Sunday, 15 January 2012

कुत्तानुमा इंसान/ इंसाननुमा कुत्ता

...और उस दिन कुत्तों को वोट देने का हक़ मिल गया!

जैसे ही ये खबर फूटपाथ पर बैठे एक कुत्तों के झुण्ड तक पहुँची, उन में एक नया उत्साह आ गया | ऐसा लगा जैसे जीने के नए माने मिल गए हों, वर्ना कुछ हज़ार-दस हज़ार सालों में इज्ज़त घट सी गयी थी | पहले तो सब एक से ही थे- क्या बन्दर, क्या कुत्ता, और क्या इंसान! सभी साथ रहते थे, इंसान माँस खाता, तो कुत्ता हड्डी, बन्दर कभी इस पेड़ तो कभी उस पेड़ कूदता रहता | लेकिन रहता अपनी हद में! दूसरे जानवरों से झगड़ता नहीं, अपने आप में मस्त था | अलबत्ता, सभी कुछ इस तरह से ही रहते थे | दुनिया इतनी बड़ी तो ज़रूर थी कि उनकी सभी ज़रूरतों को पूरा कर दे | खाने को सब्जी थे, फल थे, पीने को पानी था, सोने को ज़मीन थी | और सबसे ज़रूरी बात बराबरी थी, जिसकी तलाश कुछ ढाई सौ साल पहले मार्क्स नाम के एक अजीब से जंतु ने की | उसे इंसानों ने काफी हद तक नकार दिया | कुछ तो ये तक बोल पड़े की बराबरी कभी हो ही नहीं सकती! वो तो अच्छा हुआ कि मार्क्स इंसानों के बीच ही बराबरी लाना चाहता था, अगर वो जानवरों को भी अपनी फेहरिस्त में शामिल कर लेता तो जिंदा जला दिया जाता!

खैर, उस वकत भी इंसानों को रहने का ये तरीका बहुत पसंद नहीं आया था | अब क्या कुत्तों के साथ बैठ कर माँस खाना और बंदरों-लंगूरों को उछलते-कूदते देखना | इसलिए दुनिया का हिसाब बिगाड़ने में लग गया! कपड़े पहनने लगा, घर बनाने लगा | यहाँ तक तो सब ठीक था, लेकिन एक दिन उसने साफ़ -साफ़ कह दिया, "ये ज़मीन मेरी है!" बस सारा हिसाब-किताब बिगड़ गया | बन्दर को भी उसने अपने साथ मिलाना चाहा, लेकिन बन्दर ने उसे ये कह कर किनारा किया कि इंसान ने बहुत पी रखी है, जब नशा उतरेगा तो बात करेगा | आज तक बात नहीं कर पाया है|

बात यहीं खत्म नहीं हुयी | इंसान ने नशे के हालत में भगवान बना डाला | बाद में जब इंसानों के बीच ही झगड़े शुरू हो गए तो खुदा और गॉड का भी जन्म हुआ | अलबत्ता ये कहना ज़रा मुश्किल है कि पहले किसका जन्म हुआ | ज़रूरी बात ये कि उन्हें इंसान ने जन्मा | हँसी कि बात ये रही कि इंसान ने खुदा को जन्म दिया, और चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि खुदा ने उसे जन्मा है | गधापन इंसानों में बहुत था (पुराने वक्त में गधे साथ रहते होंगे शायद), तो सभी इंसान यही मान बैठे | बोले अब कौन जिरह करता रहे, चलो मान लेते हैं कि खुदा ने ही जन्मा है | जब इंसान ने लिखना सीखा तो खुदा-भगवान के नाम से किताबें भी लिखने लगा | कुछ इंसान तो ऐसे निकले कि सुबह उठते ही किसी पहाड़ पर चढ जाते और शाम में कुछ भी लिख कर ले आते | कहते "खुदा ने दिया है"- या तो खुदा खुद लिखता था, या अनपढ़ रहा होगा तो उससे लिखवाता होगा | हज़ारों साल बीत गए, अब तक उसे खुदा की जुबां समझ कर किसी सरफिरे इंसान की बात मान रहे हैं |

कुत्ते क्योंकि पुराने दोस्त थे (साथ में बैठ कर हड्डी जो खाते), उन्हें इंसानों ने पालतू बना लिया | शुरुआत के साढ़े तीन हज़ार साल तक तो कुत्तों को पता ही नहीं चला की माज़रा क्या है | वो समझते रहे कि सबकुछ ठीक चल रहा है, बस इंसान ज़रा खुद से खफ़ा -खफ़ा सा है | वक्त का मरहम लगे तो ठीक हो जाएगा | वो तो उन्हें बाद में पता चला कि ये सबसे खफ़ा है, अपने प्यारे दोस्त कुत्ते से भी! बस पुरानी आदत की वजह से साथ रह रहे हैं | कुत्तों का दिल टूट गया | 

एक वो दिन था, और एक आज का दिन था- आज कुत्तों को वोट देने का हक़ मिला था | 

किसी खुराफाती इंसान के दिमाग की उपज थी कि जम्हूरियत (माने डेमोक्रेसी) में कुत्तों को भी वोट देना चाहिए | वजह ये नहीं थी कि वो अपनी पुरानी गलती सुधारना चाहता था | वजह ये थी कि हिंदुस्तान में इलेक्शन का वक्त था | पिछले कुछ सालों में वोट मांगने के लिए मुद्दे कम से हो गए थे | यूँ कहना बेहतर होगा की हंगामा करने के वजह खत्म हो गए थे | सौ साल पहले किसी अन्ना ने वक्त काटने के लिए कुछ भ्रष्टाचार हटाने की बात कही थी | वो तो कुछ हटा नहीं, जमा रहा वहीँ जहाँ उसे रहना था- हर गली, हर नुक्कड़ पर | आदत कुछ ऐसी हो गयी थी की अब उसके बारे में कोई बात भी नहीं करता था | और जबसे संसद ने सरकारी रूप से मान्यता दी थी, भ्रष्टाचार कोई समस्या ही नहीं रहा | जब तक हुक्मरान कहते रहते थे की ये गैरसरकारी है तब तक वो सबसे बड़ा गुनाह दिखता रहा | जिस लम्हे ये कहा गया कि भ्रष्टाचार सरकारी है, जड़ से ही उखड़ गया | हुक्मरानों ने पहली दफ़ा इमानदारी दिखाई थी |

ये भूमिका इस लिए दी गयी कि आप समझ जाएँ कि हुक्मरानों के पास जब मजाक करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं था तो कुत्तों को वोट देने का हक़ दे दिया | और इस तरीके से सत्ताधारी पार्टी ने (जो खुद एक कुत्तानुमा पार्टी थी) अपने लिए एक नया वोट बैंक तैयार कर लिया |

ये एक बहुत ही समझदारी भरा फैसला था | कुत्ते, जो हमेशा इंसानों के वफादार रहे थे, कभी इंसानों की तरह धोखा तो देते नहीं | बस हड्डी की लालच थी | लेकिन जबसे उन्हें पेडेग्री का चस्का लगा था सत्ताधारी पार्टी को "डीलिंग" ज़रा महंगी पड़ी थी | अब सिर्फ हड्डी लटकाने भर से काम नहीं चला, पेडेग्री के दो-तीन टुकड़े भी फेकने पड़े | हाँ ये अलग बात है कि उन दो-तीन टुकड़ों के लिए कुछ सौ-दो सौ कुत्ते लड़ पड़ते, कभी कभी इंसान भी लड़ पड़ते- आदत भी पुरानी थी और पेट कि भूख भी नहीं मिटी थी | 

इंसानों को ऐसा भी लगा था कि कुत्ते क्योंकि बेजुबान होते हैं, इनकी बात कोई सुनेगा नहीं | सस्ते में निपट जायेंगे और वोट भी दे देंगे | यहाँ गलती हो गयी | कुत्ते बेवकूफ थे लेकिन गधे तो बिल्कुल ही नहीं थे | वोट की बात सुन कर उनके कान खड़े हो गए | रातों रात उनका लीडर भी खड़ा हो गया, पार्टी भी बन गयी "कुत्ता कल्याण समाज (लिबरल)"| शुरुआत में जो इनका सबसे बड़ा नेता बना वो देश के गृह मंत्री का पसंदीदा कुत्ता था | गृह मंत्री साहब ने उसे अपने बच्चे की तरह पाला था, इसलिए वो अपने आप को प्राकृतिक तौर पर कुत्तों का नेता मान बैठा | कुत्तों ने भी उसको इज्ज़त दी और अपना नेता माना | आखिर उसके और गृह मंत्री साहब के अच्छे रिश्तें थे जो पूरे देश के कुत्ते वोट देने का सोच भी रहे थे | 

उधर बिहार के कुत्तों ने भी एक पार्टी बनायीं | उन्होंने एक बहुत जायज़ माँग उठाई- "भों-भों" भाषा को संवैधानिक दर्ज़ा दिया जाए | और क्योंकि बिहार से ही सर्वाधिक प्रशासनिक पदाधिकारी (माने आई.ए.एस ऑफिसर) निकलते थे तो उन्हें भी सरकारी पदों में रिज़र्वेशन दिया जाये | उनके पार्टी का नाम कुकुर पार्टी (मार्क्सिस्ट) रखा गया, बाद में इनका एक आर्म्ड विंग भी बना जिसका नाम कुकुर पार्टी (मार्क्सिस्ट-लेनेनिस्ट) हुआ | कुत्तों में आज़ादी की उम्मीद जग गयी थी | उन्हें ऐसा लगा कि ये मौका है हज़ारों साल के ज़ुल्मात के हिसाब बराबर करने का | हर गली, हर नुक्कड़ पर बात हो रही थी कि अगर उन्हें ये जायज़ हक़ मिल गया तो नतीजा क्या होगा? हर कुत्ता अपने पिल्ले को उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा था | ऐसा लग रहा था हर नुक्कड़ पर हर घंटे पाँच आई.ए.एस पैदा हो रहे हैं | जो गलती इंसानों ने कई साल पहले की थी, कुत्ते अब करने वाले थे!

बात आगे बढ़ी | इलेक्शन नज़दीक आ रहे थे | इंसानों में एक तबका ऐसा भी था जिसे ये सब पसंद नहीं आया | उसे लगा कि ये इंसानों की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ है | उन्हें अपने बारे में बहुत ज्यादा ग़लतफहमी थी | रिजर्वेशन के सौदागर तो खुश हो गए थे | आखिर कब तक हिंदू-मुसलमान के बीच रिजर्वेशन का टेढ़ा-मेढा हिसाब चला कर काम चलता रहता | उन्हें भी वक्त काटने के लिए कोई नया लतीफ़ा चाहिए था | उधर कुत्ते खुश थे कि उन्हें खूब सहूलियत मिल रही है- वो भी "मुफ़्त" में | लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था | इंसानों के एक तबके ने (जो कुत्तों से इस बात से नाराज़ चल रहा था कि वो अब इंसानों को मालिक नहीं मानते थे) एक रात कुत्तों के एक मोहल्ले में धावा बोल दिया | कुत्तों के लिए सब कुछ नया था, इंसानों के लिए पुराना | वो समझ नहीं पाए कि माज़रा क्या है | इंसान रात में अचानक से नाचने-चिल्लाने क्यों लगा? अभी शाम तक तो ठीक था, इलेक्शन के नामांकन की बात करके गया था | कुछ हड्डियों का सौदा हुआ था | लेकिन जैसे ही कुत्तों ने अपने परिवार के बच्चों की लाश देखी, उनके पैर तले ज़मीन सड़क गयी | वो बच्चे जो अभी घंटे भर पहले आई.ए.एस बनने की बात कर रहे थे, वो बच्चे जिन्हें इंसानों ने स्कूल में दाखिला दिलाने का वचन दिया था, वो बच्चे जो ठीक से भों-भों भाषा बोलना भी नहीं सीख पाए थे, वो बच्चे जो असल में बच्चे नहीं, पिल्ले थे- इंसान ने अपने मतलब के लिए उन्हें भी बच्चों की संज्ञा दी थी | कुत्ते जवाबी हमला कर नहीं पाए | कोशिश बहुत की , लेकिन इंसान के वहशीपन के सामने वो मजबूर साबित हुए | जो बच गए वो मरे हुए को देखते रह गए, जो मर गए वो आगे के वहशीपन से बच गए |

अगली सुबह अपने साथ बहुत कुछ लायी | सत्ताधारी पार्टी इस दंगे से बहुत खुश थी | अलबत्ता उसका इसमें कुछ हाथ नहीं था, लेकिन उसे पूरा यकीन हो चला था कि ये दंगा उसे इलेक्शन जीता कर जायेगा | बस उसने अपने वादों का पिटारा खोल दिया | रिज़र्वेशन, हड्डी और पेडेग्री के अलावा भी काफी कुछ दिया, जैसे उम्मीद कि उनके साथ इन्साफ नाम की कोई हरकत की जाएगी | कुछ एक कुत्ते चुन लिए गए जो अपने छेत्र का प्रतिनिधित्व इलेक्शन में करने वाले थे | इंसानों के कुछ पार्टी ने उनका समर्थन भी किया, अब कुत्तों के पास भी वोट देने का हक़ था- समर्थन तो बनता था!

कुछ दिन बीते, इलेक्शन भी बीत चला | गृह मंत्री साहब के कुत्ते की पार्टी ने कमाल कर दिया, इंसानों और कुत्तों दोनों का समर्थन लेकर सर्वाधिक सीट हासिल की | ये सत्ताधारी पार्टी ने सोचा नहीं था | उन्हें तो लगा था की कुत्ते पहली बार इलेक्शन लड़ रहे हैं तो कुछ पाँच-दस सीट निकाल लेंगे, बस! लेकिन यहाँ तो हिसाब ही उल्टा हो गया था | गृह मंत्री साहब का कुत्ता बहुत खुश था की कुत्तों के ऊपर दंगे हुए थे | उन दंगों की वजह से ही ये आश्चर्यजनक नतीजे आये थे | गृह मंत्री साहब भी पुराने खिलाड़ी थे | अपने बच्चे के साथ कुछ "डीलिंग" की और सारे समीकरण बदल दिए |

अगले दिन के अखबार ने कुछ ऐसा लिखा था, "गृह मंत्री का कुत्ता देश का नया प्रधान मंत्री"! 

गृह मंत्री साहब ने अपनी कुर्सी बचा ली थी, कुत्ता अब इंसान बन चुका था |

Thursday, 6 October 2011

वापसी



पटना से वो निकल चुका था | 


सुबह सुबह ही उसके पापा ने उसे तीन बार आवाज़ दे कर उठाया था | माँ भी कई दफा याद दिला चुकी थी कि आज छपरा जाना है दादा-दादी से मिलने | कई रोज़ हुए वो गया नहीं था मिलने | अब दिल्ली में रहने लगा था | पिछले चार सालों में दिल्ली से फ़ोन भी नहीं किया दादा दादी या चचेरे भाई-बहन से बात करने  के लिए | ऐसा नहीं था कि वो बात करना नहीं चाहता था | उसने कई बार फ़ोन करने का सोचा भी, लेकिन हर दफा यह सोच कर रह जाता कि बात क्या करे ? अपने  भाई-बहन से प्यार भी बहुत करता था | उसके छोटे भाई-बहन भी उसे बहुत  मानते थे | जबसे उनके पापा और रोहन के चाचा इस दुनिया को छोड़ कर कही और वक़्त काटने गए, तब से रोहन खुद को चचेरे भाई -बहन के ज्यादा करीब पाता था | लेकिन फ़ोन पर तब ही बात करता था जब पटना आता |

कार में बैठे हुए करीबन एक घंटा बीत गया | वक़्त काटने के लिए वो कहानियों की एक किताब लेकर बैठा था | आगे पापा और ड्राईवर बैठे थे | पीछे माँ  के साथ रोहन गुलज़ार की कहानियों में कुछ किरदार ढूँढ रहा था | "सीमा" पढ़ने के बाद खुद के बारे में सोचने लगा | वो जानना चाहता था कि वो किस कहानी का हिस्सा है?कहानी लिखने का नया शौक चढ़ा था, तो लैपटॉप निकाल कर कुछ टाइप करने लगा | उसकी माँ रह-रह कर एक दफा देख लेती कि आखिर वो कर क्या रहा है | ऐसा नहीं था की उन्हें कुछ समझ आता | लेकिन रोहन कुछ 7-8 महीने बाद घर आया था तो किसी बहाने उससे बात करती रहती थी | मज़ाक में  बोल देती कि उन्हें लैपटॉप पर काम करना सीखा दे ,फिर वो भी फेसबुक पर उसकी खबर रखेंगी! घर के बगल की किसी शैतान बच्ची ने उन्हें फेसबुक का मतलब  समझाया था |

वो सोनपुर से आगे नया गाँव पहुच गए थे | रोहन सोच रहा था कि वो वहाँ जाकर क्या करेगा | शायद कोई और कहानी पढ़ेगा या दोनों बच्चों के साथ वक़्त बिताएगा | छपरा से उसकी बहुत यादें जुड़ी थी | बचपन वहीँ  बीता था | उसे याद आ रहा था जब वो मुजफ्फरपुर में रहा करते थे | उस समय कार नहीं थी तो ट्रेन से घंटो का सफ़र तय करके छपरा जाते | बात तेरह-चौदह साल पहले की है | उस वक़्त घर में बहुत लोग रहा करते थे- दोनों चाचा-चाची, दादा-दादी, सारे बच्चे, और हमेशा  कोई न कोई आता रहता था- कोई रिश्तेदार- कोई पड़ोसी | कुछ ऐसा लगता था जैसे कोई मेला सा लगा हो जहाँ सबकुछ घर में ही मिल जाए- खुशियाँ सबसे ज्यादा |

लेकिन अब सबकुछ बदल गया था | दोनों चाचा की मौत हो चुकी थी | बड़ी चाची ने आत्महत्या की थी | उनका बेटा, और रोहन का पहला चचेरा भाई अब अपने ननिहाल रहता था | दस साल हुए, घर का कोई भी सदस्य शानू से नहीं मिल पाया | चाची के मरने के एक साल बाद बड़े चाचा की मौत हुयी | जब बड़े चाचा की मौत हुई तो शानू के मामा ने बाप को आग लगाने के लिए भी शानू को नहीं आने दिया | रोहन के पापा ने बहुत कोशिश की लेकिन शानू को ला ना सके |  रोहन के एक और छोटे भाई की मृत्यु हुयी थी | फिर छोटे चाचा की मौत भी | ये सबकुछ तीन या चार साल के भीतर हुआ था | कुछ ऐसा लगता था जैसे बसे बसाये घर में सुनामी आ गया  और कुछ रेफ्यूजी से इंसान जिंदा रह गए जो पुरानी यादों को भूल तो नहीं पाते थे लेकिन याद भी नहीं करते थे |

रोहन के साथ दिक्कत थी | उसका बचपन कही उसके जेहेन में छुपा हुआ था जो रह-रह कर उसे याद आता रहता | बहुत प्यार तो वो किसी से नहीं करता था  लेकिन अपने बचपन से उसे बहुत प्यार था | उसका घर उसकी यादों का एक कैनवस था जिस पर उसने अपने जेहेन में एक तस्वीर बना रखी थी | उसके बनाये  तस्वीर पर कोई और अपने रंग चढ़ा दे ये उसे मंज़ूर ना था भले ही वो ज़िंदगी क्यों ना हो | इसलिए उसने बेहतर समझा था सब से पीछा छुड़ा लेने में | शायद  इसलिए किसी से ज्यादा बात नहीं करता था | ये कितना सच है-उसे भी नहीं मालूम |

धीरे -धीरे छपरा नज़दीक आ रहा था और बचपन भी | पटना से करीब 3 घंटे का सफ़र है छपरा का | अब वो शीतलपुर पहुँच गए थे | अचानक से रोहन के चेहरे पर एक स्माइल आ गयी | बचपन में जब भी शीतलपुर से गुजरता तो उसके पापा गाड़ी रोक कर रसगुल्ला  खिलाया करते थे सबको | वहां के रसगुल्लों में क्या खासियत थी, ये तो  नहीं पता लेकिन सब कहते थे अच्छा होता है तो वो भी खा लिया करता |  उसके पापा हमेशा पूछते, "स्पंज खाओगे ?" दरअसल वो रसगुल्ले बहुत ही मुलायम होते, और स्पंज जैसे लगते थे | कोई बहुत ही अलग से रसगुल्ले नहीं हुआ करते थे, लेकिन इतने सालों से खाता आया था तो अच्छे  भी लगने लगे थे | ऐसा ही वो दिल्ली में भी किया करता था जब भी पुरानी दिल्ली में जलेबीवाले के पास से गुज़रता |  उसे वहाँ के जलेबी बहुत पसंद नहीं थे फिर भी जब भी वहाँ से  गुजरता खाता ज़रूर | एक रूटीन सा था उसकी ज़िन्दगी में- शायद उसके पापा से मिला था विरासत में | और ना जाने क्या-क्या उसके पापा को उसके दादा  से मिला होगा | लेकिन पता नहीं क्यों आज उसने रसगुल्ले नहीं खाए | पापा  ने बस पूछा भर | तो उसने सीधे से मना कर दिया | सोनपुर के आगे उसे उलटी हुई थी  इसलिए खाने का मन नहीं कर रहा था | या फिर बचपन से दूरी बनाने की कोशिश कर रहा था |

छपरा नज़दीक आ गया | तबियत ठीक ना मालूम हुई तो रोहन ने आँखें झेप ली | सोचा कुछ देर सो जाएगा तो सफ़र जल्दी ख़त्म होगा | आँखें झेप कर नींद तो  ना आ सकी, यादें आती रहीं | वो बचपन के उन दिनों को याद करने लगा जब हर त्यौहार में पूरा परिवार दादाजी के घर आता था | घर भी बहुत बड़ा  था और बच्चों के खेलने के लिए तो भव्य था |  ना जाने उस घर में कौन-कौन से खेल इजाद किये थे सबने मिलकर | अब तो सिर्फ खयालों में ही मुलाक़ात हो सकती थी सबसे एक साथ | कुछ रिश्तेदारों से रिश्ता टूट गया, तो कुछ का दुनिया से | सबसे ज्यादा मज़ा छठ पूजा में आता जब परिवार के साथ-साथ आस पास के लोग भी घर में आते थे | उसकी दादी छठ पूजा करती थीं | तीन-चार दिन तो ऐसा माहौल रहता था जैसे घर में ओल्म्पिक्स का आयोजन हुआ हो | लम्बे और बड़े से घर में  उधम मचाते रहते थे सब के सब | शाम होती तो सब शिव मंदिर चले जाते जो था घर के पास ही लेकिन नन्ही पावों को बड़ी दूर लगता | सभी  बच्चे  खेलते खेलते चले जाते वहाँ | कोई एक बड़ा होता था उनके साथ उनका ख़याल रखने को | अब रोहन नास्तिक हो गया था |

आँख खुली जब पापा ने बोला छपरा आ गया | 'आये तो वो छपरा थे' ये सोचते हुए रोहन ने आस पास देखा | गाड़ी उस गली में चल रही थी जो बचपन में बहुत ही  बड़ी लगती थी उसे | आज लगा जैसे वो गली बहुत संकरी और छोटी हो गयी है | रस्ते में वो मंदिर तो नहीं दिखा लेकिन उस मंदिर तक पहुचने का रास्ता दिखा | चेहरे  पर मुस्कान आई |

गाड़ी घर के बाहर रुकी | दादाजी कुर्सी पर बैठे थे- हाथ में पंखा लिए- दरवाजे के पास ही | ऐसा लगा सालों से वहीँ बैठे थे- अपने परिवार के इंतज़ार में |  रोहन को कुछ अंतर दिखा ही नहीं वहाँ | सालों पहले भी बाबा वहीँ बैठा करते थे और आज भी वहीँ- उसी कुर्सी पर | रोहन के पापा ने बताया नहीं था कि वो आ रहे हैं- सरप्राइज़ देने का  सोचा था |

कई दिनों बाद बड़े पोते को देख कर दादाजी का गला रूंध गया | बस धीरे से चिल्ला पड़े," ऐ बाबु, देखो भईया मिलने आया  है |”