Thursday, 20 June 2013

उलटी


पहाड़ों से घिरे घरोंदें में रहना, चिड़िये की तरह चहकना, ताज़ा हवा में पंख खोल के उड़ना- ये सब वो करना चाहता था| लेकिन लोग इसे रोमांटिसिज़्म कहते थे| तो वो चुपचाप ट्रेन की टिकट कटा कर नैनीताल के पास किसी गाँव में जाकर रह लेता था- कभी कैंप में या फिर कभी किसी सस्ते होटल में| लोग पूछते कहाँ जा रहे हो तो कहता “वेकेशन पर जा रहा हूँ”- अब कहाँ बताता फिरे कि मौका मिला है, चिड़िया बनने जा रहा हूँ|

लेकिन पहाड़ों पर जाना इतना आसान नहीं था| पहले तो शहर के भागदौड़ से छुट्टी लेना, फिर पैसे जोड़ कर टिकट कराना, फिर पता करना कि रहने का इंतज़ाम क्या होगा- इंतज़ाम ना भी हो तो भी चला जाता क्योंकि उसे हद की बेहदी तक विश्वास था कि इंसान किसी भी हालात में सर्वाइव कर सकता था| पैसे भी किसी न किसी तरह जोड़-जार लेता| क्योंकि कुछ खास काम नहीं करता था तो छुट्टी लेना कोई बड़ी बात नहीं थी| 

सिर्फ और सिर्फ दिक्कत जो थी वो थी पहाड़ों पर चढ़ाई करते वक्त उलटी आना! ये बहुत बड़ी दिक्कत थी- इतनी बड़ी कि ये कहानी लिखनी पड़ी! 



पहले-पहल तो उसे बहुत दिक्कत मालूम हुआ| उसने ठान लिया कि अब चाहे खुदा का बच्चा भी उसे बुलाये या खुद खुदा ही पहाड़ों पर टैक्सी चलाये- वो दुबारा किसी पहाड़ पर नहीं जायेगा| लेकिन पहाड़ कुछ खास होते हैं, ये समझने में उसे कुछ ज्यादा समय नहीं लगा| उसने किसी ज्योतिष के माफिक अपने आपको ये फैसला सुनाया कि पहाड़ों पर जाते रहने से उसके रूह को कुछ ऐसा मिलेगा जो शहर में मौजूद नहीं है| वो क्या है जिसके लिए उसे पहाड़ों के चक्कर लगाना था वो नहीं जनता था| 

इसके बाद भी मुद्दे कि बात नहीं बदलती| उलटी| 

उलटी एक खास प्रकार की क्रिया है जिसके ऊपर इंसानी ताकतों का वश नहीं होता| इसे जब आना होता है तो आता है| मन बेचैन सा हो जाता है| और सबसे बड़ी बात आपने जो कुछ भी खाया हो- भले ही बहुत ही महँगा और हाइजेनिक- वो अनपचा खाना बाहर निकल आता है! आप चाह कर भी उसे रोक नहीं सकते| जब वो खाना जो आपने बड़े चाव से किसी खास इंसान के साथ खाया था, आपके मुँह से निकल रहा हो तो आप बस उन सुनहरी यादों को याद कर सकते हैं, दुबारा उस स्वाद का आनंद नहीं ले सकते| 

उसके साथ एक और दिक्कत थी कि उलटी के बाद उसे- हर किसी की तरह- कमजोरी का एहसास होता| तबियत नासाज़ हो जाती और पहाड़ों पर चिड़िया बनने कि चाहत खत्म होने लगती| ये शुरूआती दिनों कि बात थी| उसके बाद वो बीसीयों बार अलग- अलग पहाड़ों पर गया लेकिन हर बार उसे मुनासिब मात्रा में उलटी होती| परेशानी कि हद तक होती| अलबत्ता, बेहद तक होती| 

इसके बावजूद वो पहाड़ों पर जाता- जब मौका मिलता शहर की धमाचौकड़ी से एस्केप कर जाता| दर असल वो एक एस्केपिस्ट था| लेकिन मुआ उलटी उसका पीछा नहीं छोड़ती| कुछ लोगों ने उसे सलाह दी “फलां-फलां दवाई खा लिया कर| उलटी नहीं होगी|” उसको समझ नहीं आता ये कैसे मुमकिन है| अगर मुझे मोशन सिकनेस की दिक्कत है और मोशन भी हो रहा है तो कोई दावा इसका इलाज कैसे कर सकती है? उसे इतना मालूम था कि उसका शरीर उससे ज्यादा समझदार है| शरीर को मालूम था किस वक्त कैसे रिअक्ट करना है| अगर शरीर किसी भी कारण से कुछ चीज़ बाहर निकालना चाहता है, और वो उसे किसी तरीके से रोके, तो ये तो प्राकृतिक नहीं है| कुछ और मुआमलों में कॉन्सटिपेशन की दिक्कत भी हो जाती थी| ये कुछ दूसरा मामला था, लेकिन दिक्कत तो यहाँ भी बराबर हो सकती है!

उसने किसी भी तरह के फलां-फलां दवाई खाने से इनकार कर दिया| लेकिन लोगों को ये बात पसंद नहीं आई| हर मर्तबा जब वो उलटी करता तो लोग उसे ताने मारते “मत खाओ फलां-फलां दवाई| और करो उलटी|”

इस बीच एक खासा वक्त गुज़र गया| पहाड़ों का जाना भी कम नहीं हुआ और ना ही उलटी का आना| लेकिन कुछ ऐसा हुआ जो खास था| उसे धीरे-धीरे उलटी करने में आनंद आने लगा| 

मुँह में नमकीन स्वाद का आना, पेट में एक भीनी दर्द का एहसास होना, सर का शुन्य में चले जाना- ये सब अब सफर का हिस्सा बन चुके थे| टैक्सी से सर बाहर निकाल कर अपने मुँह से अपने पसंदीदा खाने को बाहर जाते देखना एक अद्भुत एहसास था- पूर्ण रूपेण मेडीटेशन| उसे (फिर से) हद की बेहदी तक विश्वास हो गया था कि ये कुछ खास है जिसके बारे में कोई बात नहीं करता| सबसे खास एहसास होता था जब उलटी आती थी और उसका पेट खाली होता था- सिर्फ पानी के अलग अलग रूप बाहर निकलते थे जो उसके दाँतों को खट्टा कर जाते| उसे अपने खट्टे दाँतों को आपस में रगड़ना बहुत अच्छा लगने लगा| वो अब बहाने खोजने लगा उलटी करने के, जिसके कारण पहाड़ों के चक्कर बढ़ गए, और लोगों के ताने भी|

वक्त आ गया था जब लोगों के ताने और उलटी की चाहत के बीच युद्ध शुरू हो चुके थे| उससे लोग पूछते कि फलां-फलां दवा क्यों नहीं ले लेता, तो उसके पास कोई जवाब नहीं होता| अब किसे समझाने बैठे कि उलटी करना उसे अच्छा लगता है| ये एक बेतुका सा जवाब मालूम होता जिसे लोग मसखरी समझते| लेकिन वो मसखरा नहीं था| उसे मसखरी बिल्कुल भी नहीं आती थी| 

ये वो वक्त था जब वो लगातार कई महीनों तक पहाड़ों के चक्कर लगाता रहा| अलग अलग लोग उसके साथ अलग अलग जगह जाते थे| कुछ नए, कुछ पुराने- दोस्त बन जाते थे| जो भी उसे उलटी करता देखता कहता कि इतनी तकलीफ क्यों ले रहे हो, फलां-फलां दवाई क्यों नहीं खा लेते? वो जवाब नहीं दे पाता| लेकिन कुछ लोग इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने ने उसे बहुत खरी-खोटी सुना डाली| उनका कहना साफ़ था “तुम्हारी वजह से हमारी गाड़ी गन्दी हो जाती है| तुम्हारी वजह से हमारा वक्त खोटा होता है| तुम कोई तीस मार खान हो क्या जो फलां-फलां दवाई नहीं खाओगे! तुम्हे ये दवाई खानी ही होगी!”

मामला संजीदा हो चला था| उसे पहाड़ों से ज्यादा उलटी से प्यार हो गया था| वो अब किसी कि सुनना नहीं चाहता था| लेकिन उलटी करने के लिए उसे टैक्सी पर चढ़ना होता था| लेकिन अब उसे कोई भी अपने साथ ले जाने को तैयार नहीं था| बात बढ़ती चली| उसका दिल बैठता चला|



एक दिन उसे एक इंसान ने फलां-फलां दवाई दी और कहा, “सोचो मत| हर कोई ये दवा खाता है| मैं, वो, और वो| तुम्हारे पिता, तुम्हारी माँ, तुम्हारे मौसा और मामा भी- हर कोई| तुम भी खा लो और हमारी तरह आराम से जियो|”

उस दिन उसने फलां-फलां दावा खा ली| आज भी खाता है| सब कहते हैं वो बहुत आराम से सफर करता है, उसे कोई दिक्कत नहीं होती| 


4.6.13

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