सुनो,
मेरी आँखें सच में कभी बंद हो जाएंगी। और फिर कभी नहीं खुलेंगी। मैं मरूँगा। अपने अंतिम क्षणों में मेरा पश्चाताप क्या होगा? इस सवाल को हमेशा तो नहीं सोचता, लेकिन कभी-कभी ज़रूर सोचता हूँ।
मैं अपने बहुत सारे इक्कठा किये गए किताबों को नहीं पढ़ सकने का दुःख मनाऊँगा। मैं अपने हार्ड-ड्राइव में अनदेखे फिल्मों को नहीं देखने का शोक मनाऊँगा। मैं ठीक से प्रेम नहीं कर पाया, इस बात से दुखी रहूँगा। मैं कुछ लोगों से बहुत कुछ कहना चाहता था। उनसे ना कह पाने का दुःख रहेगा। मैं सबसे पहले एक क्रिकेटर बनना चाहता था। फिर पत्रकार। बीच में टेबल-टेनिस प्लेयर भी। लेकिन कुछ भी पूरा नहीं चाहता था। अभी भी जो भी चाहता हूँ उसे पूरा नहीं चाहता। मैं घर से जब भी निकलता हूँ पूरा नहीं निकलता। मेरा कुछ हिस्सा घर में रह जाता है। जब कोई रिश्ता ख़त्म होता है, तो मेरा कुछ हिस्सा किसी के पास छूट जाता है। मरते वक़्त ये दुःख भी हो सकता है कि मैं पूरा नहीं मरा। मेरे बहुत हिस्से बहुत लोगों के पास ज़िंदा रह जाएंगे। लेकिन इस बात से खुश भी हो सकता हूँ कि मेरे मरने के बाद लोग कुछ दिन तक मुझे याद रखेंगे। फिर वो भूल जाएंगे, जैसे मैं बहुत लोगों को भूल चुका हूँ। भूलना ज़रूरी है, वरना सर-दर्द बहुत बढ़ जाएगा।
मुझे सुसाइड नहीं करना। लेकिन मुझे सुसाइड नोट लिखना पसंद है। हर सुसाइड नोट तब तक के जीवन का सार होता है; एक पड़ाव होता है। और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन।
मैं इस जीवन में बहुत सारे सुसाइड नोट लिखना चाहता हूँ। सुसाइड नोट विराम हैं, मृत्यु पूर्ण विराम।
तुम इसे पढ़ कर भूल जाना।
तुम्हारा,
मैं।
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दृश्य: कनॉट प्लेस का एक कॉफ़ी शॉप।
दोनों 12 साल बाद मिल रहे हैं। कॉलेज के दिनों में जंतर-मंतर पर आंदोलन के साथी। अब वो नौकरी करने लगा है। और वो मेरठ में अपने परिवार के साथ रहती है।
"मुझे कभी लगा नहीं था कि हम इस जीवन में दोबारा मिलेंगे। मैं तो मान चुका था कि हम दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं।"
"मैंने भी नहीं सोचा था। लेकिन कई सालों बाद दिल्ली आना हुआ तो सोचा तुमसे मिल लूँ। इसलिए फेसबुक पर मेसेज किया।"
"अच्छा किया जो तुमने मेसेज किया। मैं तो कई बार मेरठ आया। लेकिन हिम्मत नहीं हुयी तुम्हें मेसेज करने की। और अब टाइम भी तो नहीं रहता। सिर्फ ऑफिस के काम से मेरठ आता हूँ।"
"तुम्हें याद है जंतर-मंतर और आर्ट्स फैक्लटी के धरने और आंदोलन! तुम्हारे चक्कर में क्या-क्या नहीं किया मैंने।"
"तुम्हारी समझ भी तो अच्छी थी उन सभी इशूज़ की। इतने साल में मुझे कोई लड़की मिली नहीं जिसकी पॉलिटिकल क्लैरिटी तुम्हारे जैसी हो।"
"वो सब कॉलेज के टाइम की बातें हैं। सोचा था दुनिया बदल ही देंगे। दो बच्चे हैं। उन्हें भी बदल नहीं पाती! और आजकल स्कूल में इतना होमवर्क मिलता है बाबा! पूरा दिन उनके होमवर्क कराने में गुज़र जाता है। जानते हो, बहुत थक जाती हूँ।"
"तुम्हारे बाबा कहने की आदत नहीं गयी।"
"हा! तुम्हें ये याद है? बहुत बदल गयी हूँ लेकिन। तुम कैसे हो? क्या चल रहा है जीवन में?"
"मैं बहुत खुश हूँ। अच्छी नौकरी है। ऑफिस घर के पास ही है। तो ज़्यादा ट्रैवेल नहीं होता। ऑफिस में सबकुछ है। वहीँ सुबह जिम कर लेता हूँ। तीन महीने पहले मुझे अपनी केबिन भी मिली है। सब बढ़िया है।"
"हम्म..."
"क्या?"
"तुम्हें बिल्कुल भी याद नहीं होगा। बहुत मामूली बात है लेकिन... छोड़ दो।"
"क्या? बताओ तो... इतना कुछ तो हमने छोड़ दिया। बातों को भी..."
"यहीं सेंट्रल पार्क में तुमने कभी कहा था कि अगर हम कभी अलग हुए, और कई सालों बाद तुम्हें ये पता चले कि मैं किसी बड़े कंपनी में एक अच्छी नौकरी कर रहा हूँ, तो समझ जाना कि मैं खुश नहीं हूँ..."
"... हा! मैं भी कितना बेवकूफ था ना!"
"हाँ, तुम बहुत बेवकूफ थे।"
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इस रिश्ते को ख़त्म हुए बारह साल बीत गए हैं। लेकिन वो एहसास अब भी मेरे साथ है, स्ट्रांग कॉफ़ी की तरह।
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मैं यहीं कहीं रहती थी। यहाँ जहाँ वो नहीं था। वो भी यहीं कहीं रहता था। वहाँ जहाँ मैं नहीं थी। हम साथ-साथ रहते थे, और साथ नहीं भी। कौन किसका है ये सोचते हुए एक रिश्ता निभा रहे थे।
मेरा इस रिश्ते में ना रहने का कारण उसका ज़्यादा रहना था।
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हम दोनों प्यार करते थे। मेरा उससे प्यार करना उतना ही सच है जितना मेरा होना। मैं कहीं भी जाता हूँ, मेरा कुछ हिस्सा उसके पास ही रखा होता है। प्यार कभी ख़त्म नहीं होता। वो सतही धूल के नीचे दबा होता है। वो अगर एक फूँक भर देती, तो वो उभर आता।
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सोलह साल पहले। कॉलेज के शुरुआती दिन। थिएटर क्लब के ऑडिशन चल रहे हैं। लड़का और लड़की भी ऑडिशन दे रहे हैं।
लड़का: “शायद आपका फ़ोन बज रहा है।”
लड़की: “जी नहीं। मेरा फ़ोन साइलेन्स पर है।”
लड़का: “आप इकोनॉमिक ऑनर्स में हैं ना?”
लड़की: “मैं आपकी ही क्लास में हूँ। इंग्लिश ऑनर्स। आपने ध्यान से नहीं देखा होगा।”
“मुझे लग रहा था कि मैंने कहीं तो आपको देखा है। सॉरी।”
“सॉरी की बात नहीं है। बस एक हफ़्ता तो हुआ है कॉलेज को शुरू हुए। किसी को किसी का चेहरा याद रहे ज़रूरी नहीं।”
“मैं रोहित।”
“मैं प्रीती।”
“सो, थिएटर?”
“हाँ। बचपन से मन था कभी तो थिएटर करूँ। स्कूल में भी नहीं किया। कॉलेज ऑडिशन का देखा तो सोचा कि कर सकती हूँ… आप?”
“मैं तो थिएटर करता हूँ। बाहर भी एक ग्रुप है। उनके साथ करता हूँ। कॉलेज में भी जॉइन कर लूँगा तो अच्छा रहेगा।”
“ओह, तो आप वेटरन हैं।”
“अरे नहीं। और ये आप मत कहिये। काफ़ी फॉर्मल लगता है।”
“आप ही आप कर रहे हैं। वरना मुझे तो काफ़ी ऑकवर्ड लग ही रहा था आप करके बात करना।”
“ओ! सॉरी! अब रेस्पेक्ट नहीं दूँगा!”
“अरे, रेस्पेक्ट और ‘आप’ का क्या लेना देना? रेस्पेक्ट तो बिना आप बोले भी दे सकते हैं।”
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ऑडिशन के बाद।
“प्रीती! प्रीती!”
“अरे, तुम।”
“हाँ। तो कैसा रहा ऑडिशन? तुम्हारा सलेक्शन हुआ?”
“नहीं यार। मेरा तो नहीं हुआ। बोला कि एक्सपीरियंस कम लग रहा है। अरे, फर्स्ट ईयर में हूँ। कैसे एक्सपीरियंस आएगा? ये थर्ड ईयर वाले बहुत ज़्यादा समझते हैं अपने आप को। तुम्हारा तो हो गया होगा?”
“हाँ, हो तो गया है। मैं कुछ बात करूँ क्या तुम्हारे लिए…”
“नहीं नहीं। मुझे थिएटर का क्राउड भी कुछ खास नहीं लगा। इसी बहाने क्लास थोड़ा ठीक से अटेंड कर लूँगी। चलो, फिर क्लास में मिलेंगे।”
“ओके। मिलते हैं आराम से।”
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कुछ महीने बाद। कॉलेज इलेक्शन के दौरान।
“प्रीती…”
“हाँ रोहित। तुम क्लास क्यों नहीं आते? तुम्हारे अटेंडेंस का क्या होगा?”
“अरे रिहर्सल होते हैं ना। अटेंडेंस का टेंशन नहीं है। वो तो हम थिएटर वालों का मैनेज हो जाता है। लेकिन मुझे तुम्हारा फ़ेवर चाहिए।”
“कैसा फ़ेवर?”
“एक्चुअली, मैंने एक पार्टी जॉइन की है। हमलोग इलेक्शन भी लड़ रहे हैं। तो तुम भी सपोर्ट करो हमें।”
“कैसे सपोर्ट करूँ? और, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?”
“अरे, हम तो लाल हैं। अपनी पॉलिटिक्स बताओ?”
“अपना तो कोई रंग नहीं है। जो सही है वो सही है। जो गलत है वो गलत है।”
“मतलब कोई आइडेंटिटी नहीं है। पता है, समाज के लिए ऐसे लोग सबसे ख़तरनाक होते हैं जो असल में श्योर नहीं होते कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है।”
“तुम्हें कैसे पता कि मुझे अपनी पॉलिटिक्स नहीं पता? और तुम सिर्फ एक पार्टी जॉइन करके मोरल हाईग्राउंड कैसे ले सकते हो? अभी तो फ़ेवर चाहिए था तुम्हारी पॉलिटिक्स को!
“अरे, मेरा मतलब वो नहीं था। मैं कह रहा था कि एक पार्टी रहती है तो अपने विचारों को दिशा मिल जाती है… इसलिए पार्टी जॉइन कर लो। मेरा टारगेट भी पूरा हो जाएगा…”
ज़ोर से हँसते हुए, “अरे, समाज के रक्षक के टार्गेट्स भी हैं! तब तो जॉइन करना ही पड़ेगा। वरना क्रांति कैसे आएगी!”
“अरे, साथ काम करेंगे… क्रांति आ जाएगी।”
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हमारे जीवन में सिर्फ़ अदाकार आते हैं, अलग अलग किरदारों में। मैं भी जिनके जीवन मे कदम रखता हूँ दरअसल उनके जीवन के नाटक में एक किरदार ही हूँ।
हम सब झूठे हैं। लेकिन इस झूठ के सच का अनंत आनंद है। मुझे सच बोलने वाले किसी किरदार का इंतज़ार नहीं है। ना ही मैं वो किरदार हूँ जो कहीं जाकर सच बोलेगा। मुझे बेहद झूठे और झूठ में सच जीने वाले लोगों का इंतज़ार है। जो इस भ्रम में हैं कि वो दरअसल सच्चे हैं, ऐसे लोगों से दूर एक दूसरे शहर में नाटक खेलना चाहता हूँ।
हमारा ये भ्रम कि हम दुनिया बदल रहे हैं, बहुत बड़ा था। इस भ्रम का झूठा ‘सच’ हमें एक नशा देता था। व्यक्तिगत जीवन उतना मायने नहीं रखता था।
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बेहद प्यार में डूबा हुआ होने के एहसास से बेहतर कुछ भी नहीं होता होगा। लोगों का बेहद प्यार में डूबा पल मानव समाज के सबसे बेहतरीन पलों में से एक होगा।
मैं जितने देर भी प्यार के करीब रहती हूँ उतनी देर एक बेहतर इंसान कैसा होता है, महसूस करती हूँ।
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मुझे नहीं पता बेहतर प्यार कैसे करते हैं। शायद सबकुछ खो कर भी जिसकी चाहत बराबर रहे वो बेहतर प्यार होता हो। खुसरो का निज़ामुद्दीन के लिए, या मेरे बचपन के एक दोस्त का मेरी क्लास की एक लड़की के लिए। ज़रूरी नहीं कि सभी प्यार की कहानियाँ अमर हो जायें। अमर होना अप्राकृतिक भी है। इंसान उस पल में क्या बन पाया, ये ज़रूरी है।
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दृश्य: आर्ट्स फैक्लटी, डी.यू, का मैदान। यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ एक कैंपेन के बाद। दोनों सुबह से नारे लगाने के बाद फुर्सत के पलों में।
लड़की: “तुम कोई कविता सुना सकते हो क्या?”
लड़का: “अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें…”
“बेहतर कविता।”
“ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो, नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें।”
“मैं थकी हुई हूँ। और फिलहाल फ़राज़ साहब मुझे कोई सुकून नहीं दे रहे। कुछ बेहतर सुनाओ। थिएटर करने वाले के पास तो ख़ज़ाना होना चाहिए ग़ज़लों और कविताओं की।”
“बेहतर कविता क्या है? जो पाश ने लिखी है? या जो ग़ालिब ने?”
“बेहतर वो है जो फिलहाल मेरा पेट भर दे।”
“तो इस समय सदी के सबसे बड़े शायर कैन्टीन के मोहन भैया हैं।”
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दोनों खाना खाते हुए।
“ये बताओ आज के कैंपेन का एडमिनिस्ट्रेशन पर कुछ फ़र्क पड़ेगा?”
“कैसे नहीं पड़ेगा! बिल्कुल पड़ेगा। दो से तीन हज़ार स्टूडेंट्स ने हल्ला किया है। वी.सी की हालत टाइट हो गयी थी। मैंने खुद देखा किस तरह वो डरा हुआ था।”
“जानते हो, पिछले साल भी ऐसा हंगामा हुआ था। और उसके पिछले साल भी। और हम आज फिर हंगामा कर रहे हैं। बार-बार लगातार हंगामा करने की क्या ज़रूरत अगर फ़र्क पड़ रहा हो तो?”
“हम पॉलिटिकल लोग हैं। हम इतनी सतही बात नहीं कर सकते। पॉलिटिक्स एक प्रक्रिया है। तुम अंत की खोज कर रही हो। हम अभी शुरुआती दौर में हैं। पिछले दस साल में यूनिवर्सिटी का फ़ीस सौ प्रतिशत बढ़ चुका है। लेकिन ये पाँच सौ प्रतिशत भी बढ़ सकता था। हम अपना काम तो करते रहेंगे ना।”
“मैं इनकार नहीं कर रही। मैं बस पूछ रही हूँ कि ये प्रक्रिया कहीं छलावा तो नहीं है हम सभी को व्यस्त रखने के लिए।”
“हो भी सकता है। मैं मना नहीं करता हूँ। लेकिन इसकी खोज तो हमें खुद ही करनी है। जैसे तुम्हारे मन में ये सवाल आना बड़ी बात है।”
“अब ये सवाल तुम्हारे मन में भी डाल दिया है कॉमरेड। पार्टी से रिज़ाइन कर डालो!” बोलते-बोलते हँस पड़ती है।
“इतना नकली कम्युनिस्ट नहीं हूँ कि गर्लफ्रेंड की बात में आकर पार्टी छोड़ दूँ। चलो, तुम्हें भी क्लास के लिए जाना है, और मेरी भी रिहर्सल है।”
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“आज शाम कहीं चलते हैं?”
“कहाँ?”
“सेंट्रल पार्क… डायरेक्ट मेट्रो।”
“मेरी रिहर्सल लंबी चलेगी। अच्छा, कल का प्लान करें क्या?”
“उफ्फ! तुम और तुम्हारी रिहर्सल। बस पछताओगे!”
“आप मेरे पछतावे की चिंता ना करें। बस ये बताइये कि क्या कल का डेट हमें मिल सकता है?”
“मेरी सेक्रेटरी से पूछ लेना! अच्छा बाए!”
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मैं जानती थी कि तुम्हें थिएटर और पार्टी की ज़्यादा चिंता थी। वो तुम्हारी प्रायोरिटी थीं। मैंने तब भी कंप्लेन नहीं किया। अब भी नहीं करती हूँ। लेकिन, हम शायद साथ नहीं चल रहे थे।
मैं चाहती थी कि हम साथ चलें। तुम थोड़ा आगे चल रहे थे। मैं कभी-कभी बोलना चाहती थी कि ये वाला मोड़ लेना है, लेकिन तुम दूसरी तरफ़ बढ़ चुके होते थे। मैं तुम्हें बुलाती थी। लेकिन उन नारों और थिएटर की तालियों में मेरी आवाज़ तुम तक नहीं पहुँचती थी। मैं कई बार रुकती भी थी। लेकिन तुम कई बार मुड़ते नहीं थे।
अब शायद तुम मुड़ सकते हो। लेकिन वो सारे मोड़ नक्शे पर नहीं हैं।
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"मैंने कई बार तुमसे कहा है कि टूथपेस्ट को ऊपर से नहीं, नीचे से प्रेस किया करो। लेकिन तुम मेरी बात नहीं समझते।" प्रीती सुबह सुबह झल्लाते हुए रोहित से बोल रही थी। "मेरी एक बात मान लेने से घर नहीं गिर जाएगा, या तुम कम रिबेलियस नहीं हो जाओगे।"
"प्रीती... सुबह सुबह मत शुरू हो जाओ यार। अभी आधे घंटे पहले सोने आया हूँ। पूरी रात हमलोग नाटक की रिहर्सल कर रहे थे। मेरा पहला टिकेटेड शो है। कुछ देर में वापस जाना है। प्लीज़..." रोहित नींद में ही था।
कॉलेज ख़त्म हो चुका है। रोहित अब सिर्फ थिएटर करता है और प्रीती नौकरी। जब दोनों के बीच चार साल पहले प्यार शुरू हुआ था तब ये किसी ने नहीं सोचा था कि जीवन में इस तरह के भी मुद्दे आएंगे जिन्हें सुलझाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना प्यार। टूथपेस्ट भी प्रेम की तरह ज़रूरी है, और चाय की कप को बिस्तर के नीचे से हटाना भी। प्रेम के मायने प्रेम से परे कुछ और होते हैं। प्रेम इन सबके इर्द-गिर्द ही कहीं रहता है।
“बाबा! मैं सिर्फ़ इतना कह रही हूँ कि मेरी बात को थोड़ा तो ध्यान में रख सकते हो ना? मैं ऑफिस जा रही हूँ। आज थोड़ा लेट ही आऊँगी।”
“ठीक है।” रोहित नींद में ही बोल रहा था।
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“प्रीती, तुम अपने ऑफिस में कुछ ज़्यादा ही इन्वॉल्व नहीं हो गयी हो?”
“ज़्यादा ही इन्वॉल्व होना होता है। दाल में नमक कम है। प्लीज पास करना।”
“ये लो। हमलोग तो कभी आराम से बैठ कर बात ही नहीं कर पा रहे हैं।”
“कैसे करेंगे… कभी तुम्हारे रिहर्सल, तो कभी मेरी ऑफिस। ये दिक्कत तो रहेगी ही।”
“तुम्हारा भी सेलेक्शन कॉलेज थिएटर क्लब में हो जाता तो शायद ये दिक्कत ना होती।”
“रोहित, साथ थिएटर करने वाले सभी लोग रिलेशनशिप में नहीं आ जाते।”
“तो ऐसे कैसे चलेगा? हमलोग अंजान बनकर रह गए हैं।”
“जो कंप्लेन मेरा होना चाहिए, वो तुम कर रहे हो?”
“क्या फ़र्क पड़ता है कि कौन कंप्लेन कर रहा है। हम दोनों को सच तो पता ही है ना।”
“हाँ। पता है।”
“तो?”
“तो कुछ भी नहीं। आज भी थोड़ा लेट हो जाएगा।”
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हम दोनों लेट कर चुके थे। कई साल साथ रहने के बाद भी हम नहीं समझ पाए एक दूसरे को। बहुत कुछ समझा। एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखा। लेकिन हम वो नहीं कर पाए जो करना चाहते थे।
हम दुनिया घूमना चाहते थे। चेयरमैन माओ के मेमोरियल को साथ देखना चाहते थे। और स्विट्जरलैंड भी साथ जाना चाहते थे। इजिप्ट के पिरामिड्स पर फ़ोटो खींचना था। और नॉर्थन लाइट्स को साथ महसूस करना था। हमारे सपने बहुत सुंदर थे। हम दोनों ने कई साल इन सपनों को पाला पोसा था।
और इन सबका भी अंत आया।
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हमने कुछ नहीं किया।
हमने सिर्फ अपने 'होने' का एक घर बना लिया- ईंट पत्थर का नहीं, यादों का। खाली वक़्त में बैठे-बैठे इंस्टाग्राम पर मैं तुम्हारे सिर्फ वो फ़ोटो देखता हूँ जो मैंने खींची हैं। उस वक़्त में हम साथ थे। बाकी फ़ोटो भी शायद अच्छे हों, लेकिन वो हमारे 'साथ होने' के पल नहीं थे। जब मैंने तुम्हारी फ़ोटो खींची थी तो हम कुछ नहीं कर रहे थे। हमें नहीं मालूम था कि कुछ समय बाद ये फ़ोटो मुझे वो सुकून देंगे जो दफ़्तर से लौटने के बाद घर देता है। बाकि सब तो दुनिया है। तुम घर हो।
इंस्टाग्राम पर भी बहुत भीड़ है- दिल्ली के भीड़ की तरह। लेकिन इन सबसे छुपते-छुपाते जब मैं तुम तक पहुँचता हूँ तब मैं भीड़ से दूर खुद को एक पार्क में पाता हूँ, तुम्हारे साथ।
सिर्फ ये साथ होने का एहसास सुंदर है। हमने कुछ नहीं किया... ना हम कुछ करेंगे। लेकिन ये एहसास जब तक हमारे साथ रहेगा, जीवन सुंदर दिखता रहेगा।
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सुनो,
ये एक और सुसाइड नोट है। मैं आत्महत्या नहीं करूँगा, और इसे तुम भूल जाना।
मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ। हमेशा। मुझे किसी भी परिस्तिथि से निकलने का सिर्फ एक रास्ता पता है- आत्महत्या। मैं इसे कभी गलत नहीं मानता। खुद से चुनी हुई अनंत की यात्रा कभी गलत नहीं हो सकती।
लेकिन मैं कई कई बार मरना चाहता हूँ। हम जो कहानी लिख रहे हैं उसके कई अंत हैं। और मेरी मृत्यु एक। सभी कहानी एक साथ खत्म नहीं होंगे। कुछ कहानियों को बीच में छोड़ना पड़ेगा।
लेकिन यात्राओं को बीच में कैसे छोड़ दें?
मैंने तुमसे पहले भी कहा है मुझे सुसाइड नोट लिखना इसलिए पसंद है क्योंकि ये तब तक के जीवन का सार होता है। ये विदाई का गीत है जो गद्य में लिखा गया है। मुझे विदाई के गीत भी पसंद हैं और जीवन का रस भी।
मैं जीवन से बेहद प्यार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि दुनियावी बातें मेरी सुसाइड नोट में कभी ना आयें- जैसे इसने इसको मारा, ये उससे नफ़रत करता है, वो लोग इन लोगों को मार रहे हैं- ये सब छोटी बातें हैं। लेकिन ये छोटी बातें बहुत कुछ कहती हैं जो लगभग रोज़ सुनना पड़ता है- फेसबुक पर, अख़बारों में, न्यूज़ में, टी.वी पर। हम सिर्फ इसे ही सुनते हैं।
मैं एक अच्छी कविता सुनते हुए विदा चाहता हूँ। फ़राज़ की ग़ज़ल… जो मैंने तुम्हें सुनाई थी।
मैं एक अच्छी दुनिया से विदा चाहता हूँ।
तुम मेरे लिए एक अच्छी दुनिया बना देना। मैं विदा ले लूँगा।
तुम्हारा,
मैं।
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हम जबसे बिछड़े क्या क्या सोचा करते हैं,
हम बैठे बैठे यादों को पाला पोसा करते हैं
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कहानी के किरदारों अब मुझमें भी साँस ले रहे हैं। सिर्फ रोहित ही नहीं,प्रीति भी। "मैं ठीक से प्रेम नहीं कर पाया इस बात से दुखी रहूँगा" यह वाक्य पूरी कहानी के सार के तौर पर मेरे साथ रहेगा।
ReplyDeleteकिरदार*
Deleteबहुत अच्छे निहाल भाई : बहुत खूब |
ReplyDelete������������
ReplyDeleteAlways special m
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