कर में नहीं पड़े जिसके कारण उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा हो| वही सब कुछ करते थे जो उनके दफ्तर के बाकि सभी साथी करते रहे| स्वभाव के चिडचिडे नहीं थे| सुगर की दिक्कत थी उन्हें, फिर भी चाय में चीनी डलवा लेते थे| गोमती उन्हें कभी चीनी वाली चाय नहीं देती थी, तो वो सिर्फ दफ्तर में ही ये शौक पूरा कर पाते थे| जबसे रिटायर हुए, ये शौक भी जाता रहा| और सात सालों में बिना चीनी वाली चाय की आदत हो गयी है| 

“लीजिए|” गोमती ने चाय पकड़ाते हुए कहा| “फिर से बदमाशी कर दिए| गोटी सब ठीक कीजिये| हमको सब याद है कौन गोटी कहाँ पर था|” और सिन्हा जी मुस्कुराने लगे| 

“तो तुम्ही जीतोगी हमेशा? हमको भी जीतने दो|” 

“तो जीतिए| मना कौन किये हुए है| लेकिन गलथेतरई मत कीजिये| हम जीतने लगे तो पूरा खेल बिगाड़ दीजियेगा| खुद से चाय काहे नहीं बनाते हैं|” 

“अच्छा| चलो ना भाई, तुम्हारा चांस है|” 

“पहले गोटी ठीक कीजिये|” 

सिन्हा जी को कभी भी लूडो खेलना अच्छा नहीं लगता था| जबकि गोमती लूडो खेलना पसंद करती थीं| जब सिन्हा जी ऑफिस जाते थे तब वो घर में काम करने वाली दाई के साथ बैठ कर खूब लूडो खेलती थीं| बच्चे पढ़ाई करने के लिए दिल्ली में रहते थे| छुट्टियों में आते तो माँ का पूरा दिन बच्चों की देखरेख में गुज़र जाता| स्वाति और अविनाश लूडो खेलने को समय की बर्बादी समझते थे, तो उनके आते ही गोमती जी का लूडो खेलना बंद| उन्हें भी ध्यान नहीं रहता था, और बाकी सब काम में वक्त कट जाता था| 

अब बच्चे बड़े हो गए हैं| शादी हो गयी है दोनों की| अविनाश दिल्ली में ही रहने लगा है, और स्वाति बेगुसराय में| बेगुसराय पटना से बहुत दूर नहीं है, तो महीने दो महीने में सिन्हा जी और गोमती से आकर मिल लेती है अपने बच्चों के साथ| अविनाश का आना थोड़ा कम होता है| जब कभी कोई पर्व-त्यौहार हुआ, वो भी अपने परिवार के साथ आ जाता है| बस पर्व-त्यौहार ही हैं जब सम्पूर्ण परिवार का मिलन होता है| बाकी वक्त घर में सिन्हा जी, गोमती और लूडो| 

रिटायरमेंट के बाद घर में बैठे-बैठे सिन्हा जी को बोरियत होने लगी थी| आदत थी सुबह उठने की, वो तो जाने से रही| घर के काम-काज में गोमती का हाथ बटाने लगे तो दाई को हटा दिया गया| कुछ पैसे भी बचने लगे और दम्पति के लिए कुछ काम निकल आया अपने आपको व्यस्त रखने के लिए| टीवी भी खराब होने लगी थी| जब नौकरीशुदा थे तब ही खरीदा था| अब टीवी में ना तो रंग साफ़ पता चलते ना ही आवाज़ ही ठीक से आती| अच्छा खासा हीरो भी गूँगा और बदसूरत नज़र आता था उन्हें| टीवी खरीदने की इक्षा तो कई बार हुई, लेकिन सिन्हा जी के पास कोई बचत राशि थी नहीं तो गोमती ने कभी बोला नहीं| जो भी कुछ पेंशन आता उससे घर का किराया, राशन और दवा का ही इंतज़ाम हो पाता था| थोड़ा बहुत जो बचता उसे गोमती जमा कर देती थी अपने गुल्लक में| कहती बुरे वक्त में काम आएगा| सिन्हा जी हमेशा मुस्कुरा देते| 

रिटायरमेंट के साल भर बाद ही गोमती को लूडो खेलने की सूझी| घर में बैठे-बैठे क्या करते, तो सिन्हा जी भी खेलने लगे| शुरुआत में बड़े जल्दी ऊब जाते थे| कहते ये क्या तरीका है वक्त काटने का| “आप यही सब करती थी जब हम ऑफिस में रहते थे?” गोमती शरमाते हुए मुस्कुराती| वो मुस्कराहट एक पाँच साल के अबोध बच्चे सी थी| सिन्हा जी ने ऐसी मुस्कराहट कभी देखी नहीं थी गोमती के चेहरे पर| बस लूडो का सिलसिला शुरू हो गया| 

पहले-पहल तो दिन में कोई तीन-चार बार लूडो खेलते दोनों| सुबह के चाय के साथ, दोपहर के वक्त सोने से पहले, शाम में नाश्ते के साथ और फिर रात में अगर इक्षा हुई तो| फिर धीरे-धीरे ये दिनचर्या का हिस्सा हो गया| जब मौका मिलता दोनों लूडो खेल लेते| 

सिन्हा जी ने गोमती के बारे में वो सब जाना जो वो पहले कभी जान नहीं सके थे| चालीस साल की शादीशुदा जिंदगी में कितने ही पल साथ बिताए थे, लेकिन उन्हें ये कभी पता नहीं चला था कि जब गोमती की पीली गोटी सिन्हा जी की लाल गोटी को काटती है तो वो गोमती के लिए अदभुत पल होता है| कितनी ही बार गोमती ने लाल गोटी काटते ही ठहाके मारे हैं, और कितनी ही बार खुशी से नाच पड़ी हैं| ऐसा प्रतीत होता जैसे सिर्फ एक गोटी काटने से गोमती अपनी हर दबी इक्षाओं को बहार निकाल देती| बहुत कुछ था जो वो सिन्हा जी से नहीं कह सकी थीं| जब पीली गोटी लाल गोटी को काटती, तो हौले से लाल गोटी के कान में सालों से बेजुबान लम्हों को बयां कर देती| वो कहती कि जब शादी के तीन साल हो चुके थे तो वो कितना चाहती थीं सिन्हा जी के साथ आगरा जाना जब वो अपने दोस्तों के साथ जा रहे थे| सिन्हा जी ने बस एक बार ही उनसे पूछा था, वो भी अनमने मन से| और जब उनकी ननद उनको ताने मारती, वो चाहती थीं कि सिन्हा जी अपनी बहन से झगडा करें| झगडा ना भी तो कम से कम गोमती का पक्ष रखें| लेकिन सिन्हा जी अपनी बड़ी बहन के सामने हमेशा मुस्कुरा कर रह जाते| 

सिन्हा जी को गोटी काटने में वो खुशी नहीं मिलती जो उन्हें गोमती के खुश चेहरे को देख कर मिलती है| इंसान कितना अजीब है, वो सोचते| कितनी बड़ी-बड़ी खुशियों की हम उम्मीद करते हैं| वो आती भी हैं, लेकिन कई बार बड़ी खुशियाँ खुशी नहीं देती| वो पल उनको सँभालने में ही निकल जाता है| और लूडो में गोटी काट कर जो खुशी मिलती है, वो कितनी सहज है, कितनी सरल है, अनमोल है, अदभुत है| उनकी गोटी कटती तो वो नाराज़ भी होते| लेकिन वो नाराज़गी कितनी ही खुशियों पर भारी पड़ती| सालों बाद वो खुद को मासूम महसूस कर रहे थे| 

“भक्! फिर आप जीत गयीं| हम समझ रहे हैं आप पासा में कुछ कर देती हैं| बार-बार छक्का कईसे आ जाता है जी?” 

“हाँ| हम जीत जाते हैं तो दुनिया भर का इल्जाम लगा दीजिए| हम कभी गाल नहीं बतियाते हैं| आप गोटी इधर-उधर करते हैं तो भगवान जी सजा देते हैं, और नहीं तो का!” 

“चलिए, एक ठो और गेम खेलते हैं| इ बार एकदम से हरा देंगे आपको|” 

“हाँ, देखते हैं...” कहते-कहते गोमती खाँसने लगी| 

“अरे, दवाई फिर नहीं ली| रुकिए, दवाई लाते हैं| इतना लापरवाह कईसे हो सकती हैं जी?” कहते हुए सिन्हा जी दवाई लेने चले गए| सिन्हा जी थोड़े आलसी किस्म के सरकारी मुलाजिम रहे थे| लेकिन उनका सारा आलसपन गोमती की एक खाँसी में उड़नछु हो जाता, और वो दौड़ जाते उनकी दवाई लेने के लिए| और गोमती खाँसते हुए कहती, “ रुकिए ना, हम ले रहे हैं ना दवा तुरंत| अपना चांस चलिए|” 

“पगला गयी हो एकदम्मे|” कहते हुए सिन्हा जी गोमती को दवा देते| ये सब एक रिवाज़ की तरह कई महीनों से, कई सालों से चल रहा है| 

समय के साथ-साथ दोनों की सेहत भी बिगड़ती जा रही है| लेकिन लूडो उसी उत्साह और जोश के साथ खेलते दोनों| अब ऐसा होता कि हर वक्त लूडो के बोर्ड पर गोटियाँ बिछी होती| सुबह उठकर पहला काम यही होता कि लाल और पीली गोटियों के बीच रेस लगाई जाए| एक मैराथन है जो कई सालों से दोनों खेल रहे हैं| 

सुबह का वक्त है| सिन्हा जी हमेशा गोमती के उठने के बाद ही उठते हैं| गोमती उन्हें दो बातें सुना कर उठाती हैं| आज गोमती ने उन्हें नहीं उठाया| सिन्हा जी ने देखा तो गोमती अब तक सो रही थीं| आठ बज चुके हैं| अब तक तो चाय और लूडो के दो गेम हो चुके होते| सिन्हा जी ने गोमती के बदन को छुआ तो वो जकड़ा हुआ और ठंडा पड़ा था| सिन्हा जी सन्न रह गए| 

अविनाश और स्वाति को फोन करके सबकुछ बताया| 

धीमे क़दमों से जब बैठक में पहुचें तो लूडो के बोर्ड पर लाल और पीली गोटियाँ बिछी देखीं| बोल पड़े, “सुनिए ना, आज आप पहले चांस लीजिए| हम गलथेतरई नहीं करेंगे|” 


29.12.12

www.shabdankan.com पर जून २०, २०१३ को प्रकाशित हुआ| 
लिंक: http://www.shabdankan.com/2013/06/nihal.html

Thursday 1 November 2012

किरदार


वो कॉलेज में पढ़ता है| उसे नाटक खेलना अच्छा लगता है| कॉलेज के सभी दोस्त उसे नाटकवाला या ड्रामेबाज़ कह कर बुलाते हैं| ऐसा नहीं है कि वो सिर्फ नाटक ही खेलता है| उसे सबसे अच्छा काम गाना लिखना लगता है| लेकिन अभी तक उसने कोई गाना लिखा नहीं है| लिखा है, लेकिन सिर्फ एक- जो किसी ने गाया नहीं है| उसे मालूम है कि वो गाना लिखेगा| तब तक वो नाटक खेलना चाहता है| 

वो फिलहाल कॉलेज के ड्रामा सोसाइटी का प्रेसिडेंट है| इसके मुताबित वो अपने कॉलेज का सबसे अच्छा एक्टर है| कॉलेज में कुछ ढाई हज़ार स्टुडेंट्स पढ़ते हैं| उन सब में वो सबसे अच्छा है- ऐसी गलतफहमी उसे नहीं है| उसे मालूम है कि वो सिर्फ एक तरह का अभिनय कर सकता है| वो मंच पर सिर्फ ऐसे किरदार निभा सकता है जो वो असल जिंदगी में निभा रहा है| वो मंच पर बहुत तेज़ हँस नहीं सकता| वो किसी के भी सामने बहुत तेज़ हँसते वक्त असहज हो जाता है| ऐसा नहीं है कि वो बहुत तेज़ हँसना नहीं चाहता| वो चाहता है| जब वो अपने घर में अकेला रहता है तो बहुत ज़ोर से हँसने की कोशिश भी करता है, लेकिन फिर भी नहीं हँस पाता| फिर वो अपने आपको आईने में देखता है, और रोने की कोशिश भी करता है| वो बहुत अच्छा रो भी नहीं पाता| लेकिन नकली हँसी से बेहतर नकली रो लेता है| उसके रोने और हँसने के बीच बहुत अंतर नहीं होता क्योंकि वो दोनों नकली हैं| इसलिए वो अपने आपको बहुत अच्छा अभिनेता नहीं मानता| 

उसके दोस्त उसे अच्छा एक्टर मानते हैं| उनलोगों ने कभी भी नाटक नहीं देखा| दूसरे का भी नहीं देखा, और इसका भी नहीं देखा| लेकिन उन्हें लगता है कि ये अच्छा एक्टर है क्योंकि ये दिन भर कॉलेज में एक्टिंग करता है; अपने जूनियर्स को एक्टिंग सिखाता है; सीरियस रहता है| हमेशा सीरियस नहीं रहता- मज़ाक भी करता है| लेकिन उसके मज़ाक का कोई मतलब नहीं होता| उसके जोक्स पर ज़्यादा लोग हँसते नहीं हैं| जब भी वो कोई जोक सुनाता है तो सोचता है कि लोग कैसे हँसेंगे; कब हँसेंगे? वो लोगों को हँसाना चाहता है, क्योंकि वो भी दूसरों के जोक्स पर हँसता है| लेकिन जब कोई नहीं हँसता तो उसे लगता है कि उसपर उधार चढ़ गया| उसे उधार चुकाने की जल्दी है| इसलिए उसके जोक्स बहुत सीरियस किस्म के होते हैं- वो कई तरह के इमोसंस को मिक्स कर देता है अपने जोक्स में| हर मर्तबा जब वो जोक सुना चुका होता है तो शर्मिंदा हो जाता है| 

उसे मालूम है कि कॉलेज का ड्रामा प्रेसिडेंट बनना कोई बड़ी बात नहीं थी| उससे अच्छे एक्टर भी ड्रामा टीम में थे| उसे सिर्फ इसलिए ड्रामा प्रेसिडेंट बनाया गया क्योंकि वो रेस्पोंसिबिलिटी लेना चाहता है| उसने एक फ्रेंच नाटक का हिंदी रूपांतरण भी खोजा, जिसे उसने अडाप्ट किया| एक महीने तक वो नाटक अडाप्ट करता रहा| उसने फ्रेंच नाटक को पश्चिम दिल्ली के एक परिवार से मिला दिया| उसे किरदारों को जन्म देना अच्छा लगता है| किरदारों से खेलते वक्त वो अपने आपको बहुत बड़ा महसूस करता है| उसे मालूम है कि वो अच्छा नाटक लिख सकता है| कहानी भी अच्छी लिख सकता है| लेकिन उसे लगता है कि अच्छी कहानी आने में कुछ दिन और लगेंगे| अच्छी कहानी लिखने के लिए उसे अच्छी कहानियाँ पढ़नी होंगी| वो हर वक्त पढ़ने की कोशिश करता रहता है| 

वो अपना नाटक (जो की उसका नहीं है क्योंकि उसने बस अडाप्ट किया है) लेकर ड्रामा टीम के पास जाता है| सभी मिलकर नाटक पढ़ते हैं| जब तक रीडिंग चल रही होती है उसे डर लगता रहता है कि लोग उसके नाटक को नकार देंगे| लेकिन वो उसका नाटक नहीं है- फिर भी उस नाटक के साथ उसका एक रिश्ता बन चुका है| उसके किरदार उसने जन्मे हैं; वो फ्रेंच नहीं हैं| वो बिल्कुल वैसे ही हैं जैसा उसने दिल्ली में रहते हुए देखा है| वो डी.टी.सी बस में सफ़र करने वाले किरदार हैं| वो भिन्डी और टिंडे की सब्जी पसंद करते हैं| उनका पेरिस के किसी भी मोहल्ले से कोई रिश्ता नहीं है| वो अपने किरदारों को लेकर पोसेसिव है| अगर उसके ड्रामा टीम वालों ने उन किरदारों को नहीं पहचाना तो क्या होगा? 

लेकिन उसके ड्रामा टीम वाले उन किरदारों को पहचान लेते हैं| अब सभी मिलकर कहानी डिस्कस कर रहे हैं| कहानी से उसका बहुत वास्ता नहीं है| हर किरदार के पास हज़ारों कहानियाँ होती हैं| ये कहानी किसी और की है| अब उसे डर नहीं लगता| लेकिन हर किसी को कहानी अच्छी लगती है, किरदार भी अच्छे लगते हैं| अब ये नाटक साल भर खेला जाएगा; विश्वविद्यालय के हर ड्रामा कोम्पेटिशन में जाएगा| उसके किरदार अभी कुछ दिन जिंदा रहेंगे| वो खुश है| लेकिन बहुत खुश भी नहीं है| क्योंकि उसके किरदार अब उसके नहीं रहेंगे| ड्रामा टीम वाले मिलकर सभी किरदारों को ‘निभाएंगे’| 

वो घर लौट रहा है| आज का दिन अच्छा गुज़रा| घर पर कोई नहीं है| वो शहर में अकेले रहता है| उसे नहीं मालूम घर पर क्या करना है| वो घर पहुँचता है| उसे अकेलापन महसूस होता है| उसे आज कुछ काम नहीं है| वो घर से बाहर निकलता है| वो बगल के एक पार्क में जाकर बैठता है| वो इस पार्क में कभी-कभार ही आता है| उसे पार्क में आना बहुत अच्छा नहीं लगता| पार्क में आने से ठीक पहले उसे अच्छा लगता है कि वो पार्क में जा रहा है, लेकिन पार्क में जाते ही उसे पार्क से बाहर निकलने का मन करता है| ऐसा उसके साथ हमेशा होता है- घर, कॉलेज, ड्रामा रिहर्सल, सिनेमा- वो कहीं भी जाने के बाद वहाँ रहना नहीं चाहता| फिर भी कुछ देर रहता है| 

अब शाम हो चुकी है| 

उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं है जो उसे शाम के वक्त मिले| उसे नहीं पता आज वो क्या करेगा| अब वो नाटक भी अडाप्ट नहीं कर रहा| उसके पास कोई किरदार नहीं हैं खेलने के लिए| वो यही सोच रहा है| 

अचानक उसका रायटर अपनी कॉपी बंद करता है| वो वहीँ पार्क के बेंच पर बैठा रह जाता है|



30.10.12

Sunday 15 January 2012

कुत्तानुमा इंसान/ इंसाननुमा कुत्ता

...और उस दिन कुत्तों को वोट देने का हक़ मिल गया!

जैसे ही ये खबर फूटपाथ पर बैठे एक कुत्तों के झुण्ड तक पहुँची, उन में एक नया उत्साह आ गया | ऐसा लगा जैसे जीने के नए माने मिल गए हों, वर्ना कुछ हज़ार-दस हज़ार सालों में इज्ज़त घट सी गयी थी | पहले तो सब एक से ही थे- क्या बन्दर, क्या कुत्ता, और क्या इंसान! सभी साथ रहते थे, इंसान माँस खाता, तो कुत्ता हड्डी, बन्दर कभी इस पेड़ तो कभी उस पेड़ कूदता रहता | लेकिन रहता अपनी हद में! दूसरे जानवरों से झगड़ता नहीं, अपने आप में मस्त था | अलबत्ता, सभी कुछ इस तरह से ही रहते थे | दुनिया इतनी बड़ी तो ज़रूर थी कि उनकी सभी ज़रूरतों को पूरा कर दे | खाने को सब्जी थे, फल थे, पीने को पानी था, सोने को ज़मीन थी | और सबसे ज़रूरी बात बराबरी थी, जिसकी तलाश कुछ ढाई सौ साल पहले मार्क्स नाम के एक अजीब से जंतु ने की | उसे इंसानों ने काफी हद तक नकार दिया | कुछ तो ये तक बोल पड़े की बराबरी कभी हो ही नहीं सकती! वो तो अच्छा हुआ कि मार्क्स इंसानों के बीच ही बराबरी लाना चाहता था, अगर वो जानवरों को भी अपनी फेहरिस्त में शामिल कर लेता तो जिंदा जला दिया जाता!

खैर, उस वकत भी इंसानों को रहने का ये तरीका बहुत पसंद नहीं आया था | अब क्या कुत्तों के साथ बैठ कर माँस खाना और बंदरों-लंगूरों को उछलते-कूदते देखना | इसलिए दुनिया का हिसाब बिगाड़ने में लग गया! कपड़े पहनने लगा, घर बनाने लगा | यहाँ तक तो सब ठीक था, लेकिन एक दिन उसने साफ़ -साफ़ कह दिया, "ये ज़मीन मेरी है!" बस सारा हिसाब-किताब बिगड़ गया | बन्दर को भी उसने अपने साथ मिलाना चाहा, लेकिन बन्दर ने उसे ये कह कर किनारा किया कि इंसान ने बहुत पी रखी है, जब नशा उतरेगा तो बात करेगा | आज तक बात नहीं कर पाया है|

बात यहीं खत्म नहीं हुयी | इंसान ने नशे के हालत में भगवान बना डाला | बाद में जब इंसानों के बीच ही झगड़े शुरू हो गए तो खुदा और गॉड का भी जन्म हुआ | अलबत्ता ये कहना ज़रा मुश्किल है कि पहले किसका जन्म हुआ | ज़रूरी बात ये कि उन्हें इंसान ने जन्मा | हँसी कि बात ये रही कि इंसान ने खुदा को जन्म दिया, और चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि खुदा ने उसे जन्मा है | गधापन इंसानों में बहुत था (पुराने वक्त में गधे साथ रहते होंगे शायद), तो सभी इंसान यही मान बैठे | बोले अब कौन जिरह करता रहे, चलो मान लेते हैं कि खुदा ने ही जन्मा है | जब इंसान ने लिखना सीखा तो खुदा-भगवान के नाम से किताबें भी लिखने लगा | कुछ इंसान तो ऐसे निकले कि सुबह उठते ही किसी पहाड़ पर चढ जाते और शाम में कुछ भी लिख कर ले आते | कहते "खुदा ने दिया है"- या तो खुदा खुद लिखता था, या अनपढ़ रहा होगा तो उससे लिखवाता होगा | हज़ारों साल बीत गए, अब तक उसे खुदा की जुबां समझ कर किसी सरफिरे इंसान की बात मान रहे हैं |

कुत्ते क्योंकि पुराने दोस्त थे (साथ में बैठ कर हड्डी जो खाते), उन्हें इंसानों ने पालतू बना लिया | शुरुआत के साढ़े तीन हज़ार साल तक तो कुत्तों को पता ही नहीं चला की माज़रा क्या है | वो समझते रहे कि सबकुछ ठीक चल रहा है, बस इंसान ज़रा खुद से खफ़ा -खफ़ा सा है | वक्त का मरहम लगे तो ठीक हो जाएगा | वो तो उन्हें बाद में पता चला कि ये सबसे खफ़ा है, अपने प्यारे दोस्त कुत्ते से भी! बस पुरानी आदत की वजह से साथ रह रहे हैं | कुत्तों का दिल टूट गया | 

एक वो दिन था, और एक आज का दिन था- आज कुत्तों को वोट देने का हक़ मिला था | 

किसी खुराफाती इंसान के दिमाग की उपज थी कि जम्हूरियत (माने डेमोक्रेसी) में कुत्तों को भी वोट देना चाहिए | वजह ये नहीं थी कि वो अपनी पुरानी गलती सुधारना चाहता था | वजह ये थी कि हिंदुस्तान में इलेक्शन का वक्त था | पिछले कुछ सालों में वोट मांगने के लिए मुद्दे कम से हो गए थे | यूँ कहना बेहतर होगा की हंगामा करने के वजह खत्म हो गए थे | सौ साल पहले किसी अन्ना ने वक्त काटने के लिए कुछ भ्रष्टाचार हटाने की बात कही थी | वो तो कुछ हटा नहीं, जमा रहा वहीँ जहाँ उसे रहना था- हर गली, हर नुक्कड़ पर | आदत कुछ ऐसी हो गयी थी की अब उसके बारे में कोई बात भी नहीं करता था | और जबसे संसद ने सरकारी रूप से मान्यता दी थी, भ्रष्टाचार कोई समस्या ही नहीं रहा | जब तक हुक्मरान कहते रहते थे की ये गैरसरकारी है तब तक वो सबसे बड़ा गुनाह दिखता रहा | जिस लम्हे ये कहा गया कि भ्रष्टाचार सरकारी है, जड़ से ही उखड़ गया | हुक्मरानों ने पहली दफ़ा इमानदारी दिखाई थी |

ये भूमिका इस लिए दी गयी कि आप समझ जाएँ कि हुक्मरानों के पास जब मजाक करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं था तो कुत्तों को वोट देने का हक़ दे दिया | और इस तरीके से सत्ताधारी पार्टी ने (जो खुद एक कुत्तानुमा पार्टी थी) अपने लिए एक नया वोट बैंक तैयार कर लिया |

ये एक बहुत ही समझदारी भरा फैसला था | कुत्ते, जो हमेशा इंसानों के वफादार रहे थे, कभी इंसानों की तरह धोखा तो देते नहीं | बस हड्डी की लालच थी | लेकिन जबसे उन्हें पेडेग्री का चस्का लगा था सत्ताधारी पार्टी को "डीलिंग" ज़रा महंगी पड़ी थी | अब सिर्फ हड्डी लटकाने भर से काम नहीं चला, पेडेग्री के दो-तीन टुकड़े भी फेकने पड़े | हाँ ये अलग बात है कि उन दो-तीन टुकड़ों के लिए कुछ सौ-दो सौ कुत्ते लड़ पड़ते, कभी कभी इंसान भी लड़ पड़ते- आदत भी पुरानी थी और पेट कि भूख भी नहीं मिटी थी | 

इंसानों को ऐसा भी लगा था कि कुत्ते क्योंकि बेजुबान होते हैं, इनकी बात कोई सुनेगा नहीं | सस्ते में निपट जायेंगे और वोट भी दे देंगे | यहाँ गलती हो गयी | कुत्ते बेवकूफ थे लेकिन गधे तो बिल्कुल ही नहीं थे | वोट की बात सुन कर उनके कान खड़े हो गए | रातों रात उनका लीडर भी खड़ा हो गया, पार्टी भी बन गयी "कुत्ता कल्याण समाज (लिबरल)"| शुरुआत में जो इनका सबसे बड़ा नेता बना वो देश के गृह मंत्री का पसंदीदा कुत्ता था | गृह मंत्री साहब ने उसे अपने बच्चे की तरह पाला था, इसलिए वो अपने आप को प्राकृतिक तौर पर कुत्तों का नेता मान बैठा | कुत्तों ने भी उसको इज्ज़त दी और अपना नेता माना | आखिर उसके और गृह मंत्री साहब के अच्छे रिश्तें थे जो पूरे देश के कुत्ते वोट देने का सोच भी रहे थे | 

उधर बिहार के कुत्तों ने भी एक पार्टी बनायीं | उन्होंने एक बहुत जायज़ माँग उठाई- "भों-भों" भाषा को संवैधानिक दर्ज़ा दिया जाए | और क्योंकि बिहार से ही सर्वाधिक प्रशासनिक पदाधिकारी (माने आई.ए.एस ऑफिसर) निकलते थे तो उन्हें भी सरकारी पदों में रिज़र्वेशन दिया जाये | उनके पार्टी का नाम कुकुर पार्टी (मार्क्सिस्ट) रखा गया, बाद में इनका एक आर्म्ड विंग भी बना जिसका नाम कुकुर पार्टी (मार्क्सिस्ट-लेनेनिस्ट) हुआ | कुत्तों में आज़ादी की उम्मीद जग गयी थी | उन्हें ऐसा लगा कि ये मौका है हज़ारों साल के ज़ुल्मात के हिसाब बराबर करने का | हर गली, हर नुक्कड़ पर बात हो रही थी कि अगर उन्हें ये जायज़ हक़ मिल गया तो नतीजा क्या होगा? हर कुत्ता अपने पिल्ले को उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा था | ऐसा लग रहा था हर नुक्कड़ पर हर घंटे पाँच आई.ए.एस पैदा हो रहे हैं | जो गलती इंसानों ने कई साल पहले की थी, कुत्ते अब करने वाले थे!

बात आगे बढ़ी | इलेक्शन नज़दीक आ रहे थे | इंसानों में एक तबका ऐसा भी था जिसे ये सब पसंद नहीं आया | उसे लगा कि ये इंसानों की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ है | उन्हें अपने बारे में बहुत ज्यादा ग़लतफहमी थी | रिजर्वेशन के सौदागर तो खुश हो गए थे | आखिर कब तक हिंदू-मुसलमान के बीच रिजर्वेशन का टेढ़ा-मेढा हिसाब चला कर काम चलता रहता | उन्हें भी वक्त काटने के लिए कोई नया लतीफ़ा चाहिए था | उधर कुत्ते खुश थे कि उन्हें खूब सहूलियत मिल रही है- वो भी "मुफ़्त" में | लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था | इंसानों के एक तबके ने (जो कुत्तों से इस बात से नाराज़ चल रहा था कि वो अब इंसानों को मालिक नहीं मानते थे) एक रात कुत्तों के एक मोहल्ले में धावा बोल दिया | कुत्तों के लिए सब कुछ नया था, इंसानों के लिए पुराना | वो समझ नहीं पाए कि माज़रा क्या है | इंसान रात में अचानक से नाचने-चिल्लाने क्यों लगा? अभी शाम तक तो ठीक था, इलेक्शन के नामांकन की बात करके गया था | कुछ हड्डियों का सौदा हुआ था | लेकिन जैसे ही कुत्तों ने अपने परिवार के बच्चों की लाश देखी, उनके पैर तले ज़मीन सड़क गयी | वो बच्चे जो अभी घंटे भर पहले आई.ए.एस बनने की बात कर रहे थे, वो बच्चे जिन्हें इंसानों ने स्कूल में दाखिला दिलाने का वचन दिया था, वो बच्चे जो ठीक से भों-भों भाषा बोलना भी नहीं सीख पाए थे, वो बच्चे जो असल में बच्चे नहीं, पिल्ले थे- इंसान ने अपने मतलब के लिए उन्हें भी बच्चों की संज्ञा दी थी | कुत्ते जवाबी हमला कर नहीं पाए | कोशिश बहुत की , लेकिन इंसान के वहशीपन के सामने वो मजबूर साबित हुए | जो बच गए वो मरे हुए को देखते रह गए, जो मर गए वो आगे के वहशीपन से बच गए |

अगली सुबह अपने साथ बहुत कुछ लायी | सत्ताधारी पार्टी इस दंगे से बहुत खुश थी | अलबत्ता उसका इसमें कुछ हाथ नहीं था, लेकिन उसे पूरा यकीन हो चला था कि ये दंगा उसे इलेक्शन जीता कर जायेगा | बस उसने अपने वादों का पिटारा खोल दिया | रिज़र्वेशन, हड्डी और पेडेग्री के अलावा भी काफी कुछ दिया, जैसे उम्मीद कि उनके साथ इन्साफ नाम की कोई हरकत की जाएगी | कुछ एक कुत्ते चुन लिए गए जो अपने छेत्र का प्रतिनिधित्व इलेक्शन में करने वाले थे | इंसानों के कुछ पार्टी ने उनका समर्थन भी किया, अब कुत्तों के पास भी वोट देने का हक़ था- समर्थन तो बनता था!

कुछ दिन बीते, इलेक्शन भी बीत चला | गृह मंत्री साहब के कुत्ते की पार्टी ने कमाल कर दिया, इंसानों और कुत्तों दोनों का समर्थन लेकर सर्वाधिक सीट हासिल की | ये सत्ताधारी पार्टी ने सोचा नहीं था | उन्हें तो लगा था की कुत्ते पहली बार इलेक्शन लड़ रहे हैं तो कुछ पाँच-दस सीट निकाल लेंगे, बस! लेकिन यहाँ तो हिसाब ही उल्टा हो गया था | गृह मंत्री साहब का कुत्ता बहुत खुश था की कुत्तों के ऊपर दंगे हुए थे | उन दंगों की वजह से ही ये आश्चर्यजनक नतीजे आये थे | गृह मंत्री साहब भी पुराने खिलाड़ी थे | अपने बच्चे के साथ कुछ "डीलिंग" की और सारे समीकरण बदल दिए |

अगले दिन के अखबार ने कुछ ऐसा लिखा था, "गृह मंत्री का कुत्ता देश का नया प्रधान मंत्री"! 

गृह मंत्री साहब ने अपनी कुर्सी बचा ली थी, कुत्ता अब इंसान बन चुका था |