tag:blogger.com,1999:blog-21549606975409896922024-02-18T20:31:28.506-08:00एक कहानी दिल में है...जो कुछ कहना चाहा, कह नहीं पाया| जो कुछ समझाना चाहा, समझा नहीं पाया| जो कुछ समझना चाहा, समझ नहीं पाया| देखना चाहा कुछ और, कुछ और ही देखता रहा| ख़्वाबों को बुनता रहा| लम्हों को जीता रहा| और एक दिन सबकुछ लिख दिया!Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.comBlogger13125tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-52340682738082737282022-04-28T21:05:00.001-07:002022-04-28T21:05:44.156-07:00महानता का बोझ<p>[एक नॉन-महान इंसान की शॉर्ट फ़िल्म जैसा कुछ, क्योंकि फ़ीचर फ़िल्म महान लोगों के लिए आरक्षित है।]</p><p><br></p><p>वो धीरे-धीरे चल रहा था और चलते-चलते सोच रहा था कि आज का कितना काम बाक़ी रह गया। आज वो एक महान इंसान से मिल कर लौट रहा था।</p><p>महान इंसान ने खाना खिलाते हुए समझाया था कि महानता का दुःख कोई और नहीं समझ सकता। महान इंसान लगातार पृथ्वी को उसकी धूरी पर घूमाता है। कभी-कभी जब सूरज के पास रोशनी कम हो जाती है तो उसको एक दिन की रोशनी उधार भी देता है। नॉन-महान इंसान ये सब सुनता और हाँ में हाँ मिलाता - जैसे महान इंसान के आसपास के लोग मिलाते। महान इंसान कुछ देर के लिए अपने मोहल्ले का भगवान बन जाता। नॉन-महान लोगों को लगता कि वो भी कुछ देर के लिए ख़ास आदमी हो गए हैं।</p><p>महान आदमी की महानता का बोझ इतना होता कि एक समाज का कंधा हमेशा दर्द में रहता। महानता का बोझ नॉन-महान लोगों को उठाना पड़ता है। नॉन-महान लोग अद्भुत होते हैं। इनका कंधा हमेशा थोड़े दर्द में होता फिर भी एक नए आदमी को महान बना देते।</p><p>महानता के बोझ तले दबे इस इंसान को अब लगने लगा था कि किसी और के महान बनने में इसका कोई फ़ायदा नहीं। नॉन-महान इंसान अचानक से अपने पास का बिखरा हुआ संसार देखने लगा था। उसने पाया वो लगतार बीत रहा था। उसके बीतने में किसी की महानता कम नहीं हो रही थी।</p><p>उसने डिसाइड किया कि अब वो महान इंसान से नहीं मिलेगा। महान इंसान को इसकी भनक लग गयी। वो खुद नॉन-महान इंसान से मिलने आया। और उसने पेप्सी आगे बढ़ाया। महान इंसान को पता था कि नॉन-महान इंसान हमेशा पेप्सी के लालच में आ जाता है। महान इंसान के दिए पेप्सी में 5.28 मिलीग्राम अफ़ीम होता है। सरकार इसकी परमिशन भी देती है। ये बिलकुल लीगल है। इलेक्शन के समय इसकी मात्रा 5.28 मिलीग्राम से 10.12 मिलीग्राम तक बढ़ाने का प्रावधान भी है। सरकार और महान इंसान के बीच के इस नेक्सस को समझने वालों की संख्या लगातार कम होती जा रही थी।</p><p>इस नॉन-महान इंसान ने पेप्सी पीने से इनकार कर दिया। कई सालों बाद महान इंसान को किसी ने ना कहा था। महान इंसान ये सह नहीं पाया। उसने सरकार को फ़ोन किया। सरकार महान इंसान के दर्द को समझ गयी। महान इंसान और सरकार ने मिलकर एक इलाज निकाला। उन्होंने नॉन-महान इंसान के घर पानी की जगह अफ़ीम वाली पेप्सी भेजने का इरादा किया।</p><p>अब नॉन-महान इंसान कोई भी नल चलाता तो पेप्सी निकलती। वो समझ गया। उसने ठान लिया कि अब कुछ भी हो जाए वो इस लालच में नहीं फँसेगा।</p><p>महान इंसान की महानता को चैलेंज मिल रहा था। आसपास के बाक़ी नॉन-महान लोगों को सब धुंधला-धुंधला दिखता। वो भी पीठ पीछे आपस में डिस्कस कर रहे थे। महान इंसान को सब समझ में आ रहा था। नॉन-महान इंसानों को वो लगातार पेप्सी पिला रहा था। पेप्सी पीते ही वो सब चुप हो जाते और महान इंसान के चुटकुले पर हँसते।</p><p>लेकिन जिसने पेप्सी पीने से मना कर दिया था वो अब प्यास से मरता जा रहा था। सरकार ने उसकी पानी का सप्लाई बिल्कुल रोक दिया। वो दर-दर भटकता लेकिन कोई पानी नहीं देता। उसने देखा कि असल में पूरा शहर सिर्फ़ पेप्सी पीता है। अब लोग पेप्सी से नहाने भी लगे हैं। लोगों के शरीर पर चींटी रेंग रही है - किसी को कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ रहा।</p><p>एक दिन आया जब प्यास से पागल इस नॉन-महान इंसान के सामने महान इंसान 1.5 लीटर की पेप्सी की बोतल लेकर आया। अपने पागलपन में नॉन-महान इंसान को सब साफ़-साफ़ दिखने लगा था।</p><p>महान इंसान ने बोला, “ज़िंदा रहना है तो पेप्सी पीनी ही पड़ेगी।”</p><p>नॉन-महान इंसान ने जवाब दिया, “अब मुझे सब साफ़ दिख रहा है। तुम्हारे महानता के बोझ से मेरा कंधा टूट गया है। मैं मर जाऊँगा लेकिन पेप्सी नहीं पियूँगा।”</p><p>महान इंसान ने हंसते हुए एक गिलास पानी पिया। वो पेप्सी कभी नहीं पीता था। नॉन-महान इंसान मुस्कुराते हुए वहीं मर गया। बहुत सारे नॉन-महान इंसान एकत्रित हुए। महान इंसान सबको रोता हुआ दिखा।</p><p>महान इंसान ने बोला, “ये कोई आम आदमी नहीं था। ये बहुत महान इंसान था।”</p>Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-31687633440891988912020-10-18T22:06:00.001-07:002020-10-18T22:06:45.191-07:00संतरे का बीज खाने से पेट में संतरे का पेड़ उग जाता है <p dir="ltr" id="docs-internal-guid-dfbf9ef7-7fff-ddef-6c5f-b54f50d3161e">सुबह का समय है।</p><p dir="ltr">रोहन कल रात जब सोया तो उसने सोचा कि 'नींद कैसे आती है' को देखेगा। नींद को आते देखना उसका सबसे बड़ा एडवेंचर था। रोज़ कोशिश करता कि आज देख ही लेगा नींद कैसे आती है। रोहन के लिए ये एक बड़ा सवाल था। उसने बहुत लोगों से पूछा भी, जवाब कोई ठीक से नहीं दे रहा था।</p><p dir="ltr">“मम्मी, नींद कैसे आ जाती है?”</p><p dir="ltr">“जब हम सोने जाते हैं तो आ जाती है।”</p><p dir="ltr">“वो तो हमको भी पता है। लेकिन आती कैसे है? पैदल, या कार में? या दादाजी की तरह ट्रेन में?”</p><p dir="ltr">रोहन के इस मासूम सवाल को सुन कर माँ को हँसी आ गयी। अब इस बात का जवाब कोई कैसे दे कि नींद का mode of travel क्या है! लेकिन सवाल अपनी जगह सही भी है - अगर कोई कहीं आता है तो किसी तरह से तो आता होगा। नींद भी आती है, और रोहन को बहुत नींद आती है। वो बस उसे पकड़ना चाहता था कि बैठ कर उसे समझा दे कि ‘देखो नींद, रात में ही आया करो। दिन में मत आओ। स्कूल में तो बिलकुल ही मत आओ। इंग्लिश मैडम बहुत ग़ुस्सा करती हैं। शाम में भी मत आया करो। दोस्तों के साथ खेलने का समय होता है। तुम तो बस रात में आया करो।’ लेकिन नींद शैतान मिले तब तो! वो चुपके से आती और रोहन को चुपके से सुला कर भाग जाती।</p><p dir="ltr">सुबह हुयी तो फिर वही अफसोस 'अरे, आज फिर नींद को आते नहीं देख पाए।' और इसी अफसोस के साथ वो स्कूल जा रहा था।</p><p dir="ltr">रोहन की उम्र आठ साल है। उसके मोटे-मोटे संतरे जैसे गाल हैं। लोग बिना permission उसके गाल पकड़ लेते। रोहन को ये बिलकुल पसंद नहीं। गाल उसके अपने हैं। कोई और क्यों पकड़ेगा? और पकड़ कर अजीब तरह से खींच लेता है बोलते हुए कि ‘अरे रोहन तुमरा गाल तो संतरे की तरह है!’ ये कुछ चीजें हैं जो रोहन बहुत seriously सोचता है। वो लोगों को इन बातों पर जज भी करता है कि कौन कितना अच्छा दोस्त बन सकता है। अच्छी बात ये कि उसकी क्लास में कोई भी ऐसी हरकत नहीं करता। ये बस बड़े लोग करते हैं।</p><p dir="ltr">“बैग में टिफ़िन रख दिया है। खा लेना। बिना खाये टिफ़िन लेकर वापस मत आ जाना।” स्कूल बस के रास्ते में माँ रोहन से बातें कर रही थी।</p><p dir="ltr">"तुम भिंडी मत दिया करो टिफिन में। वो तो घर पे खाने का होता है। स्कूल के लिए कुछ अच्छा देना होता है।" रोहन बोरिंग खाने से परेशान रहता था। बहुत दिन से सोच रहा था कि माँ को साफ साफ बता देना ही ठीक है। आज उसने बोल दिया।</p><p dir="ltr">"आज सिर्फ फ्रूट्स दिए हैं। संतरा और सेब। खा लेना। चलो बस आ गयी है। जल्दी से पकड़ लो।"</p><p dir="ltr">रोहन पटना में रहता है। उसका स्कूल उसके घर से बहुत दूर नहीं है। लेकिन रोहन को ऐसा लगता है कि बहुत दूर है। उसकी छोटी-छोटी आंखों में सब बड़ा दिखता है। ये तो अच्छा है कि बस में अंकित भी होता है। तो रास्ता जल्दी कट जाता है।</p><p dir="ltr">"रोहन! रोहन!" अंकित पीछे वाली सीट पर रोहन का इंतज़ार कर रहा था। स्कूल बस में पीछे की सीट बड़े क्लास के स्टूडेंट्स के लिए रिज़र्व रहती थी। लेकिन आज अंकित वहाँ पहले से बैठा था।</p><p dir="ltr">"आज पीछे का सीट कैसे मिल गया?" रोहन बहुत खुशी में पीछे पहुँच कर पूछा।</p><p dir="ltr">"पता नहीं यार। आज तो कोई आया ही नहीं। हम देखे खाली है तो जल्दी से आ गए और तुम्हारे लिए भी सीट रिज़र्व कर लिए।" अंकित ने पूरी बात को समझाया।</p><p dir="ltr">"पीछे से तो सब बिल्कुल अलग जैसा दिखता है। ड्राइवर अंकल और दूर चले गए…"</p><p dir="ltr">"बाहर देखो। ये वाला खिड़की बड़ा है। सर भी बाहर जा सकता है…" अंकित ने सर को बाहर निकालते हुए कहा।</p><p dir="ltr">रोहन थोड़ा डर गया। "सर बाहर मत निकालो अंकित, प्लीज।"</p><p dir="ltr">अंकित बाहर हवा से बातें करने लगा। अंकित कभी भी कहीं भी किसी से भी बात कर लेता था। वो सबका दोस्त था। हवा के साथ भी दोस्ती कर ली। "हवा हवा… तुम किधर जाती है?"</p><p dir="ltr">"मैं तो हवा हूँ ना अंकित। मैं सब जगह जाती हूँ।"</p><p dir="ltr">"तुमको कहीं जाने के लिए बस नहीं लेना होता?"</p><p dir="ltr">"नहीं। मैं तो उड़ के चली जाती हूँ। तुम भी चाहो तो उड़ सकते हो।"</p><p dir="ltr">"रोहन, तुमको पता है हम भी चाहें तो उड़ सकते हैं!" अंकित ने सर को अंदर लाते हुए कहा।</p><p dir="ltr">"कहाँ उड़ सकते हैं?" रोहन को समझ नहीं आया।</p><p dir="ltr">"अभी हवा हमको बतायी कि अगर हम चाहें तो उड़ सकते हैं जैसे हवा उड़ती है।"</p><p dir="ltr">"तुम हवा से भी बात कर सकते हो?" रोहन ने पहले भी अंकित को सबसे बात करते हुए देखा था। कभी पेन से, कभी पेपर से। एक बार अंकित टिफिन बॉक्स से भी बात कर रहा था। और उसने टिफिन बॉक्स को बोला, "कुछ अच्छा खाना खिला दे यार टिफिन!", और टिफिन बॉक्स से पिज़्ज़ा निकला था। उस दिन से रोहन ने मान लिया था कि अंकित किसी से भी बात कर सकता है। लेकिन अंकित को हवा से बात करते हुए पहली बार देख रहा था।</p><p dir="ltr">"हाँ। हम हवा से भी बात कर लेते हैं। हवा ने बोला है कि अगर हमारा मूड करे तो हम उड़ सकते हैं। ये तो अच्छा बात पता चल गया। बहुत दिन से सोच रहे थे कि उड़ने का कैसे प्लानिंग करना होगा। जल्दी मूड बना कर उड़ना चाहिए।" अंकित को नया काम मिल गया था।</p><p dir="ltr">"हमारा मूड नहीं है। बाद में उड़ेंगे।" रोहन उड़ने से डर रहा था। उसने अब तक उड़ने का सपना भी नहीं देखा था। रोहन कुछ भी करने से पहले उसका सपना देखता है। फिर उसे कर लेता है। इसलिए नींद उसे बहुत पसंद भी है।</p><p dir="ltr">रोहन और अंकित स्कूल पहुँच गए। अंकित सबका फेवरेट है लेकिन ये बात कि वो किसी से भी बात कर सकता है बस रोहन को पता है। क्लास में भी अंकित रोहन के साथ ही बैठता है। रोहन अंकित को किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहता।</p><p dir="ltr">"अंकित, क्या हम तुम्हारे पास बैठ जायें?" श्रेया ने एक दिन अंकित से पूछा। अंकित ने रोहन को बताया कि श्रेया उसके पास बैठना चाहती है। रोहन ने कुछ नहीं कहा। लेकिन वो ये बात सह नहीं पाया।</p><p dir="ltr">"अगर श्रेया तुम्हारे पास बैठेगी तो उसको तुम्हारे सुपरपावर के बारे में पता चल जाएगा। फिर वो सबको बता देगी। हमको कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन तुम देख लो…" रोहन ने अपने तरफ से पूरी कोशिश की कि श्रेया अंकित के पास ना बैठे।</p><p dir="ltr">"श्रेया को पता चल जाएगा तो कोई बात नहीं। हम उसको बता देंगे। वो अच्छी है। किसी को नहीं बताएगी।" अंकित को बहुत क्लैरिटी थी। रोहन के लिए ये सबसे दुखद दिन था। पहली बार अंकित और रोहन के बीच कोई और आ गया था। रोहन उठ कर किसी और सीट पर बैठ गया। टिफिन ब्रेक में दूर से उसने देखा तो अंकित और श्रेया पिज़्ज़ा खा रहे थे। ये देखते ही रोहन रो पड़ा।</p><p dir="ltr">उसके तीन दिन बाद तक रोहन को बुखार था।</p><p dir="ltr">फिर बुखार ठीक हो गया। और उसने मान लिया कि क्लास में भले ही अंकित श्रेया के साथ बैठता है लेकिन बस में उसके लिए सीट रिज़र्व कर के रखता है।</p><p dir="ltr">अब टिफिन के समय अंकित, रोहन और श्रेया साथ ही खाना भी खाते हैं।</p><p dir="ltr">"आज क्या लाये हो टिफिन में रोहन?" श्रेया ने पूछा।</p><p dir="ltr">"आज फ्रूट्स लाये हैं। संतरा और सेब। तुमलोग भी खाओ।" रोहन हमेशा खाना शेयर करता है।</p><p dir="ltr">"संतरा हमारा फेवरेट है!" अंकित बहुत खुश हो गया।</p><p dir="ltr">"सच में?" रोहन को ये बात पता ही नहीं थी। उसे हर दिन कुछ नया पता चलता था अंकित के बारे में।</p><p dir="ltr">"हाँ, अंकित का फेवरेट तो संतरा ही है।" श्रेया टिफिन से संतरा उठाते हुए बोली। रोहन थोड़ा दुःखी हुआ कि श्रेया को ये बात पहले से पता थी।</p><p dir="ltr">"हमारा फेवरेट सेब भी है। ये बस रोहन को पता है।" अंकित ने ये बात रोहन को देखते हुए बोला। "पहले तो हमलोग बहुत सेब खाते थे जब भी रोहन टिफिन में लाता था।"</p><p dir="ltr"> रोहन के चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी। उसे याद आया कि जब वो अंकित के साथ बैठा होता तो वो बहुत हँसता भी था।</p><p dir="ltr">"तुमलोग एक बात जानते हो, हमलोग जो भी फ्रूट खाते हैं अगर गलती से उसका बीज खा लोगे तो उसका पेड़ हमारे पेट में उग जाता है।" अंकित ने संतरे का बीज निकालते हुए बोला।</p><p dir="ltr">"सच में?" श्रेया को विश्वास ही नहीं हुआ।</p><p dir="ltr">"हाँ। ऐसा ही तो होता है। सब जानते हैं। तुमको नहीं पता?" अंकित के लिए ये बहुत आम बात थी।</p><p dir="ltr">"नहीं। हम तो ऐसा नहीं सुने। कोई नहीं बोला।" रोहन को भी यकीन नहीं हो रहा था।</p><p dir="ltr">"अरे, सबको पता है। इसलिए हमलोग बीज नहीं खाते। फेंक देना होता है। नहीं तो पेड़ निकल जाएगा।"</p><p dir="ltr">रोहन संतरा खा रहा था। ये सुनते सुनते उनके मुँह में बीज आ गया। वो समझ नहीं पा रहा था कि अब इस बीज का क्या करना है। वो हमेशा बीज फेंक देता है, लेकिन अभी पहली बार उसको ये बात पता चली है। रोहन ने सारे बीज मुँह से निकाले और फेंक दिए।</p><p dir="ltr">लेकिन एक बीज मुँह में ही रखा। वो चाह कर भी नहीं फेंक पाया।</p><p dir="ltr">पूरे दिन, सारे क्लास में वो बीज उसके मुँह में ही था। रोहन थोड़ा डर भी रहा था। लेकिन ये सोचना भर उसे बहुत रोमांच दे रहा था कि ये संभावना भी है कि उसके पेट में संतरे का पेड़ उग सकता है।</p><p dir="ltr">अचानक गलती से उसने वो बीज निगल लिया।</p><p dir="ltr">बीज निगलते ही रोहन के दिल की धड़कन बढ़ गयी। वो डर गया। उसको ऐसा लगा कि उसके पेट में कुछ तो हुआ है। लेकिन क्या, वो नहीं जानता था।</p><p dir="ltr">"क्या हो गया तुमको? तुम्हारा तबियत ठीक नहीं लग रहा है?" छुट्टी के समय अंकित ने रोहन से पूछा। </p><p dir="ltr">रोहन ने सोचा कि अंकित को सच बता दे कि उसने बीज खा लिया है। ये बताने से उसके पेट का दर्द ठीक हो जाएगा। लेकिन वो बोल नहीं पाया। "बस थोड़ा सा पेट दर्द हो रहा है। ऐसे ही। ज़्यादा नहीं। अभी ठीक हो जाएगा।"</p><p dir="ltr">"कुछ ज़्यादा दर्द हो तो बताओ। हम तुम्हारे पेट से बात कर लेते हैं?" अंकित पेट से बात करके पेट को बोल सकता था कि 'पेट, दर्द मत करो।' और पेट ये बात मान भी जाता।</p><p dir="ltr">"नहीं। पेट से बात मत करो। पेट थोड़ा रेस्ट कर रहा है।" रोहन फिर से डर गया। वो नहीं चाहता था कि अंकित को पता चल जाये कि रोहन के पेट में बीज है। पेट तो सब सच बता देगा। और अंकित ने मना भी किया था कि बीज नहीं खाना चाहिए।</p><p dir="ltr">रोहन घर पहुँचा। उसके पेट का दर्द बढ़ता जा रहा था। लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। उसने धीरे से अपने पेट से बोला "पेट, दर्द मत करो।"</p><p dir="ltr">लेकिन पेट की भाषा तो बस अंकित को पता थी। रोहन की बात पेट क्यों मान लेता।</p><p dir="ltr">शाम में रोहन ने अपनी माँ से बात करने की कोशिश की। "मम्मी, संतरा खाने से पेट में संतरे का पेड़ उग जाता है?"</p><p dir="ltr">माँ ने हंसी में कह दिया "हाँ, उग तो जाता है लेकिन अगर संतरे का बीज खाओगे तो। सिर्फ़ संतरा खाने से कुछ नहीं होता।'</p><p dir="ltr">रोहन सन्न रह गया। उससे गलती हो गयी थी। उसको बीज नहीं निगलना चाहिए था।</p><p dir="ltr">रात में रोहन को एक सपना आया। उसने सपने में देखा कि उसके हाथ पर एक पत्ता उग आया है। ध्यान से देखा तो उसके मुँह से एक टहनी निकल रही थी। एक और टहनी। फिर कहीं कुछ और पत्ते। और सबसे अंत में उसने देखा कि एक टहनी पर एक संतरा उग आया है।</p><p dir="ltr">रोहन संतरे का पेड़ बन चुका था।</p><p dir="ltr">नींद खुली तो वो अपने बिस्तर पर ही था। "बस सपना ही था!" रोहन खुश हुआ कि वो अब भी रोहन है।</p><p dir="ltr">लेकिन…</p><p dir="ltr">रोहन की नज़र उसकी कोहनी पर गयी। वहाँ एक छोटा सा पत्ता उग आया था। रोहन डर गया।</p><p dir="ltr">रोहन ने सारा काम जल्दबाज़ी में निपटाया। माँ से पहले ही घर से निकल गया। माँ पीछे। रोहन आगे। स्कूल बस के आने से पहले ही स्कूल बस में चढ़ने की तैयारी करने लगा। माँ को भी समझ नहीं आया कि बात क्या है।</p><p dir="ltr">"अंकित, पता है…" स्कूल बस में चढ़ते ही रोहन ने अंकित से बात करनी चाही।</p><p dir="ltr">"रुको, एक चीज़ दिखायें तुमको?" अंकित ने एक कॉपी निकाल रखी थी। "हम बहुत दिन से कोशिश कर रहे थे। अपने कॉपी में मोर पंख रखे थे। उसको चॉक खिलाये। आज सुबह मोर पंख डबल हो गया!"</p><p dir="ltr">रोहन सबकुछ भूल कर मोर पंख को देखने लगा। "ये तो बहुत सुंदर है!" </p><p dir="ltr">"हाँ। अब हम इसको दो का चार कर देंगे। फिर तुमको गिफ्ट करेंगे।" </p><p dir="ltr">रोहन अंदर ही अंदर रोने लगा। अब वो अंकित से गिफ्ट नहीं ले पायेगा। पेड़ बन कर तो बस किसी एक जगह खड़ा रहना होगा। पेड़ तो चल नहीं सकते।</p><p dir="ltr">"अंकित, अगर कोई पेड़ बन जाये तो क्या करना चाहिए?" रोहन ने उदास चेहरे से अंकित से सवाल किया।</p><p dir="ltr">"पेड़ तो बहुत मुश्किल से बनते हैं। उतना आसान नहीं है। हम भी कभी कभी कोशिश करते हैं। किसी को बताना मत। श्रेया को भी नहीं…" अंकित ने रोहन को करीब लाकर एक ज़रूरी बात बतायी। "हम संतरा का बीज खा लेते हैं कभी कभी। सोचो, अगर संतरा का पेड़ बन गए तो कितना अच्छा हो जाएगा। कभी संतरा खरीदना नहीं पड़ेगा। जब मन करेगा खा लेंगे। और सबसे ज़रूरी बात पता है?"</p><p dir="ltr">"क्या?"</p><p dir="ltr">"पेड़ बन कर बाकी लोग को ऑक्सीजन दे सकते हैं।" अंकित के चेहरे पे एक चमक आ गयी।</p><p dir="ltr">रोहन पूरे दिन सोचता रहा कि क्या करे। अंकित चाह कर भी पेड़ नहीं बन पा रहा। और रोहन धीरे धीरे पेड़ बनता जा रहा है। उसने देखा अब उसके हाथ और पैर पर पत्ते उग चुके थे। उसने महसूस किया कि उसके मुँह से एक टहनी निकल रही है। कल रात जो उसने सपना देखा था, आज वो सच होने लगा था।</p><p dir="ltr">अब रोहन को समझ आ गया कि क्या करना है।</p><p dir="ltr">स्कूल की छुट्टी के बाद रोहन अकेले स्कूल से बस थोड़ी दूर एक सुनसान जगह जाकर खड़ा हो गया। उसने अंकित को अलविदा भी नहीं बोला। वो जानता था कि अंकित उसको ऐसे जाने नहीं देगा। और ये भी जानता था कि अंकित तो जब चाहे उससे बात कर लेगा। अंकित तो पेड़ों से भी बात कर लेता है।</p><p dir="ltr">रोहन उस जगह खड़े होकर संतरे का पेड़ बन गया। अब वो ऑक्सीजन लेता नहीं, पूरी दुनिया को ऑक्सीजन देने लगा।</p><p dir="ltr">लेकिन, बहुत देर इंतज़ार के बाद भी अंकित नहीं आया। रोहन अब वहाँ से हिल नहीं सकता था। उसके पैर से जड़ें निकल कर ज़मीन में जा चुकी थीं। वो अब जीवन भर वहीं खड़ा रहने वाला था।</p><p dir="ltr">_____</p><p dir="ltr">पंद्रह साल बाद।</p><p dir="ltr">अंकित अब कॉलेज जा चुका है। स्कूल खत्म हुए काफी समय बीत गया है। एक दिन अंकित ऐसे ही स्कूल घूमने आया है। वही इमारत। पुरानी यादें। पुराने दोस्त। </p><p dir="ltr">पूरे दिन स्कूल के अंदर घूमने के बाद, अंकित यूँ ही सड़क पर चलने लगा। श्रेया भी उसके साथ ही है। पैदल चलते हुए वो दोनों एक सुनसान जगह पहुँचे। अंकित अपने स्कूल के असपास सबकुछ इत्मीनान से देखना चाहता है।</p><p dir="ltr">"अरे, ये कितना सुंदर पेड़ है!" अंकित ने श्रेया को बोला।</p><p dir="ltr">"हाँ। हमलोग ने ये कभी देखा क्यों नहीं?" श्रेया भी इस पेड़ को नहीं पहचानती थी। ये बिल्कुल ऐसा है जैसे वो कुछ नया डिस्कवर कर रहे हों।</p><p dir="ltr">"हम इस तरफ़ नहीं आया करते थे, इसलिए।" अंकित पेड़ के करीब जाते हुए बोल रहा है।</p><p dir="ltr">तभी अचानक तेज़ हवा चली।</p><p dir="ltr">"आंधी जैसा आने वाला है। अजीब हवा है यार। अचानक से मौसम बदल गया।" अंकित के लिए अब हवा सिर्फ हवा या तेज़ हवा है। कुछ और नहीं।</p><p dir="ltr">"जल्दी चलो।" श्रेया ने अंकित को बोला।</p><p dir="ltr">और पता नहीं कैसे, कुछ संतरे ज़मीन पर गिर गए।</p><p dir="ltr">"अरे, तुम्हारे फेवरेट संतरे!" श्रेया हंसने लगी। अंकित को समझ नहीं आया कि ये संतरे अचानक कैसे गिर गए। उसने पेड़ को देखा। बहुत ध्यान से देखा। फिर कुछ संतरे उठाये। मुस्कुराया। पेड़ को अंतिम बार देखा और लौट गया।</p>Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-17369046638377842412019-12-01T03:11:00.001-08:002020-01-31T01:57:20.353-08:00End Notes<div>End Note 1</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_ncrePgb4XG0yvdfE7ufbumefyzkcKqG7Z_pqsnsY32gyOmhCmS5UGkbN-it3TjG-gPPfx_yDW2-4XDemu1erABA10rMzJdEP9EbnI9GKZD_GWMRPvtH18h6F9US28NMD7mtkz89ninVJ/s1600/1575198682417953-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div>मेरी आँखें सच में कभी बंद हो जाएंगी। और फिर कभी नहीं खुलेंगी। मैं मरूँगा। अपने अंतिम क्षणों में मेरा पश्चाताप क्या होगा? इस सवाल को हमेशा तो नहीं सोचता, लेकिन कभी-कभी ज़रूर सोचता हूँ।</div><div><br></div><div>मैं अपने बहुत सारे इक्कठा किये गए किताबों को नहीं पढ़ सकने का दुःख मनाऊंगा। मैं अपने हार्ड-ड्राइव में अनदेखे फिल्मों को नहीं देखने का शोक मनाऊंगा। मैं ठीक से प्रेम नहीं कर पाया, इस बात से दुखी रहूँगा। मैं कुछ लोगों से बहुत कुछ कहना चाहता था। उनसे ना कह पाने का दुःख रहेगा। मैं सबसे पहले एक क्रिकेटर बनना चाहता था। फिर पत्रकार। बीच में टेबल-टेनिस प्लेयर भी। लेकिन कुछ भी पूरा नहीं चाहता था। अब भी जो भी चाहता हूँ उसे पूरा नहीं चाहता। मैं घर से जब भी निकलता हूँ पूरा नहीं निकलता। मेरा कुछ हिस्सा घर में रह जाता है। जब कोई रिश्ता ख़त्म होता है, तो मेरा कुछ हिस्सा किसी के पास छूट जाता है। मरते वक़्त ये दुःख भी हो सकता है कि मैं पूरा नहीं मरा। मेरे बहुत हिस्से बहुत लोगों के पास ज़िंदा रह जाएंगे। लेकिन इस बात से खुश भी हो सकता हूँ कि मेरे मरने के बाद लोग कुछ दिन तक मुझे याद रखेंगे। फिर वो भूल जाएंगे, जैसे मैं बहुत लोगों को भूल चूका हूँ। भूलना ज़रूरी है, वरना सर-दर्द बहुत बढ़ जाएगा।</div><div><br></div><div>मुझे सुसाइड नहीं करना। लेकिन मुझे सुसाइड नोट लिखना पसंद है। हर सुसाइड नोट तब तक के जीवन का सार होता है; एक पड़ाव होता है। और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन। </div><div>मैं इस जीवन में बहुत सारे सुसाइड नोट लिखना चाहता हूँ। सुसाइड नोट विराम हैं, मृत्यु पूर्ण विराम।</div><div><br></div><div>-10.4.2016</div><div>__________</div><div><br></div><div>End Note 2</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjv5dQqnH2tbVQ3WLPp903GXcy-FDuiEg3vhnu62cc-V2dpvJKS5Sn3S3QW5gGa2WZrS6XtGNK2zdPgV8n3HOuxg7U5oHshYHHHgvdnWk8wnmZRJOzfDQxDyR6IO-uPdtUyz3S5ehfW4qoI/s1600/1575198678043245-1.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><div>मैं कई दिनों से कुछ महान लिखना चाह रहा था... कुछ ऐसा जिसे पढ़कर तुम धन्य हो जाओ। कुछ ऐसा जो तुम्हारे सामने मुझे फिर से महान बना दे - लेकिन मैं ऐसा ना कुछ लिख पाया, ना कह पाया।</div><div><br></div><div>लेकिन मैं लगातार महान लोगों से मिलता रहा। सच बताऊँ तो उनसे मिलकर मैं धन्य नहीं हो पाया। वो भी लगातार, अनवरत कोशिश कर रहे थे कुछ महान कहने की... कुछ अद्भुत सा कर देने की। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उनकी महानता के बीच भी चावल-दाल के दाम में कोई बदलाव नहीं आया। वो महान बने रहे, लेकिन मेरे ऑटो के भाड़े में कोई फर्क नहीं आया। उनकी महानता के किस्से सुनकर भी ऑटो 18 रुपये से ही डाउन हुआ। ओला और उबर में सर्ज प्राइस आता रहा।</div><div><br></div><div>दुनिया की सभी महान कहानियों को सुनकर भी कहीं कुछ नहीं बदला। मुझे कभी-कभी लगता कि इतनी महानता के बीच मैं भी सिर्फ कुछ बोल कर निकल लूँगा। लेकिन जब-जब मैंने कुछ बोलने भर की कोशिश की, मुझे एक झूठ की दुर्गन्ध सुनाई दी। महानता का झूठ कितना बड़ा है! महानता के ठीक बीचोबीच किसी को ये दुर्गन्ध सुनाई नहीं दे रही। क्योंकि दुर्गन्ध की आदत हो गयी है।</div><div><br></div><div>हमारे सभी धर्मों में भगवान लगातार महान हैं। मरने के बाद सभी राजनेता महान हैं। हमारे दादा, परदादा, पिता, बड़े भाई, माँ - सभी लगातार महानता का चोला ओढ़े हुए रहते हैं। और इस सभी महानता के बीच मुझे महान होना सबसे आम नज़र आया। क्या ऐसा हो सकता है कि मैं और तुम वैसे मिलें जैसे की हमें मिलना था? आम होकर। अपनी बहुत सारी कमियों के साथ जीना आसान नहीं होता क्या? महानता के बोझ से दब कर हमारी दोस्ती दम तोड़ देगी।</div><div><br></div><div>राम के ऊपर महान होने का इतना बोझ था कि सीता को छोड़ना पड़ा। क्या हमारे समय में ऐसा राम नहीं आएगा जो सीता के साथ सिर्फ इसलिए खड़ा रहे कि वो उससे प्यार करता है? महान होने का मूल्य अगर अपने प्रेम को खोना है तो ऐसी महानता किस काम की?</div><div><br></div><div>काश हमारे आदर्श कम महान लोग होते तो शायद ये दुनिया जीने की लिए और बेहतर हो जाती।</div></div><div><br></div><div>6.9.2019</div><div>__________</div><div><br></div><div>End Note 3</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijv8Q6qD2mL2SmDmci3ObtZFFN5Ly2Vyvy7RVfWFooNIgbnqqEnS-WFLuEi0Z2OsiZBTJmlpPtctE5GxTGykBpJiHlgDqVeB5pE0N3-pmKPbaG9Tc_M-Q3hOmgF5n7le-w3MBio4A3ueSM/s1600/1575198674364872-2.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><div>मैं पाश की कविता को कई-कई दिनों तक दोहराता हूँ- 'मैं अब विदा लेता हूँ'...</div><div><br></div><div>किसी नए व्यक्ति से मिलता हूँ, और जब हमारे पास बात करने को कुछ नहीं होता, तो मैं उस खाली समय में पूछता हूँ, "क्या तुमने पाश की कविता पढ़ी है?"</div><div><br></div><div>"कौन सी कविता?"</div><div><br></div><div>"अब विदा लेता हूँ।"</div><div><br></div><div>"नहीं। ये तो नहीं पढ़ी।"</div><div><br></div><div>"ओह। मैं पढ़ दूँ?"</div><div><br></div><div>"हाँ..."</div><div><br></div><div>और मुझे नहीं पता मैंने कितने लोगों को ये कविता सुनाई है। कई लोग तो कविता सुनना पसंद भी नहीं करते। और ये एक बेहद लंबी कविता है। इस कविता के ख़त्म होते तक उनकी कॉफी भी ख़त्म हो जाती थी। गले तक जीवन से भरी हुई कविता।</div><div><br></div><div>मुझे हमेशा लगता कि मैंने एक नाटक ख़त्म किया है। मेरे लिए इस कविता को पढ़ना एक परफॉर्मेन्स होता। और मैं कोशिश करता बेहद ईमानदारी से इसे पढूँ। बिना किसी झूठ के। हम कई बार अपने झूठे समझ से परफॉर्म कर रहे होते हैं, कि सामने वाला रो दे। या हँस-हँस के पागल हो जाए। जो जैसा है उसको वैसा नहीं कर पाते।</div><div><br></div><div>और मैं कई बार दुखी हुआ हूँ जब सामने वाले ने औपचारिक तारीफ़ के बाद बोला है, "कितना डिप्रेस्ड था पाश। Suicidal है ये कविता।"</div><div><br></div><div>मैंने ज़िन्दगी, प्रेम और संघर्ष की इससे खूबसूरत कविता नहीं पढ़ी है। इस कविता में पाश जीना चाहता है। कितना आसान है ज़िन्दगी की चाहत रखने वाले इंसान को suicidal बोल देना? ज़िन्दगी का समूचापन एक अंत तो मांगता है। लेकिन एक कवि का अंत कवि decide करता है। और वो कई सदियों तक अपनी कविता में ज़िंदा भी रह सकता है। ये अमर होने की प्रक्रिया है जो किसी और के पास नहीं है - सिर्फ एक लेखक, एक कवि के पास है।</div><div><br></div><div>हमें हर कहानी का अंत चाहिए। एक बेहद romantic आदमी अंत में विश्वास नहीं रखता होगा शायद। क्योंकि अंत तो real है। लेकिन हम सभी को सभी कहानियों में अंत ढूंढना है। वरना हमारे समझ की arc अधूरी रह जाएगी।</div><div><br></div><div>अब विदा लेता हूँ</div><div>मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ</div><div>मैंने एक कविता लिखनी चाही थी</div><div>सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं</div><div>-----</div><div>उस कविता में</div><div>तेरे लिए</div><div>मेरे लिए</div><div>और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त</div><div>लेकिन बहुत ही बेस्वाद है</div><div>दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना</div><div>-----</div><div>तुम्हें</div><div>मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को</div><div>और युद्ध के समूचेपन को</div><div>एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ</div><div>और अब मैं विदा लेता हूँ</div><div>-----</div><div>तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त</div><div>सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी</div><div>कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था</div><div>मेरे भी हिस्से का जी लेना</div><div>मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना...</div></div><div><br></div><div>18.9.2019</div><div>__________</div><div><br></div><div>End Note 4</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjg6WATrYyg4cP307KDfrLUAyB4TR0FexEM-XCGOUqJtYPZPsI7f8ka5DGv2rvB-FoUEO0RdPjpB7a_rmSCFlI34_wGPfWpQYFXihwUWFJaPmx60CZt1Ls8nVGARjvjPzMFZjHnLBN3Id_z/s1600/1575198668506905-3.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><div>मैंने पाया है कि हम सब एक आदत से बंधे हुए हैं। ना चाहते हुए भी हमारी आदतें हमारे साथ ही रहती हैं। जैसे कि ऑफिस जाने की आदत। अगर हमसे ये आदत छीन ली जाए तो अचानक से सबकुछ निरर्थक लगने लगेगा।</div><div><br></div><div>शुरुआत में शायद लगे कि वाह! सब कितना बढ़िया है। मैं यही तो करना चाहता था! जीवन जीना इसे ही तो कहते हैं। लेकिन हमारे अंदर का control freak तुरंत से सबकुछ एक ढांचे में चाहेगा। सब कुछ का एक schedule होना चाहिए - कुछ ना करने का एक बेहतरीन schedule हम तुरंत से बना लेंगे। हम इंसान हैं। हमें सभी चीजों पर अपना control चाहिए - दोस्त पर, ऑफिस में, शहर में, देश पर, धरती पर... चाँद और मंगल पर।</div><div><br></div><div>ये जानते हुए कि इन सबका कुछ खास मतलब नहीं है, हम लगातार एक रेस का हिस्सा हैं। बिन दौड़े हम जी नहीं सकते। दौड़ना हमारी आदत है। जैसे ही एक इंसान इस दौड़ में थोड़ा सा भी सुस्ताने लगता है, पूरी इंसानी civilisation उसको दौड़ने के लिए उकसाती है। एक तंत्र तैयार है आपको दौड़ाने के लिए - loan, EMI, दोस्तों की सफ़लता, कुछ साबित करने की होड़...</div><div><br></div><div>इस दौड़ से थोड़ा वक्त भर निकाल लेना भी क्रांति है। लेकिन सभी क्रांतिकारी एक अलग दौड़ का हिस्सा बन गए, धीरे-धीरे...</div></div><div><br></div><div>18.9.2019</div><div>__________</div><div><br></div><div>End Note 5</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYiHM4R-IRFH0gMM8dyWN4wvbl5RqowKNqA_m9o1heRpShQ5aVLydbdmXD9qRs0_0uViRJBJ2s4tvusR1kUPFRdV0VsKhgEHvkf3qmxHPBXTZbMCzdzKU4B3ebwl-Twb4PlpltU8lj0dxW/s1600/1575198662798676-4.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><div>इस घर को छोड़ कर जा रहा हूँ। करीब ढाई साल रहा। बम्बई का पहला घर। अब कहीं और जा रहा हूँ।</div><div><br></div><div>'Home' सिर्फ आपके Uber, Ola, Swiggy, Zomato या Amazon में लिखा address नहीं होता। घर एक स्पेस देता है 'मैं' होने का। ये घर कोई इंसान भी हो सकता है, जिसके पास हम बार-बार जाना चाहते हैं, जाते हैं।</div><div><br></div><div>घर बदलते हुए सबसे पहले इन apps में से नए 'home' को अपडेट करना होगा। एक नए जगह को समझना होगा, और फिर उस नए जगह से लगाव हो जाएगा। इस घर को भूल जाऊंगा, जैसे पिछले घरों को भूलता आया हूँ।</div><div><br></div><div>हर घर के साथ एक संबंध बना होता है। यहीं पर बेतकल्लुफ होकर सोया। घंटों सोया। रातों जगा। और जिया। बम्बई को जिया। यहाँ की 21वीं फ्लोर की बालकनी से बम्बई बहुत सुंदर दिखती है। बम्बई की monsoon के मज़े यहीं से मिलते थे।</div><div><br></div><div>एक घर से निकलना एक रिश्ते से निकलने जैसा है।</div></div><div><br></div><div>22.9.2019</div><div>__________</div><div><br></div><div>End Note 6</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgdpeg3TOZ1odBH5dMSbZe3IqGD1khgjUc_30rErb2ot-WVb8UJ34FMcNcIXd_sPD7cixdyLSDJTA09AzHWZWi6As3rsBppGDjLZl9seQfaEbd9hJ7KNKXjLE80HI7v600XmkpHK7itzsQa/s1600/1575198655076845-5.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div><div>अंत कैसा होता होगा की कल्पना में मैंने कितना वक़्त गँवाया है!</div><div><br></div><div>मेरे खिड़की पर कुछ पंछी आते हैं। सिर्फ उदास दिनों में इनकी आवाज़ ध्यान से सुनता हूँ। खुशी के दिन अपने साथ इतना कुछ लाते हैं कि उनमें ही फँस जाता हूँ। अंत के समय कोई एक आवाज़ होगी जो मैं अंतिम बार सुनूँगा। मैं ऐसी कामना करता हूँ कि वो आवाज़ या तो तुम्हारी हो या एक पक्षी की। पक्षियों की आवाज़ में संगीत है।</div><div><br></div><div>और तुम्हारी आवाज़ मेरे लिए संगीत।</div><div><br></div><div>समय के साथ हमारी आवाज़ थोड़ी-थोड़ी तो बदल जाती होगी, जैसे हमारी शक्ल बदल रही होती है। अंत के दिनों में तुम्हारी शक्ल पहचानना मुश्किल होगा। इसलिए मैं लगभग रोज़ एक बार हमारे अंतिम संवाद को याद करता हूँ। मैं मन में उन शब्दों को दोहराता हूँ, कि अंत में तुम्हें तुम्हारी आवाज़ से पहचान लूँ।</div><div><br></div><div>लेकिन हमारे अंतिम संवाद सुखद नहीं थे। सुखद होते तो वो अंतिम नहीं होते। और दुख के संवाद को याद कर के मैं फिर से दुखी हो जाता हूँ।</div><div><br></div><div>खैर, ये सोच कर कि कभी ऐसा दिन आएगा जब मैं एक पक्षी की आवाज़ अंतिम बार सुनूँगा, मैं दुखी हो जाता हूँ। इसलिए पक्षियों की आवाज़ बार-बार सुनता हूँ, एकांत में। अंतिम दिन अगर कोई पक्षी नहीं आये तो मैं मन में उनकी आवाज़ दोहरा लूँगा, जैसे तुम्हारे शब्द दोहराता हूँ।</div><div><br></div><div>पक्षियों से कोई बैर नहीं, ना पक्षियों को मुझसे बैर है। इसलिए उनकी आवाज़ हमेशा सुखद रहेगी।</div></div><div><br></div><div>30.11.2019</div><div>__________</div><div><br></div><div>End Notes 7</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgd0IOpZ8gztICjfI1fE1sQWb_2n1z8RbBncUN_Rfa-c08SRqY38LwXo-sQ2TnCJn4t3cz0W3lWSzsf1ZQMWpR5d0osq7Xr2zx2pC7kG4sNUjrX1GxV1aDG2uKRW4qtLBgJA2AIW9a4US_9/s1600/1580464636690379-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><div>मैं अंत पर खड़े सभी किरदारों को देखता हूँ - स्कूल का दोस्त, दादी, चाचा... चाची। अंत पर खड़े लोगों में उदासी दिखती है। ठीक अंत पर कोई खुश नहीं दिखता। ठीक अंत पर एक समुद्र दिखता है, अंतहीन। अगर खराब कविता लिखता तो इस समुद्र को 'आंसुओं का समुद्र' लिखता। लेकिन हम इतने आँसू कहाँ बहाते हैं कि समुद्र भर दें। </div><div><br></div><div>ठीक अंत पर खड़े दोस्त से बात करना चाहता हूँ।</div><div><br></div><div>अमित मेरा दोस्त था। उसने आत्महत्या की, बहुत छोटी बात पर। मैं क्लास 7 में था। अमित 8वीं में। उसके मरने की खबर सुनकर मैं रोया, लेकिन मुझे लगा कि मैं बड़ा हो गया हूँ। दोस्त ने आत्महत्या कर ली है। ये खबर आपको कहीं से भी बच्चा बने नहीं रहने दे सकती। कुछ दिन या महीने में ये बात भूल गया।</div><div><br></div><div>पिछले कुछ दिनों से अमित याद आता है कभी कभी। मैंने अचानक से बहुत दोस्तों से उसके बारे में बात की है। मैं उससे भी बात करना चाहता हूँ। शायद बात कर के समझा भी लूँ कि इतनी जल्दी आत्महत्या करना ठीक नहीं है। अभी तो हमने कुछ झेला भी नहीं है। ज़िन्दगी बहुत लंबी है। बहुत कुछ देखना है। और उसके बाद अगर मन करे तो आत्महत्या कर सकते हैं। लेकिन इतनी जल्दी नहीं दोस्त।</div><div><br></div><div>ये सब बनावटी बात है। मैं नहीं जानता अमित क्या महसूस कर रहा था। बस एक सेकंड लगा होगा, और पिताजी के सर्विस रिवाल्वर ने अपना काम कर दिया होगा।</div><div><br></div><div>उसके पास किसी को होना चाहिए था। कोई दोस्त। बच्चा था। किसी 8वीं के बच्चे को देखता हूँ तो लगता है हम क्या कर रहे थे 8वीं में! लेकिन इन बच्चों के जीवन में भी क्या चल रहा है, हमें कहाँ पता है।</div><div><br></div><div>एक प्रिय कवि को खोना दुख देता है। एक प्रिय कविता को खोना भी दुख देता है। दोस्त को खोना एक कविता को खोने जैसा है।</div><div><br></div><div>18.1.20 </div></div><div><br></div><div><br></div>Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-59930263224774879492018-07-12T19:50:00.000-07:002018-07-12T20:20:13.177-07:00एक प्रेम कहानी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijTS3rNvmNXsl6VPN4ds09pA3rJ2aiuzkXASEGBgMz6_25Wy9n91UmGreg0fwjAkquTjD9imaUf-7q2syBdppu-2_v5SukkoQuq9zZoa4udNOkGUmsQaXUOnFUli4srdRJWiQyn-6DjnvZ/s1600/IMG_2491.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1067" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijTS3rNvmNXsl6VPN4ds09pA3rJ2aiuzkXASEGBgMz6_25Wy9n91UmGreg0fwjAkquTjD9imaUf-7q2syBdppu-2_v5SukkoQuq9zZoa4udNOkGUmsQaXUOnFUli4srdRJWiQyn-6DjnvZ/s320/IMG_2491.jpg" width="212"></a></div>
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<i><br></i></div>
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<i><br></i></div>
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<i>सुनो,</i></div>
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<i><br></i></div>
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<i>मेरी आँखें सच में कभी बंद हो जाएंगी। और फिर कभी नहीं खुलेंगी। मैं मरूँगा। अपने अंतिम क्षणों में मेरा पश्चाताप क्या होगा? इस सवाल को हमेशा तो नहीं सोचता, लेकिन कभी-कभी ज़रूर सोचता हूँ।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं अपने बहुत सारे इक्कठा किये गए किताबों को नहीं पढ़ सकने का दुःख मनाऊँगा। मैं अपने हार्ड-ड्राइव में अनदेखे फिल्मों को नहीं देखने का शोक मनाऊँगा। मैं ठीक से प्रेम नहीं कर पाया, इस बात से दुखी रहूँगा। मैं कुछ लोगों से बहुत कुछ कहना चाहता था। उनसे ना कह पाने का दुःख रहेगा। मैं सबसे पहले एक क्रिकेटर बनना चाहता था। फिर पत्रकार। बीच में टेबल-टेनिस प्लेयर भी। लेकिन कुछ भी पूरा नहीं चाहता था। अभी भी जो भी चाहता हूँ उसे पूरा नहीं चाहता। मैं घर से जब भी निकलता हूँ पूरा नहीं निकलता। मेरा कुछ हिस्सा घर में रह जाता है। जब कोई रिश्ता ख़त्म होता है, तो मेरा कुछ हिस्सा किसी के पास छूट जाता है। मरते वक़्त ये दुःख भी हो सकता है कि मैं पूरा नहीं मरा। मेरे बहुत हिस्से बहुत लोगों के पास ज़िंदा रह जाएंगे। लेकिन इस बात से खुश भी हो सकता हूँ कि मेरे मरने के बाद लोग कुछ दिन तक मुझे याद रखेंगे। फिर वो भूल जाएंगे, जैसे मैं बहुत लोगों को भूल चुका हूँ। भूलना ज़रूरी है, वरना सर-दर्द बहुत बढ़ जाएगा।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
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<i>मुझे सुसाइड नहीं करना। लेकिन मुझे सुसाइड नोट लिखना पसंद है। हर सुसाइड नोट तब तक के जीवन का सार होता है; एक पड़ाव होता है। और उसके बाद का जीवन एक नया जीवन।</i></div>
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<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं इस जीवन में बहुत सारे सुसाइड नोट लिखना चाहता हूँ। सुसाइड नोट विराम हैं, मृत्यु पूर्ण विराम।</i></div>
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<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>तुम इसे पढ़ कर भूल जाना।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>तुम्हारा,</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
दृश्य: कनॉट प्लेस का एक कॉफ़ी शॉप।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
दोनों 12 साल बाद मिल रहे हैं। कॉलेज के दिनों में जंतर-मंतर पर आंदोलन के साथी। अब वो नौकरी करने लगा है। और वो मेरठ में अपने परिवार के साथ रहती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"मुझे कभी लगा नहीं था कि हम इस जीवन में दोबारा मिलेंगे। मैं तो मान चुका था कि हम दोनों के रास्ते अलग हो चुके हैं।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"मैंने भी नहीं सोचा था। लेकिन कई सालों बाद दिल्ली आना हुआ तो सोचा तुमसे मिल लूँ। इसलिए फेसबुक पर मेसेज किया।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"अच्छा किया जो तुमने मेसेज किया। मैं तो कई बार मेरठ आया। लेकिन हिम्मत नहीं हुयी तुम्हें मेसेज करने की। और अब टाइम भी तो नहीं रहता। सिर्फ ऑफिस के काम से मेरठ आता हूँ।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम्हें याद है जंतर-मंतर और आर्ट्स फैक्लटी के धरने और आंदोलन! तुम्हारे चक्कर में क्या-क्या नहीं किया मैंने।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम्हारी समझ भी तो अच्छी थी उन सभी इशूज़ की। इतने साल में मुझे कोई लड़की मिली नहीं जिसकी पॉलिटिकल क्लैरिटी तुम्हारे जैसी हो।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"वो सब कॉलेज के टाइम की बातें हैं। सोचा था दुनिया बदल ही देंगे। दो बच्चे हैं। उन्हें भी बदल नहीं पाती! और आजकल स्कूल में इतना होमवर्क मिलता है बाबा! पूरा दिन उनके होमवर्क कराने में गुज़र जाता है। जानते हो, बहुत थक जाती हूँ।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम्हारे बाबा कहने की आदत नहीं गयी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"हा! तुम्हें ये याद है? बहुत बदल गयी हूँ लेकिन। तुम कैसे हो? क्या चल रहा है जीवन में?"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"मैं बहुत खुश हूँ। अच्छी नौकरी है। ऑफिस घर के पास ही है। तो ज़्यादा ट्रैवेल नहीं होता। ऑफिस में सबकुछ है। वहीँ सुबह जिम कर लेता हूँ। तीन महीने पहले मुझे अपनी केबिन भी मिली है। सब बढ़िया है।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"हम्म..."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"क्या?"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"तुम्हें बिल्कुल भी याद नहीं होगा। बहुत मामूली बात है लेकिन... छोड़ दो।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"क्या? बताओ तो... इतना कुछ तो हमने छोड़ दिया। बातों को भी..."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"यहीं सेंट्रल पार्क में तुमने कभी कहा था कि अगर हम कभी अलग हुए, और कई सालों बाद तुम्हें ये पता चले कि मैं किसी बड़े कंपनी में एक अच्छी नौकरी कर रहा हूँ, तो समझ जाना कि मैं खुश नहीं हूँ..."</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"... हा! मैं भी कितना बेवकूफ था ना!"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"हाँ, तुम बहुत बेवकूफ थे।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>इस रिश्ते को ख़त्म हुए बारह साल बीत गए हैं। लेकिन वो एहसास अब भी मेरे साथ है, स्ट्रांग कॉफ़ी की तरह।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>_</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं यहीं कहीं रहती थी। यहाँ जहाँ वो नहीं था। वो भी यहीं कहीं रहता था। वहाँ जहाँ मैं नहीं थी। हम साथ-साथ रहते थे, और साथ नहीं भी। कौन किसका है ये सोचते हुए एक रिश्ता निभा रहे थे।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मेरा इस रिश्ते में ना रहने का कारण उसका ज़्यादा रहना था।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>_</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हम दोनों प्यार करते थे। मेरा उससे प्यार करना उतना ही सच है जितना मेरा होना। मैं कहीं भी जाता हूँ, मेरा कुछ हिस्सा उसके पास ही रखा होता है। प्यार कभी ख़त्म नहीं होता। वो सतही धूल के नीचे दबा होता है। वो अगर एक फूँक भर देती, तो वो उभर आता।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: center;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
सोलह साल पहले। कॉलेज के शुरुआती दिन। थिएटर क्लब के ऑडिशन चल रहे हैं। लड़का और लड़की भी ऑडिशन दे रहे हैं।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़का: “शायद आपका फ़ोन बज रहा है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़की: “जी नहीं। मेरा फ़ोन साइलेन्स पर है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़का: “आप इकोनॉमिक ऑनर्स में हैं ना?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़की: “मैं आपकी ही क्लास में हूँ। इंग्लिश ऑनर्स। आपने ध्यान से नहीं देखा होगा।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मुझे लग रहा था कि मैंने कहीं तो आपको देखा है। सॉरी।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“सॉरी की बात नहीं है। बस एक हफ़्ता तो हुआ है कॉलेज को शुरू हुए। किसी को किसी का चेहरा याद रहे ज़रूरी नहीं।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं रोहित।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं प्रीती।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“सो, थिएटर?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ। बचपन से मन था कभी तो थिएटर करूँ। स्कूल में भी नहीं किया। कॉलेज ऑडिशन का देखा तो सोचा कि कर सकती हूँ… आप?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं तो थिएटर करता हूँ। बाहर भी एक ग्रुप है। उनके साथ करता हूँ। कॉलेज में भी जॉइन कर लूँगा तो अच्छा रहेगा।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ओह, तो आप वेटरन हैं।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे नहीं। और ये आप मत कहिये। काफ़ी फॉर्मल लगता है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“आप ही आप कर रहे हैं। वरना मुझे तो काफ़ी ऑकवर्ड लग ही रहा था आप करके बात करना।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ओ! सॉरी! अब रेस्पेक्ट नहीं दूँगा!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे, रेस्पेक्ट और ‘आप’ का क्या लेना देना? रेस्पेक्ट तो बिना आप बोले भी दे सकते हैं।”</div>
<div style="text-align: justify;">
_</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
ऑडिशन के बाद।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“प्रीती! प्रीती!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे, तुम।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ। तो कैसा रहा ऑडिशन? तुम्हारा सलेक्शन हुआ?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“नहीं यार। मेरा तो नहीं हुआ। बोला कि एक्सपीरियंस कम लग रहा है। अरे, फर्स्ट ईयर में हूँ। कैसे एक्सपीरियंस आएगा? ये थर्ड ईयर वाले बहुत ज़्यादा समझते हैं अपने आप को। तुम्हारा तो हो गया होगा?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ, हो तो गया है। मैं कुछ बात करूँ क्या तुम्हारे लिए…”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“नहीं नहीं। मुझे थिएटर का क्राउड भी कुछ खास नहीं लगा। इसी बहाने क्लास थोड़ा ठीक से अटेंड कर लूँगी। चलो, फिर क्लास में मिलेंगे।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ओके। मिलते हैं आराम से।”</div>
<div style="text-align: justify;">
_</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
कुछ महीने बाद। कॉलेज इलेक्शन के दौरान।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“प्रीती…”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ रोहित। तुम क्लास क्यों नहीं आते? तुम्हारे अटेंडेंस का क्या होगा?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे रिहर्सल होते हैं ना। अटेंडेंस का टेंशन नहीं है। वो तो हम थिएटर वालों का मैनेज हो जाता है। लेकिन मुझे तुम्हारा फ़ेवर चाहिए।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“कैसा फ़ेवर?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“एक्चुअली, मैंने एक पार्टी जॉइन की है। हमलोग इलेक्शन भी लड़ रहे हैं। तो तुम भी सपोर्ट करो हमें।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“कैसे सपोर्ट करूँ? और, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे, हम तो लाल हैं। अपनी पॉलिटिक्स बताओ?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अपना तो कोई रंग नहीं है। जो सही है वो सही है। जो गलत है वो गलत है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मतलब कोई आइडेंटिटी नहीं है। पता है, समाज के लिए ऐसे लोग सबसे ख़तरनाक होते हैं जो असल में श्योर नहीं होते कि उनकी पॉलिटिक्स क्या है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हें कैसे पता कि मुझे अपनी पॉलिटिक्स नहीं पता? और तुम सिर्फ एक पार्टी जॉइन करके मोरल हाईग्राउंड कैसे ले सकते हो? अभी तो फ़ेवर चाहिए था तुम्हारी पॉलिटिक्स को!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे, मेरा मतलब वो नहीं था। मैं कह रहा था कि एक पार्टी रहती है तो अपने विचारों को दिशा मिल जाती है… इसलिए पार्टी जॉइन कर लो। मेरा टारगेट भी पूरा हो जाएगा…”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
ज़ोर से हँसते हुए, “अरे, समाज के रक्षक के टार्गेट्स भी हैं! तब तो जॉइन करना ही पड़ेगा। वरना क्रांति कैसे आएगी!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे, साथ काम करेंगे… क्रांति आ जाएगी।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हमारे जीवन में सिर्फ़ अदाकार आते हैं, अलग अलग किरदारों में। मैं भी जिनके जीवन मे कदम रखता हूँ दरअसल उनके जीवन के नाटक में एक किरदार ही हूँ।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हम सब झूठे हैं। लेकिन इस झूठ के सच का अनंत आनंद है। मुझे सच बोलने वाले किसी किरदार का इंतज़ार नहीं है। ना ही मैं वो किरदार हूँ जो कहीं जाकर सच बोलेगा। मुझे बेहद झूठे और झूठ में सच जीने वाले लोगों का इंतज़ार है। जो इस भ्रम में हैं कि वो दरअसल सच्चे हैं, ऐसे लोगों से दूर एक दूसरे शहर में नाटक खेलना चाहता हूँ।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हमारा ये भ्रम कि हम दुनिया बदल रहे हैं, बहुत बड़ा था। इस भ्रम का झूठा ‘सच’ हमें एक नशा देता था। व्यक्तिगत जीवन उतना मायने नहीं रखता था।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>_</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>बेहद प्यार में डूबा हुआ होने के एहसास से बेहतर कुछ भी नहीं होता होगा। लोगों का बेहद प्यार में डूबा पल मानव समाज के सबसे बेहतरीन पलों में से एक होगा।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं जितने देर भी प्यार के करीब रहती हूँ उतनी देर एक बेहतर इंसान कैसा होता है, महसूस करती हूँ।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>_</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मुझे नहीं पता बेहतर प्यार कैसे करते हैं। शायद सबकुछ खो कर भी जिसकी चाहत बराबर रहे वो बेहतर प्यार होता हो। खुसरो का निज़ामुद्दीन के लिए, या मेरे बचपन के एक दोस्त का मेरी क्लास की एक लड़की के लिए। ज़रूरी नहीं कि सभी प्यार की कहानियाँ अमर हो जायें। अमर होना अप्राकृतिक भी है। इंसान उस पल में क्या बन पाया, ये ज़रूरी है। </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: center;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
दृश्य: आर्ट्स फैक्लटी, डी.यू, का मैदान। यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन के खिलाफ एक कैंपेन के बाद। दोनों सुबह से नारे लगाने के बाद फुर्सत के पलों में।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़की: “तुम कोई कविता सुना सकते हो क्या?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
लड़का: “अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें, जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें…”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“बेहतर कविता।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो, नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं थकी हुई हूँ। और फिलहाल फ़राज़ साहब मुझे कोई सुकून नहीं दे रहे। कुछ बेहतर सुनाओ। थिएटर करने वाले के पास तो ख़ज़ाना होना चाहिए ग़ज़लों और कविताओं की।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“बेहतर कविता क्या है? जो पाश ने लिखी है? या जो ग़ालिब ने?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“बेहतर वो है जो फिलहाल मेरा पेट भर दे।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो इस समय सदी के सबसे बड़े शायर कैन्टीन के मोहन भैया हैं।” </div>
<div style="text-align: justify;">
_</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
दोनों खाना खाते हुए।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ये बताओ आज के कैंपेन का एडमिनिस्ट्रेशन पर कुछ फ़र्क पड़ेगा?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“कैसे नहीं पड़ेगा! बिल्कुल पड़ेगा। दो से तीन हज़ार स्टूडेंट्स ने हल्ला किया है। वी.सी की हालत टाइट हो गयी थी। मैंने खुद देखा किस तरह वो डरा हुआ था।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“जानते हो, पिछले साल भी ऐसा हंगामा हुआ था। और उसके पिछले साल भी। और हम आज फिर हंगामा कर रहे हैं। बार-बार लगातार हंगामा करने की क्या ज़रूरत अगर फ़र्क पड़ रहा हो तो?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हम पॉलिटिकल लोग हैं। हम इतनी सतही बात नहीं कर सकते। पॉलिटिक्स एक प्रक्रिया है। तुम अंत की खोज कर रही हो। हम अभी शुरुआती दौर में हैं। पिछले दस साल में यूनिवर्सिटी का फ़ीस सौ प्रतिशत बढ़ चुका है। लेकिन ये पाँच सौ प्रतिशत भी बढ़ सकता था। हम अपना काम तो करते रहेंगे ना।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मैं इनकार नहीं कर रही। मैं बस पूछ रही हूँ कि ये प्रक्रिया कहीं छलावा तो नहीं है हम सभी को व्यस्त रखने के लिए।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हो भी सकता है। मैं मना नहीं करता हूँ। लेकिन इसकी खोज तो हमें खुद ही करनी है। जैसे तुम्हारे मन में ये सवाल आना बड़ी बात है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“अब ये सवाल तुम्हारे मन में भी डाल दिया है कॉमरेड। पार्टी से रिज़ाइन कर डालो!” बोलते-बोलते हँस पड़ती है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“इतना नकली कम्युनिस्ट नहीं हूँ कि गर्लफ्रेंड की बात में आकर पार्टी छोड़ दूँ। चलो, तुम्हें भी क्लास के लिए जाना है, और मेरी भी रिहर्सल है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
_</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“आज शाम कहीं चलते हैं?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“कहाँ?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“सेंट्रल पार्क… डायरेक्ट मेट्रो।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मेरी रिहर्सल लंबी चलेगी। अच्छा, कल का प्लान करें क्या?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“उफ्फ! तुम और तुम्हारी रिहर्सल। बस पछताओगे!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“आप मेरे पछतावे की चिंता ना करें। बस ये बताइये कि क्या कल का डेट हमें मिल सकता है?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“मेरी सेक्रेटरी से पूछ लेना! अच्छा बाए!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं जानती थी कि तुम्हें थिएटर और पार्टी की ज़्यादा चिंता थी। वो तुम्हारी प्रायोरिटी थीं। मैंने तब भी कंप्लेन नहीं किया। अब भी नहीं करती हूँ। लेकिन, हम शायद साथ नहीं चल रहे थे। </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं चाहती थी कि हम साथ चलें। तुम थोड़ा आगे चल रहे थे। मैं कभी-कभी बोलना चाहती थी कि ये वाला मोड़ लेना है, लेकिन तुम दूसरी तरफ़ बढ़ चुके होते थे। मैं तुम्हें बुलाती थी। लेकिन उन नारों और थिएटर की तालियों में मेरी आवाज़ तुम तक नहीं पहुँचती थी। मैं कई बार रुकती भी थी। लेकिन तुम कई बार मुड़ते नहीं थे।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>अब शायद तुम मुड़ सकते हो। लेकिन वो सारे मोड़ नक्शे पर नहीं हैं।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: center;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"मैंने कई बार तुमसे कहा है कि टूथपेस्ट को ऊपर से नहीं, नीचे से प्रेस किया करो। लेकिन तुम मेरी बात नहीं समझते।" प्रीती सुबह सुबह झल्लाते हुए रोहित से बोल रही थी। "मेरी एक बात मान लेने से घर नहीं गिर जाएगा, या तुम कम रिबेलियस नहीं हो जाओगे।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
"प्रीती... सुबह सुबह मत शुरू हो जाओ यार। अभी आधे घंटे पहले सोने आया हूँ। पूरी रात हमलोग नाटक की रिहर्सल कर रहे थे। मेरा पहला टिकेटेड शो है। कुछ देर में वापस जाना है। प्लीज़..." रोहित नींद में ही था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
कॉलेज ख़त्म हो चुका है। रोहित अब सिर्फ थिएटर करता है और प्रीती नौकरी। जब दोनों के बीच चार साल पहले प्यार शुरू हुआ था तब ये किसी ने नहीं सोचा था कि जीवन में इस तरह के भी मुद्दे आएंगे जिन्हें सुलझाना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना प्यार। टूथपेस्ट भी प्रेम की तरह ज़रूरी है, और चाय की कप को बिस्तर के नीचे से हटाना भी। प्रेम के मायने प्रेम से परे कुछ और होते हैं। प्रेम इन सबके इर्द-गिर्द ही कहीं रहता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“बाबा! मैं सिर्फ़ इतना कह रही हूँ कि मेरी बात को थोड़ा तो ध्यान में रख सकते हो ना? मैं ऑफिस जा रही हूँ। आज थोड़ा लेट ही आऊँगी।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ठीक है।” रोहित नींद में ही बोल रहा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
_</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“प्रीती, तुम अपने ऑफिस में कुछ ज़्यादा ही इन्वॉल्व नहीं हो गयी हो?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ज़्यादा ही इन्वॉल्व होना होता है। दाल में नमक कम है। प्लीज पास करना।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“ये लो। हमलोग तो कभी आराम से बैठ कर बात ही नहीं कर पा रहे हैं।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“कैसे करेंगे… कभी तुम्हारे रिहर्सल, तो कभी मेरी ऑफिस। ये दिक्कत तो रहेगी ही।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“तुम्हारा भी सेलेक्शन कॉलेज थिएटर क्लब में हो जाता तो शायद ये दिक्कत ना होती।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“रोहित, साथ थिएटर करने वाले सभी लोग रिलेशनशिप में नहीं आ जाते।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो ऐसे कैसे चलेगा? हमलोग अंजान बनकर रह गए हैं।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“जो कंप्लेन मेरा होना चाहिए, वो तुम कर रहे हो?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“क्या फ़र्क पड़ता है कि कौन कंप्लेन कर रहा है। हम दोनों को सच तो पता ही है ना।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ। पता है।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो?”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो कुछ भी नहीं। आज भी थोड़ा लेट हो जाएगा।”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हम दोनों लेट कर चुके थे। कई साल साथ रहने के बाद भी हम नहीं समझ पाए एक दूसरे को। बहुत कुछ समझा। एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखा। लेकिन हम वो नहीं कर पाए जो करना चाहते थे।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हम दुनिया घूमना चाहते थे। चेयरमैन माओ के मेमोरियल को साथ देखना चाहते थे। और स्विट्जरलैंड भी साथ जाना चाहते थे। इजिप्ट के पिरामिड्स पर फ़ोटो खींचना था। और नॉर्थन लाइट्स को साथ महसूस करना था। हमारे सपने बहुत सुंदर थे। हम दोनों ने कई साल इन सपनों को पाला पोसा था।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>और इन सबका भी अंत आया।</i></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हमने कुछ नहीं किया।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>हमने सिर्फ अपने 'होने' का एक घर बना लिया- ईंट पत्थर का नहीं, यादों का। खाली वक़्त में बैठे-बैठे इंस्टाग्राम पर मैं तुम्हारे सिर्फ वो फ़ोटो देखता हूँ जो मैंने खींची हैं। उस वक़्त में हम साथ थे। बाकी फ़ोटो भी शायद अच्छे हों, लेकिन वो हमारे 'साथ होने' के पल नहीं थे। जब मैंने तुम्हारी फ़ोटो खींची थी तो हम कुछ नहीं कर रहे थे। हमें नहीं मालूम था कि कुछ समय बाद ये फ़ोटो मुझे वो सुकून देंगे जो दफ़्तर से लौटने के बाद घर देता है। बाकि सब तो दुनिया है। तुम घर हो।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>इंस्टाग्राम पर भी बहुत भीड़ है- दिल्ली के भीड़ की तरह। लेकिन इन सबसे छुपते-छुपाते जब मैं तुम तक पहुँचता हूँ तब मैं भीड़ से दूर खुद को एक पार्क में पाता हूँ, तुम्हारे साथ।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>सिर्फ ये साथ होने का एहसास सुंदर है। हमने कुछ नहीं किया... ना हम कुछ करेंगे। लेकिन ये एहसास जब तक हमारे साथ रहेगा, जीवन सुंदर दिखता रहेगा।</i></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>सुनो,</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>ये एक और सुसाइड नोट है। मैं आत्महत्या नहीं करूँगा, और इसे तुम भूल जाना।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ। हमेशा। मुझे किसी भी परिस्तिथि से निकलने का सिर्फ एक रास्ता पता है- आत्महत्या। मैं इसे कभी गलत नहीं मानता। खुद से चुनी हुई अनंत की यात्रा कभी गलत नहीं हो सकती।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>लेकिन मैं कई कई बार मरना चाहता हूँ। हम जो कहानी लिख रहे हैं उसके कई अंत हैं। और मेरी मृत्यु एक। सभी कहानी एक साथ खत्म नहीं होंगे। कुछ कहानियों को बीच में छोड़ना पड़ेगा।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>लेकिन यात्राओं को बीच में कैसे छोड़ दें?</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैंने तुमसे पहले भी कहा है मुझे सुसाइड नोट लिखना इसलिए पसंद है क्योंकि ये तब तक के जीवन का सार होता है। ये विदाई का गीत है जो गद्य में लिखा गया है। मुझे विदाई के गीत भी पसंद हैं और जीवन का रस भी।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं जीवन से बेहद प्यार करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि दुनियावी बातें मेरी सुसाइड नोट में कभी ना आयें- जैसे इसने इसको मारा, ये उससे नफ़रत करता है, वो लोग इन लोगों को मार रहे हैं- ये सब छोटी बातें हैं। लेकिन ये छोटी बातें बहुत कुछ कहती हैं जो लगभग रोज़ सुनना पड़ता है- फेसबुक पर, अख़बारों में, न्यूज़ में, टी.वी पर। हम सिर्फ इसे ही सुनते हैं। </i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं एक अच्छी कविता सुनते हुए विदा चाहता हूँ। फ़राज़ की ग़ज़ल… जो मैंने तुम्हें सुनाई थी।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं एक अच्छी दुनिया से विदा चाहता हूँ।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>तुम मेरे लिए एक अच्छी दुनिया बना देना। मैं विदा ले लूँगा।</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i><br></i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>तुम्हारा,</i></div>
<div style="text-align: justify;">
<i>मैं। </i></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
<div style="text-align: justify;">
<br></div>
<div style="text-align: center;">
<i>हम जबसे बिछड़े क्या क्या सोचा करते हैं,</i></div>
<div style="text-align: center;">
<i>हम बैठे बैठे यादों को पाला पोसा करते हैं</i></div>
<div style="text-align: center;">
_______________</div>
</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-87824545491754157622016-05-11T01:15:00.001-07:002016-05-11T04:29:59.372-07:00मेट्रो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhL5aYn91Z3yiPquajPJOLs4sDY-K37D-cG2DOyHtKibMhhsxm1HgmaRwufvH7rqJtVfypWY-Un-0lxlO6a5ev7NsxJ-NBi0phS0spjrC1xgZocfljg23wJW8eLbBoqkzKbuTGvuFtfCRCL/s1600/m1.gif" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhL5aYn91Z3yiPquajPJOLs4sDY-K37D-cG2DOyHtKibMhhsxm1HgmaRwufvH7rqJtVfypWY-Un-0lxlO6a5ev7NsxJ-NBi0phS0spjrC1xgZocfljg23wJW8eLbBoqkzKbuTGvuFtfCRCL/s400/m1.gif" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
...और उससे मेरी नज़रें मिली। मैं झेप गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मेट्रो मेरे जीवन का हिस्सा है। अगर मेट्रो नहीं होता तो शायद मैं अपने पसंदीदा राइटर की कहानियाँ नहीं पढ़ पाता और ना ही अपने हार्ड ड्राइव में रखीं फिल्में देख पाता। क्योंकि ऑफिस जाने में सवा घंटे लगते हैं- और दिन के ढाई से तीन घंटे मैं मेट्रो में ही बिताता हूँ, इसलिए मैं इसे अपना घर भी कह सकता हूँ। लेकिन मेट्रो को घर कहना अजीब लगता है। इसे जीवन का हिस्सा कहना ठीक रहेगा। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
जीवन इतना ख़ास नहीं है कि इसमें हर वक़्त एक कहानी खोज लूँ। लेकिन जब भी सुबह उठता हूँ तो एक कहानी की तलाश करने लगता हूँ। इसी कहानी को खोजते हुए मैं ब्रश करता हूँ। मैं ब्रश करीब दस-बारह मिनट तक करता हूँ। बारह मिनट में एक छोटा सपना देख लिया जा सकता है। जैसे कि मैं एक पहाड़ पर गया (ये सोचने में सिर्फ तीस सेकंड लगेंगे); पहाड़ के आसपास जंगल के बारे में सोचना (ये खूबसूरत हिस्सा है- ढाई मिनट लगेंगे); पहाड़ पर मुझे एक चिड़िया दिखी जो मुझे बुला रही है (एक मिनट); मैं उस चिड़िया से बातचीत करता हूँ, और इसी दौरान एक छोटी सी कविता भी लिखता हूँ (बातचीत और कविता में काफी वक़्त लगता है- चार मिनट लग जाएंगे); फिर चिड़िया मुस्कुराते हुए उड़ जाती है, और मैं धीरे-धीरे उस कहानी से वापस आ जाता हूँ- ब्रश करने (दो मिनट में सबकुछ ख़त्म करना ही पड़ेगा)। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ब्रश करने के बाद नहाना, और पिछली रात को बाहर निकाले कपड़े पहनने के दौरान भी मैं कई कहानी बुनता रहता हूँ। कहानियों को बुनने में मुझे सबसे मुश्किल उनका अंत खोजने में लगता है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इन्ही सब के बीच मैं मेट्रो में बैठ चुका हूँ। मेट्रो में सीट मिलना एक बड़ी बात है- इसलिए जैसे ही सीट मिलती है मैं कुछ करने के प्रेशर में आ जाता हूँ। मतलब ये कि मेट्रो मैं बैठने कि इक्षा हर किसी की होती है, लेकिन हर कोई बैठ नहीं पाता। और अगर मुझे ये मौका मिला है तो मैं इसे यूँ ही नहीं खो सकता। ऐसे वक़्त के लिए मेरे पास एक किताब होती है, या मेरे मोबाइल में सेव की गयी फ़िल्म।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
आज मेट्रो में बैठने के बाद मैं एक पसंदीदा राइटर की किताब पढ़ रहा था। तभी उससे मेरी नज़र मिली, और मैं झेप गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो ठीक मेरे सामने बैठी थी। उसका नाम मुझे नहीं पता लेकिन अगर मुझे उसका कुछ नाम रखना होता तो मैं उसे स्वाति कहता- वो एक स्वाति जैसी लग रही थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं जिस स्कूल में पढता था वहाँ हर दूसरी लड़की का नाम स्वाति था। ये इतना खूबसूरत नाम था कि हर किसी ने अपने अपने घर में एक स्वाति को देखा हुआ था। मुझे कोई पुराना स्कूल का दोस्त मिल जाए तो हम हर किसी की बात करते हैं, लेकिन हमारे बातचीत के हिस्से में कोई स्वाति नहीं है, क्योंकि स्वाति बहुत सारी थीं। मुझे स्वाति नाम से कोई लड़की याद नहीं आती। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये भी एक स्वाति जैसी थी। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं पसंदीदा राइटर कि कहानी के दूसरे पन्ने पर पहुँचा ही था कि पेज बदलते हुए हमारी नज़र मिल गयी। वो अपनी एक दोस्त के साथ बातें कर रही थी। उसकी दोस्त एक श्रुति जैसी थी- हर स्वाति की एक श्रुति दोस्त होती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैंने स्वाति को दस सेकंड के लिए देखा होगा। और आठवें सेकंड में उसने मुझे उसे देखते हुए देख लिया। हमारी नज़रें मुश्किल से दो सेकंड के लिए मिली होंगी। दसवें सेकंड में मैं झेप गया। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे नज़रें मिलने पर पहले झेंपने की आदत है। मैं बचपन में आँख लड़ाने वाला खेल भी ठीक से नहीं खेल पाता था। मुझे ऐसा लगता है कि लोगों को ज़्यादा देर तक देखो तो वो बुरा मान जायेंगे। क्यों बुरा मान जायेंगे, ये मुझे नहीं पता। लेकिन कई लोग बुरा मान जाते हैं, ये मैं जानता हूँ। लेकिन मुझे ऐसा भी लगता है कि महिलाओं की अपेक्षा पुरुष ज़्यादा बुरा मानते हैं। स्कूल के दिनों में सीनियर लड़कों से इसलिए भी लड़ाई हो जाती थी कि हमने उन्हें कुछ देर के लिए लगातार देख लिया था। जब मैं भी सीनियर हुआ तो कोई जूनियर कुछ देर के लिए लगातार देखता तो मैं भी बुरा मान जाता और उसे जाकर पीट देता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्कूल की लड़कियाँ कभी भी बुरा नहीं मानती। क्योंकि आजतक मैंने किसी लड़की को किसी लड़के को इसलिए पीटते नहीं देखा कि वो उसे देख रहा था। लेकिन ये भी हो सकता है कि लड़कियों को भी गुस्सा आता हो, और वो लड़ाई करना नहीं चाहती हों। मैं इस बात का ठीक-ठीक जवाब नहीं दे सकता क्योंकि मैं पुरुष हूँ, और जीवन भर सिर्फ पुरुष ही रहा हूँ। मैं शिव की तरह अर्धनारी नहीं बन पाया। अगर ऐसा बनता तो मैं बहुत से सवालों का जवाब जान जाता। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं आँखें झेंपने के बाद सीधा किताब पढ़ने लगा। लेकिन अब किताब की कहानी से मेरा ध्यान हट चुका था। मुझे एक कहानी अपने आसपास दिखलायी दे रही थी, जिसका नायक मैं था- और नायिका स्वाति। जीवन के किसी भी हिस्से में नायक बनना मुझे सबसे अच्छा लगता है। नायक को लोग ध्यान से देखते हैं। नायक का दोस्त अच्छा लगता है, लेकिन उसे ध्यान से नहीं देखते। उसे नायक के दोस्त के रूप में ही जानते हैं। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं जब स्कूल में था एक नायक की तरह रहता था (ऐसा मैं सोचता हूँ, और मुझे ऐसा सोचना अच्छा लगता है)। मेरे कई दोस्तों को लोग सिर्फ इसलिए जानते थे क्योंकि वो मेरे दोस्त थे। लेकिन जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ मेरे आसपास नायक बढ़ गए। और धीरे-धीरे मुझे भी लोग किसी के दोस्त के रूप में जानने लगे। मैं ऐसे दोस्तों से दूरी बना कर ही रखता हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अभी स्वाति अपनी दोस्त से मेरे ही बारे में बात कर रही है। ये मैं जानता हूँ। क्योंकि श्रुति ने मुझे अचानक से देखा है। मैं फिर से झेप गया हूँ। उन दोनों के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं है। इसलिए मैं कह नहीं सकता कि अभी मुझे नायक माना जा रहा है या खलनायक। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे खलनायकों से भी कोई दिक्कत नहीं रही। खलनायक को भी लोग ध्यान से देखते हैं। लेकिन उसके बारे में अच्छा नहीं सोचते। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
--</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
स्वाति और श्रुति के बात करने के तरीके में बदलाव भी आ चुका है। मेट्रो में भीड़ नहीं है। मैं स्वाति से बात भी कर सकता हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
तभी राजीव चौक मेट्रो आ गया। मुझे लगा स्वाति भी वहीँ उतरेगी। लेकिन वो अपना सामान नहीं समेट रही। स्वाति देखने से चांदनी चौक या दरियागंज की लग रही है। इसलिए वो यहाँ नहीं उतरेगी। वो मेरी तरफ़ देख भी नहीं रही। मैं धीरे-धीरे अपना सामान समेट रहा हूँ, और स्वाति को आँखों के किनारे से देख रहा हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मैं बाहर निकलता हूँ। जैसे ही गेट बंद होता है, मैं स्वाति को देखता हूँ। वो एक बड़े मुस्कान के साथ मुझे देख रही होती है। श्रुति भी मुस्कुराते हुए स्वाति को देख रही होती है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे एक नयी कहानी मिल गयी है। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
...और मैं मुस्कुराते हुए झेप जाता हूँ। </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
11.5.2016</div>
</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-69864038583279949332016-03-11T03:41:00.004-08:002022-05-07T10:02:05.031-07:00बैक्ग्राउंड म्यूज़िक<div dir="ltr" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAtsZ5-fNYlYFXjaOsxTuz5GTotk5yJjuCn_Ui1HTWXGZnyprogvrJ8fVIedZgPNGW0KcoqlIYyVMYqOebJs7vloNibRAcLncbYRdnFDllu2nZron2rVl_VxUqT-tH_oARSxRA-Ma4H902/s1600/12819226_10156702278700093_7047504869028719227_o.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="286" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgAtsZ5-fNYlYFXjaOsxTuz5GTotk5yJjuCn_Ui1HTWXGZnyprogvrJ8fVIedZgPNGW0KcoqlIYyVMYqOebJs7vloNibRAcLncbYRdnFDllu2nZron2rVl_VxUqT-tH_oARSxRA-Ma4H902/s400/12819226_10156702278700093_7047504869028719227_o.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बहुत पहले जब बहुत सारे गाँव थे, तो एक अनाम गाँव भी था। छोटा सा। वहाँ सबकुछ अच्छा था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उस गाँव में ख़ुशहाली थी। लोग मज़े में थे। सुबह उठते; दिन भर काम करते; शाम में परिवार और दोस्तों के साथ हँसते। सो जाते। फिर सुबह उठते; दिन भर काम करते- पसीना बहाते। परिवार और दोस्तों के साथ हँसते। और सो जाते। ना ज़्यादा कमाते थे, और ना ज़्यादा कमाना चाहते थे।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उसी गाँव में एक बाँसुरी वाला रहता था। वो कहाँ से आया - कहाँ का था - किसी को नहीं पता था। बस वो था। जब भी लोग काम करने जाते, वो सड़क किनारे कोई धुन छेड़ता। शाम में जब लोग लौटते तो वो किसी और धुन के साथ बातें कर रहा होता। लोग उसे देखते, मुस्कुराते और भूल जाते। जब लोग सड़क किनारे बातें कर रहे होते, बाँसुरी की कोई धुन आस-पास टहलती रहती। बाँसुरी वाला भी नहीं जानता था और गाँव वाले भी नहीं जानते थे - लेकिन अनजाने में वो उन सब की बातों का हिस्सा था। उसकी धुन गाँव वालों की बातों में घुल चुकी थी। दूसरे गाँव वाले कहते कि अनाम गाँव के लोग बहुत मीठी और सुरीली भाषा में बात करते हैं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">सब कुछ अच्छा था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">एक दिन गाँव के कुछ लोग आपस में बात कर रहे थे। बाँसुरी वाला रोज़ की तरह बाँसुरी बजा रहा था। दो लोगों में किसी बात पर कहा-सुनी हो गयी। बाँसुरी बजती रही। वो दो लोग लड़ पड़े। बाँसुरी बजती रही। पूरा गाँव लड़ाई में व्यस्त हो गया। दो गुट बन गए। बाँसुरी बजती रही।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">तभी किसी आदमी ने चिल्ला कर कहा,"बंद करो ये बाँसुरी बजाना। कुछ काम नहीं है क्या!"</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">बाँसुरी वाला चुप हो गया। वो उस इंसान को देखता रहा। उसने देखा कि लड़ाई बढ़ चुकी है।अब कोई भी बाँसुरी की घुन में इंट्रेस्टेड नहीं था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">वो चुप ही रहा।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">फिर बाँसुरी वाला कहीं चला गया। कोई उसे जानता नहीं था, तो किसी ने उसके जाने को नोटिस नहीं किया। लेकिन वो जा चुका था। हमेशा के लिए।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">उसके बाद शामें वैसी नहीं रहीं। जो लोग शाम में सड़क किनारे गप्प मारते रहते थे, उन्हें अब बात करने में मज़ा नहीं आता था। लोगों की बातें अब बेसुरी हो चुकी थीं।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">गाँव का बैकग्राउंड म्यूज़िक खो गया था।</div><div style="text-align: justify;"><br /></div><div style="text-align: justify;">8.3.2016</div></div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-91285617332580629982015-02-02T19:45:00.003-08:002015-02-02T19:45:33.409-08:00शहर का अकेलापन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
-1-</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सुबह की धूप और शाम के अँधेरे में फर्क ख़त्म होने लगा है। </div>
<div style="text-align: justify;">
ऐसा ही कुछ सोच कर वो नयी सड़क के अनजान गलियों का सफ़र तय कर रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
"किधर जाना है?" रिक्शे वाले ने पूछा। </div>
<div style="text-align: justify;">
"नई दिल्ली मेट्रो।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"40 रुपया।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो चलने लगता है। उसे मालूम नहीं कि वो क्यों नयी सड़क गया था- या क्यों नयी दिल्ली जा रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
"किधर रहते हो?" रिक्शेवाले से पूछा। </div>
<div style="text-align: justify;">
"यहीं- दरियागंज के पास।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"दिन का कितना काम लेते हो?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"300 से 400। कोई ठीक नहीं है। कभी ज़्यादा। कभी कम।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"इस बार किसको वोट दोगे?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"सोचा नहीं है।" रिक्शेवाला संभल का जवाब देता है।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"ठीक आदमी को वोट देना।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"हाँ। दे देंगे।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"यहीं उतार दो।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक बेमतलबी संवाद के बाद वो आगे बढ़ चला- कहीं और। उसे नहीं मालूम कि वो कहाँ जा रहा था। एक नशे की हालत में शहर के कोने-कोने भटक रहा था। </div>
<div style="text-align: justify;">
अकेलापन एक नशा है। वो अकेलेपन से लड़ रहा था।</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"सिगरेट देना।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"कौन सी?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"कोई भी।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
"किधर रहते हो?" दूकान वाले से पूछा। </div>
<div style="text-align: justify;">
"लक्ष्मी नगर।"</div>
<div style="text-align: justify;">
"इतने दूर से रोज़ यहाँ आते हो?"</div>
<div style="text-align: justify;">
"हाँ।"</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और भी लोग थे वहाँ। वो और बात नहीं कर सका। सिगरेट ख़त्म करके वो मेट्रो की तरफ बढ़ा- सोचते हुए कि उसे जाना किधर है।</div>
<div style="text-align: justify;">
---</div>
</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-69980243486349830432014-01-14T06:17:00.000-08:002014-01-14T06:17:50.597-08:00एक था राजा एक थी रानी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<div style="text-align: justify;">
एक था राजा, एक थी रानी...</div>
<div style="text-align: justify;">
और इसके बाद हुई शुरू कहानी!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बात कई हज़ार साल पहले की है- तब जब कुछ भी ना था- ना मेट्रो, ना ट्रेन, ना बिजली, ना जहाज, ना देश! लेकिन समाज नया-नया बना था| समाज बनने से पहले सभी खुश थे, आराम से जी रहे थे, खा रहे थे, मौज में थे| समाज किसी ने बनाया नहीं था, वो खुद-ब-खुद बन गया था| कुछ तो ज़रूरत के कारण, और कुछ तो बस ऐसे ही! शौक था सभी को कि कुछ अलग होना चाहिए| भाषा नयी-नयी बनी थी| अब इंसान बातचीत करने लगे थे| सभी बहुत खुश थे| लोगों को खोज-खोज कर बातें करते| एक ही बात दुहराते, और खुश हो जाते| संगीत और कविता ने भी जन्म लिया| सभी को अब बहुत कुछ मिल गया था करने को|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक इंसान था जो थोड़ा सा अलग था| क्योंकि समाज बनने की शुरूआती ज़रूरत नाम थी, उसका भी एक नाम था- सरछु| सरछु का रंग गेहुआं और कद काठी उस समय के औसत से थोड़ा ज्यादा| वो सोचता बहुत था| उसे ये बात मालूम चली थी कि समाज बनते ही लोग अचानक से बेवकूफ हो गए हैं| सभी ज़रूरत से ज्यादा अलग चीज़ें करना चाहते हैं| उसे ये सब बहुत फूहड़ लगने लगा| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उन्ही दिनों कुछ लोगों ने मिलकर भगवान को खोजा था| वो सभी बेहद खोजी लोग थे| दिन भर अकेले बैठा करते और शाम तक कुछ ना कुछ खोज लेते| समाज वालों को आश्चर्य हुआ और कुछ भी समझ नहीं आया| जब दो-तीन लोगों ने खोजी प्रजाति से कहा कि उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा है कि ये सब क्या है, तो खोजी प्रजाति ने समझाया कि इन बातों को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है| बस वही समझ सकता है जो भगवान का करीबी हो| सरछु ने इस बारे में भी सोचा, और समझ गया कि ये एक नया गोरख धंधा है| वो सोचता बहुत था, बोलता बहुत कम|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बात तब की है जब सरछु सभी चीज़ों से- समाज से, भाषा से, भगवान से- तंग आकार दूर निकल पड़ा| सरछु अकेला ही नदी को पार करके एक खोज पर निकल पड़ा| उसकी खोज क्या थी, वो भी नहीं जानता था| बस जानता था कि सभी चीज़ों से दूर जाकर उसे कुछ ना कुछ मिल जाएगा| वो चलता गया, चलता गया, चलता गया...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और एक दिन वो थक गया| उसे पता भी नहीं चला कि वो कितने दिनों से चल रहा है| पानी में देखा तो उसके बाल सफ़ेद हो गए थे| जब अंतिम बार देखा था तो वो काले थे| इस बात से उसने अंदाजा लगाया कि वो कई दिनों से चल रहा है| अब जब वो थक चुका था उसे कुछ समझ नहीं आया कि वो क्या करे| वो बैठा-बैठा सोचने लगा| कई दिनों में पहली बार उसे अपने समाज की याद आई| उसे वहाँ के बेवकूफ लेकिन बहुत ही मासूम लोग याद आने लगे| उसे अपना घर भी याद आने लगा| उसे सब कुछ इतना ज्यादा याद आने लगा कि वो रोने लगा| वो अपने जीवन में पहली बार कुछ भी याद करके रोया था| वो समझ गया कि समाज उसके अंदर बस गया है और वो समाज से दूर नहीं रह सकता| क्योंकि भाषा उसे आती थी, शब्द उसने सीख लिए थे, उसे इंसानों से बात करनी थी| वो वापस लौट चला| वो चलता गया, चलता गया, चलता गया...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और एक दिन वापस अपने समाज में पहुँच गया| अब उसे कुछ भी अजीब नहीं लगा रहा था| सबकुछ अच्छा लगने लगा| लेकिन कोई उसे पहचानता नहीं था| उसने लोगों को बताया कि वो सरछु है| किसी को याद ही नहीं आया कि सरछु कौन था| खैर लोगों ने उसे बोला कि अब आ गए हो तो यहीं रहो| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन सरछु अब सिर्फ सोचता नहीं था| उसे अब कुछ करना भी था| वो खोजी लोगों को खोजने लगा| उसे पता था कि खोजी बहुत ही काम के हैं| असल में खोजी लोग ही थे जो समाज को चला रहे थे और अपना भरण-पोषण कर रहे थे| सरछु ने एक खोजी से मुलाक़ात की और कहा कि वो कुछ ऐसा करना चाहता है जिससे समाज का आकार और विस्तार बदल जाएगा| खोजी को पहले तो लगा कि सरछु खोजी और खोजी समुदाय के लिए खतरा हो सकता है| लेकिन जब सरछु ने पूरी बात बताई तो खोजी बहुत खुश हुआ| वो सरछु का मुरीद हो चुका था| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अगले दिन खोजी एक ढिंढोरा लेकर समाज में निकला| वो ढिंढोरा पीट-पीट कर लोगों को एक जगह जमा करने लगा| सभी लोग आश्चर्य में इकट्ठा होने लगे| जब समाज के सभी लोग इकट्ठा हो गए थे, तब खोजी ने बोलना शुरू किया, “आप सभी लोगों को बताना चाहूँगा कि कल रात मेरी बात भगवान से हुई, और उन्होंने मुझे आप सभी लोगों को ये बतलाने को कहा कि इस समाज का एक मुखिया भी होना चाहिए| मुखिया की ज़रूरत इसलिए है कि बाहर एक और समाज बन रहा है, और वहाँ के लोग बहुत खराब हैं- आप सभी की तरह अच्छे नहीं हैं| वो आपको मार भी सकते हैं| भगवान ने कहा है कि सरछु, जो हम सभी में से इकलौता इंसान है जो समाज के बाहर भी गया है, वही हम सभी का मुखिया होगा| और अब से ये राजा कहलायेगा| इस राजा के लिए रानी भी चाहिए होगी| तुम.... हाँ तुम इधर आओ!” खोजी भीड़ में खड़ी एक नवयुवती को बुलाने लगा| नवयुवती डरी-सहमी खोजी के पास गयी| खोजी ने फिर से कहना शुरू किया, “ये लड़की आज से हमारे समाज की रानी होगी|”</div>
<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto; text-align: center;"><tbody>
<tr><td><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_KpSTgbnSKnnhaz0tsoaFUPFZoZKO4-1ULgkxczKhyphenhyphena2K4Un0ywq1Xn4KDdUei7dXF7SgxlKgtyWid2jGLGiPKdurKLg250V7iYEhdF0xS-UHOKs_TeqtyN8PsW-uhXDD9me-kRsXXVBU/s1600/raviRaja-and-Rani.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh_KpSTgbnSKnnhaz0tsoaFUPFZoZKO4-1ULgkxczKhyphenhyphena2K4Un0ywq1Xn4KDdUei7dXF7SgxlKgtyWid2jGLGiPKdurKLg250V7iYEhdF0xS-UHOKs_TeqtyN8PsW-uhXDD9me-kRsXXVBU/s400/raviRaja-and-Rani.jpg" width="290" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="font-size: 13px;">राजा रवि वर्मा की पेंटिंग "राजा-रानी"</td></tr>
</tbody></table>
<div style="text-align: justify;">
सभी लोग बहुत खुश हुए| ये उनके लिए बिल्कुल ही नया अनुभव था| राजा और रानी शब्द उन्होंने पहली बार सुना था| वो सभी इतने खुश हुए कि पागल हो गए| सरछु अब उनका राजा था| नवयुवती उनकी रानी...</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और दुनिया को पहला राजा और पहली रानी मिल गए|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक था राजा, एक थी रानी...</div>
<div style="text-align: justify;">
और इसके बाद हुई शुरू कहानी!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
-14.1.14</div>
</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-75290592200258117392013-06-20T07:19:00.000-07:002013-06-20T07:19:09.425-07:00उलटी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहाड़ों से घिरे घरोंदें में रहना, चिड़िये की तरह चहकना, ताज़ा हवा में पंख खोल के उड़ना- ये सब वो करना चाहता था| लेकिन लोग इसे रोमांटिसिज़्म कहते थे| तो वो चुपचाप ट्रेन की टिकट कटा कर नैनीताल के पास किसी गाँव में जाकर रह लेता था- कभी कैंप में या फिर कभी किसी सस्ते होटल में| लोग पूछते कहाँ जा रहे हो तो कहता “वेकेशन पर जा रहा हूँ”- अब कहाँ बताता फिरे कि मौका मिला है, चिड़िया बनने जा रहा हूँ|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन पहाड़ों पर जाना इतना आसान नहीं था| पहले तो शहर के भागदौड़ से छुट्टी लेना, फिर पैसे जोड़ कर टिकट कराना, फिर पता करना कि रहने का इंतज़ाम क्या होगा- इंतज़ाम ना भी हो तो भी चला जाता क्योंकि उसे हद की बेहदी तक विश्वास था कि इंसान किसी भी हालात में सर्वाइव कर सकता था| पैसे भी किसी न किसी तरह जोड़-जार लेता| क्योंकि कुछ खास काम नहीं करता था तो छुट्टी लेना कोई बड़ी बात नहीं थी| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सिर्फ और सिर्फ दिक्कत जो थी वो थी पहाड़ों पर चढ़ाई करते वक्त उलटी आना! ये बहुत बड़ी दिक्कत थी- इतनी बड़ी कि ये कहानी लिखनी पड़ी! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEix67zt7AsbUuQKuMXbA5R4cqgK0_pGnTE8mg3GvQtvXk7Q_GfayaBOugfvV-SI38OcN92eVL9pvyghV1IVSRgarQAoj4ga5nq_aWmmz6PiBzRye460FRVYNrlzGsn_ZSdxxpDDhFmpeh6x/s1600/344050-1880978-11.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="266" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEix67zt7AsbUuQKuMXbA5R4cqgK0_pGnTE8mg3GvQtvXk7Q_GfayaBOugfvV-SI38OcN92eVL9pvyghV1IVSRgarQAoj4ga5nq_aWmmz6PiBzRye460FRVYNrlzGsn_ZSdxxpDDhFmpeh6x/s400/344050-1880978-11.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहले-पहल तो उसे बहुत दिक्कत मालूम हुआ| उसने ठान लिया कि अब चाहे खुदा का बच्चा भी उसे बुलाये या खुद खुदा ही पहाड़ों पर टैक्सी चलाये- वो दुबारा किसी पहाड़ पर नहीं जायेगा| लेकिन पहाड़ कुछ खास होते हैं, ये समझने में उसे कुछ ज्यादा समय नहीं लगा| उसने किसी ज्योतिष के माफिक अपने आपको ये फैसला सुनाया कि पहाड़ों पर जाते रहने से उसके रूह को कुछ ऐसा मिलेगा जो शहर में मौजूद नहीं है| वो क्या है जिसके लिए उसे पहाड़ों के चक्कर लगाना था वो नहीं जनता था| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बाद भी मुद्दे कि बात नहीं बदलती| उलटी| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उलटी एक खास प्रकार की क्रिया है जिसके ऊपर इंसानी ताकतों का वश नहीं होता| इसे जब आना होता है तो आता है| मन बेचैन सा हो जाता है| और सबसे बड़ी बात आपने जो कुछ भी खाया हो- भले ही बहुत ही महँगा और हाइजेनिक- वो अनपचा खाना बाहर निकल आता है! आप चाह कर भी उसे रोक नहीं सकते| जब वो खाना जो आपने बड़े चाव से किसी खास इंसान के साथ खाया था, आपके मुँह से निकल रहा हो तो आप बस उन सुनहरी यादों को याद कर सकते हैं, दुबारा उस स्वाद का आनंद नहीं ले सकते| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसके साथ एक और दिक्कत थी कि उलटी के बाद उसे- हर किसी की तरह- कमजोरी का एहसास होता| तबियत नासाज़ हो जाती और पहाड़ों पर चिड़िया बनने कि चाहत खत्म होने लगती| ये शुरूआती दिनों कि बात थी| उसके बाद वो बीसीयों बार अलग- अलग पहाड़ों पर गया लेकिन हर बार उसे मुनासिब मात्रा में उलटी होती| परेशानी कि हद तक होती| अलबत्ता, बेहद तक होती| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इसके बावजूद वो पहाड़ों पर जाता- जब मौका मिलता शहर की धमाचौकड़ी से एस्केप कर जाता| दर असल वो एक एस्केपिस्ट था| लेकिन मुआ उलटी उसका पीछा नहीं छोड़ती| कुछ लोगों ने उसे सलाह दी “फलां-फलां दवाई खा लिया कर| उलटी नहीं होगी|” उसको समझ नहीं आता ये कैसे मुमकिन है| अगर मुझे मोशन सिकनेस की दिक्कत है और मोशन भी हो रहा है तो कोई दावा इसका इलाज कैसे कर सकती है? उसे इतना मालूम था कि उसका शरीर उससे ज्यादा समझदार है| शरीर को मालूम था किस वक्त कैसे रिअक्ट करना है| अगर शरीर किसी भी कारण से कुछ चीज़ बाहर निकालना चाहता है, और वो उसे किसी तरीके से रोके, तो ये तो प्राकृतिक नहीं है| कुछ और मुआमलों में कॉन्सटिपेशन की दिक्कत भी हो जाती थी| ये कुछ दूसरा मामला था, लेकिन दिक्कत तो यहाँ भी बराबर हो सकती है!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसने किसी भी तरह के फलां-फलां दवाई खाने से इनकार कर दिया| लेकिन लोगों को ये बात पसंद नहीं आई| हर मर्तबा जब वो उलटी करता तो लोग उसे ताने मारते “मत खाओ फलां-फलां दवाई| और करो उलटी|”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
इस बीच एक खासा वक्त गुज़र गया| पहाड़ों का जाना भी कम नहीं हुआ और ना ही उलटी का आना| लेकिन कुछ ऐसा हुआ जो खास था| उसे धीरे-धीरे उलटी करने में आनंद आने लगा| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुँह में नमकीन स्वाद का आना, पेट में एक भीनी दर्द का एहसास होना, सर का शुन्य में चले जाना- ये सब अब सफर का हिस्सा बन चुके थे| टैक्सी से सर बाहर निकाल कर अपने मुँह से अपने पसंदीदा खाने को बाहर जाते देखना एक अद्भुत एहसास था- पूर्ण रूपेण मेडीटेशन| उसे (फिर से) हद की बेहदी तक विश्वास हो गया था कि ये कुछ खास है जिसके बारे में कोई बात नहीं करता| सबसे खास एहसास होता था जब उलटी आती थी और उसका पेट खाली होता था- सिर्फ पानी के अलग अलग रूप बाहर निकलते थे जो उसके दाँतों को खट्टा कर जाते| उसे अपने खट्टे दाँतों को आपस में रगड़ना बहुत अच्छा लगने लगा| वो अब बहाने खोजने लगा उलटी करने के, जिसके कारण पहाड़ों के चक्कर बढ़ गए, और लोगों के ताने भी|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वक्त आ गया था जब लोगों के ताने और उलटी की चाहत के बीच युद्ध शुरू हो चुके थे| उससे लोग पूछते कि फलां-फलां दवा क्यों नहीं ले लेता, तो उसके पास कोई जवाब नहीं होता| अब किसे समझाने बैठे कि उलटी करना उसे अच्छा लगता है| ये एक बेतुका सा जवाब मालूम होता जिसे लोग मसखरी समझते| लेकिन वो मसखरा नहीं था| उसे मसखरी बिल्कुल भी नहीं आती थी| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये वो वक्त था जब वो लगातार कई महीनों तक पहाड़ों के चक्कर लगाता रहा| अलग अलग लोग उसके साथ अलग अलग जगह जाते थे| कुछ नए, कुछ पुराने- दोस्त बन जाते थे| जो भी उसे उलटी करता देखता कहता कि इतनी तकलीफ क्यों ले रहे हो, फलां-फलां दवाई क्यों नहीं खा लेते? वो जवाब नहीं दे पाता| लेकिन कुछ लोग इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने ने उसे बहुत खरी-खोटी सुना डाली| उनका कहना साफ़ था “तुम्हारी वजह से हमारी गाड़ी गन्दी हो जाती है| तुम्हारी वजह से हमारा वक्त खोटा होता है| तुम कोई तीस मार खान हो क्या जो फलां-फलां दवाई नहीं खाओगे! तुम्हे ये दवाई खानी ही होगी!”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मामला संजीदा हो चला था| उसे पहाड़ों से ज्यादा उलटी से प्यार हो गया था| वो अब किसी कि सुनना नहीं चाहता था| लेकिन उलटी करने के लिए उसे टैक्सी पर चढ़ना होता था| लेकिन अब उसे कोई भी अपने साथ ले जाने को तैयार नहीं था| बात बढ़ती चली| उसका दिल बैठता चला|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5NtcUQ_YecHCpRFyLQW6RLBrKHYZKjYpKJsn_NiS9Z1g3uD6PHE3Pq2T9SiZB9tHZidXX5o2fTFSV91037qWq3vSbdaFbwPEUq7b4_Gos5a45IU6uI1ag-Qok6RyekwLyXGEjUZjb2Dyv/s1600/TYPOEConfettiDeath2.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="267" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg5NtcUQ_YecHCpRFyLQW6RLBrKHYZKjYpKJsn_NiS9Z1g3uD6PHE3Pq2T9SiZB9tHZidXX5o2fTFSV91037qWq3vSbdaFbwPEUq7b4_Gos5a45IU6uI1ag-Qok6RyekwLyXGEjUZjb2Dyv/s400/TYPOEConfettiDeath2.jpg" width="400" /></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक दिन उसे एक इंसान ने फलां-फलां दवाई दी और कहा, “सोचो मत| हर कोई ये दवा खाता है| मैं, वो, और वो| तुम्हारे पिता, तुम्हारी माँ, तुम्हारे मौसा और मामा भी- हर कोई| तुम भी खा लो और हमारी तरह आराम से जियो|”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उस दिन उसने फलां-फलां दावा खा ली| आज भी खाता है| सब कहते हैं वो बहुत आराम से सफर करता है, उसे कोई दिक्कत नहीं होती| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
4.6.13</div>
</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-33054514104234236662012-12-29T09:11:00.000-08:002013-06-20T07:23:07.295-07:00लूडो<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhloT7lF1UuJHhmsNrGEa0bXqk7two12FPAAdrk9zHnqXL0WTfFsPaWr6nhkF7XKXeeE4Jj7WOfEV4NV79GM2ez4SfVipCQBK9tOoRsbrsAlX7-SIk6V2tHovNejv2s5mlqWxUtuZGKhBDO/s1600/medium_6870025486.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="color: black;"><img border="0" height="265" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhloT7lF1UuJHhmsNrGEa0bXqk7two12FPAAdrk9zHnqXL0WTfFsPaWr6nhkF7XKXeeE4Jj7WOfEV4NV79GM2ez4SfVipCQBK9tOoRsbrsAlX7-SIk6V2tHovNejv2s5mlqWxUtuZGKhBDO/s1600/medium_6870025486.jpg" width="400" /></span></a></div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“आप चलिए| अब आपका चांस है|”</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ पता है| रुकिए, हम जरा चाय चढ़ा कर आते हैं| तब तक आप गोटी इधर-उधर मत कर दीजियेगा| हम सब देख रहे हैं|” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
और गोमती चाय चढ़ाने किचन में चली गयीं| सिन्हा जी ने जैसे ही देखा की गोमती जी किचन में गयीं, उन्होंने अपनी दो लाल गोटियों को कुछ कदम आगे बढ़ाया, कुछ पोजीशन बदला ताकि गोमती जी की पीली गोटियाँ उन्हें काट ना सके| पीली गोटियों को भी थोड़ा सा कंविनिएंट पोजीशन में रख दिया| अब खेल वो जीत रहे थे| फिर वो अखबार पढ़ने लगे ताकि गोमती जी को कोई शक ना हो सके| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये सिलसिला कई सालों से चल रहा है| सिन्हा जी को रिटायर हुए सात साल हो गए हैं| वो बिहार सरकार के बिजली विभाग में हेड क्लर्क हो कर रिटायर हुए थे| सीधे सादे व्यक्तित्व वाले इंसान थे| करियर में कभी किसी ऐसे चक्कर में नहीं पड़े जिसके कारण उन्हें शर्मिंदा होना पड़ा हो| वही सब कुछ करते थे जो उनके दफ्तर के बाकि सभी साथी करते रहे| स्वभाव के चिडचिडे नहीं थे| सुगर की दिक्कत थी उन्हें, फिर भी चाय में चीनी डलवा लेते थे| गोमती उन्हें कभी चीनी वाली चाय नहीं देती थी, तो वो सिर्फ दफ्तर में ही ये शौक पूरा कर पाते थे| जबसे रिटायर हुए, ये शौक भी जाता रहा| और सात सालों में बिना चीनी वाली चाय की आदत हो गयी है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“लीजिए|” गोमती ने चाय पकड़ाते हुए कहा| “फिर से बदमाशी कर दिए| गोटी सब ठीक कीजिये| हमको सब याद है कौन गोटी कहाँ पर था|” और सिन्हा जी मुस्कुराने लगे| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो तुम्ही जीतोगी हमेशा? हमको भी जीतने दो|” </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“तो जीतिए| मना कौन किये हुए है| लेकिन गलथेतरई मत कीजिये| हम जीतने लगे तो पूरा खेल बिगाड़ दीजियेगा| खुद से चाय काहे नहीं बनाते हैं|” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अच्छा| चलो ना भाई, तुम्हारा चांस है|” </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“पहले गोटी ठीक कीजिये|” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सिन्हा जी को कभी भी लूडो खेलना अच्छा नहीं लगता था| जबकि गोमती लूडो खेलना पसंद करती थीं| जब सिन्हा जी ऑफिस जाते थे तब वो घर में काम करने वाली दाई के साथ बैठ कर खूब लूडो खेलती थीं| बच्चे पढ़ाई करने के लिए दिल्ली में रहते थे| छुट्टियों में आते तो माँ का पूरा दिन बच्चों की देखरेख में गुज़र जाता| स्वाति और अविनाश लूडो खेलने को समय की बर्बादी समझते थे, तो उनके आते ही गोमती जी का लूडो खेलना बंद| उन्हें भी ध्यान नहीं रहता था, और बाकी सब काम में वक्त कट जाता था| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब बच्चे बड़े हो गए हैं| शादी हो गयी है दोनों की| अविनाश दिल्ली में ही रहने लगा है, और स्वाति बेगुसराय में| बेगुसराय पटना से बहुत दूर नहीं है, तो महीने दो महीने में सिन्हा जी और गोमती से आकर मिल लेती है अपने बच्चों के साथ| अविनाश का आना थोड़ा कम होता है| जब कभी कोई पर्व-त्यौहार हुआ, वो भी अपने परिवार के साथ आ जाता है| बस पर्व-त्यौहार ही हैं जब सम्पूर्ण परिवार का मिलन होता है| बाकी वक्त घर में सिन्हा जी, गोमती और लूडो| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रिटायरमेंट के बाद घर में बैठे-बैठे सिन्हा जी को बोरियत होने लगी थी| आदत थी सुबह उठने की, वो तो जाने से रही| घर के काम-काज में गोमती का हाथ बटाने लगे तो दाई को हटा दिया गया| कुछ पैसे भी बचने लगे और दम्पति के लिए कुछ काम निकल आया अपने आपको व्यस्त रखने के लिए| टीवी भी खराब होने लगी थी| जब नौकरीशुदा थे तब ही खरीदा था| अब टीवी में ना तो रंग साफ़ पता चलते ना ही आवाज़ ही ठीक से आती| अच्छा खासा हीरो भी गूँगा और बदसूरत नज़र आता था उन्हें| टीवी खरीदने की इक्षा तो कई बार हुई, लेकिन सिन्हा जी के पास कोई बचत राशि थी नहीं तो गोमती ने कभी बोला नहीं| जो भी कुछ पेंशन आता उससे घर का किराया, राशन और दवा का ही इंतज़ाम हो पाता था| थोड़ा बहुत जो बचता उसे गोमती जमा कर देती थी अपने गुल्लक में| कहती बुरे वक्त में काम आएगा| सिन्हा जी हमेशा मुस्कुरा देते| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
रिटायरमेंट के साल भर बाद ही गोमती को लूडो खेलने की सूझी| घर में बैठे-बैठे क्या करते, तो सिन्हा जी भी खेलने लगे| शुरुआत में बड़े जल्दी ऊब जाते थे| कहते ये क्या तरीका है वक्त काटने का| “आप यही सब करती थी जब हम ऑफिस में रहते थे?” गोमती शरमाते हुए मुस्कुराती| वो मुस्कराहट एक पाँच साल के अबोध बच्चे सी थी| सिन्हा जी ने ऐसी मुस्कराहट कभी देखी नहीं थी गोमती के चेहरे पर| बस लूडो का सिलसिला शुरू हो गया| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
पहले-पहल तो दिन में कोई तीन-चार बार लूडो खेलते दोनों| सुबह के चाय के साथ, दोपहर के वक्त सोने से पहले, शाम में नाश्ते के साथ और फिर रात में अगर इक्षा हुई तो| फिर धीरे-धीरे ये दिनचर्या का हिस्सा हो गया| जब मौका मिलता दोनों लूडो खेल लेते| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सिन्हा जी ने गोमती के बारे में वो सब जाना जो वो पहले कभी जान नहीं सके थे| चालीस साल की शादीशुदा जिंदगी में कितने ही पल साथ बिताए थे, लेकिन उन्हें ये कभी पता नहीं चला था कि जब गोमती की पीली गोटी सिन्हा जी की लाल गोटी को काटती है तो वो गोमती के लिए अदभुत पल होता है| कितनी ही बार गोमती ने लाल गोटी काटते ही ठहाके मारे हैं, और कितनी ही बार खुशी से नाच पड़ी हैं| ऐसा प्रतीत होता जैसे सिर्फ एक गोटी काटने से गोमती अपनी हर दबी इक्षाओं को बहार निकाल देती| बहुत कुछ था जो वो सिन्हा जी से नहीं कह सकी थीं| जब पीली गोटी लाल गोटी को काटती, तो हौले से लाल गोटी के कान में सालों से बेजुबान लम्हों को बयां कर देती| वो कहती कि जब शादी के तीन साल हो चुके थे तो वो कितना चाहती थीं सिन्हा जी के साथ आगरा जाना जब वो अपने दोस्तों के साथ जा रहे थे| सिन्हा जी ने बस एक बार ही उनसे पूछा था, वो भी अनमने मन से| और जब उनकी ननद उनको ताने मारती, वो चाहती थीं कि सिन्हा जी अपनी बहन से झगडा करें| झगडा ना भी तो कम से कम गोमती का पक्ष रखें| लेकिन सिन्हा जी अपनी बड़ी बहन के सामने हमेशा मुस्कुरा कर रह जाते| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सिन्हा जी को गोटी काटने में वो खुशी नहीं मिलती जो उन्हें गोमती के खुश चेहरे को देख कर मिलती है| इंसान कितना अजीब है, वो सोचते| कितनी बड़ी-बड़ी खुशियों की हम उम्मीद करते हैं| वो आती भी हैं, लेकिन कई बार बड़ी खुशियाँ खुशी नहीं देती| वो पल उनको सँभालने में ही निकल जाता है| और लूडो में गोटी काट कर जो खुशी मिलती है, वो कितनी सहज है, कितनी सरल है, अनमोल है, अदभुत है| उनकी गोटी कटती तो वो नाराज़ भी होते| लेकिन वो नाराज़गी कितनी ही खुशियों पर भारी पड़ती| सालों बाद वो खुद को मासूम महसूस कर रहे थे| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“भक्! फिर आप जीत गयीं| हम समझ रहे हैं आप पासा में कुछ कर देती हैं| बार-बार छक्का कईसे आ जाता है जी?” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ| हम जीत जाते हैं तो दुनिया भर का इल्जाम लगा दीजिए| हम कभी गाल नहीं बतियाते हैं| आप गोटी इधर-उधर करते हैं तो भगवान जी सजा देते हैं, और नहीं तो का!” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“चलिए, एक ठो और गेम खेलते हैं| इ बार एकदम से हरा देंगे आपको|” </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“हाँ, देखते हैं...” कहते-कहते गोमती खाँसने लगी| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“अरे, दवाई फिर नहीं ली| रुकिए, दवाई लाते हैं| इतना लापरवाह कईसे हो सकती हैं जी?” कहते हुए सिन्हा जी दवाई लेने चले गए| सिन्हा जी थोड़े आलसी किस्म के सरकारी मुलाजिम रहे थे| लेकिन उनका सारा आलसपन गोमती की एक खाँसी में उड़नछु हो जाता, और वो दौड़ जाते उनकी दवाई लेने के लिए| और गोमती खाँसते हुए कहती, “ रुकिए ना, हम ले रहे हैं ना दवा तुरंत| अपना चांस चलिए|” </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
“पगला गयी हो एकदम्मे|” कहते हुए सिन्हा जी गोमती को दवा देते| ये सब एक रिवाज़ की तरह कई महीनों से, कई सालों से चल रहा है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
समय के साथ-साथ दोनों की सेहत भी बिगड़ती जा रही है| लेकिन लूडो उसी उत्साह और जोश के साथ खेलते दोनों| अब ऐसा होता कि हर वक्त लूडो के बोर्ड पर गोटियाँ बिछी होती| सुबह उठकर पहला काम यही होता कि लाल और पीली गोटियों के बीच रेस लगाई जाए| एक मैराथन है जो कई सालों से दोनों खेल रहे हैं| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
सुबह का वक्त है| सिन्हा जी हमेशा गोमती के उठने के बाद ही उठते हैं| गोमती उन्हें दो बातें सुना कर उठाती हैं| आज गोमती ने उन्हें नहीं उठाया| सिन्हा जी ने देखा तो गोमती अब तक सो रही थीं| आठ बज चुके हैं| अब तक तो चाय और लूडो के दो गेम हो चुके होते| सिन्हा जी ने गोमती के बदन को छुआ तो वो जकड़ा हुआ और ठंडा पड़ा था| सिन्हा जी सन्न रह गए| </div>
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<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अविनाश और स्वाति को फोन करके सबकुछ बताया| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
धीमे क़दमों से जब बैठक में पहुचें तो लूडो के बोर्ड पर लाल और पीली गोटियाँ बिछी देखीं| बोल पड़े, “सुनिए ना, आज आप पहले चांस लीजिए| हम गलथेतरई नहीं करेंगे|” </div>
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<br /></div>
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<br /></div>
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29.12.12<br />
<br />
<i><b>www.shabdankan.com पर जून २०, २०१३ को प्रकाशित हुआ| </b></i><br />
<b><i>लिंक:<span style="font-size: large;"> </span></i></b><a href="http://www.shabdankan.com/2013/06/nihal.html"><i><b><span style="font-size: large;">http://www.shabdankan.com/2013/06/nihal.html</span></b></i></a></div>
</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-91780602203919158062012-11-01T03:53:00.001-07:002012-11-01T04:04:55.984-07:00किरदार <div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो कॉलेज में पढ़ता है| उसे नाटक खेलना अच्छा लगता है| कॉलेज के सभी दोस्त उसे नाटकवाला या ड्रामेबाज़ कह कर बुलाते हैं| ऐसा नहीं है कि वो सिर्फ नाटक ही खेलता है| उसे सबसे अच्छा काम गाना लिखना लगता है| लेकिन अभी तक उसने कोई गाना लिखा नहीं है| लिखा है, लेकिन सिर्फ एक- जो किसी ने गाया नहीं है| उसे मालूम है कि वो गाना लिखेगा| तब तक वो नाटक खेलना चाहता है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो फिलहाल कॉलेज के ड्रामा सोसाइटी का प्रेसिडेंट है| इसके मुताबित वो अपने कॉलेज का सबसे अच्छा एक्टर है| कॉलेज में कुछ ढाई हज़ार स्टुडेंट्स पढ़ते हैं| उन सब में वो सबसे अच्छा है- ऐसी गलतफहमी उसे नहीं है| उसे मालूम है कि वो सिर्फ एक तरह का अभिनय कर सकता है| वो मंच पर सिर्फ ऐसे किरदार निभा सकता है जो वो असल जिंदगी में निभा रहा है| वो मंच पर बहुत तेज़ हँस नहीं सकता| वो किसी के भी सामने बहुत तेज़ हँसते वक्त असहज हो जाता है| ऐसा नहीं है कि वो बहुत तेज़ हँसना नहीं चाहता| वो चाहता है| जब वो अपने घर में अकेला रहता है तो बहुत ज़ोर से हँसने की कोशिश भी करता है, लेकिन फिर भी नहीं हँस पाता| फिर वो अपने आपको आईने में देखता है, और रोने की कोशिश भी करता है| वो बहुत अच्छा रो भी नहीं पाता| लेकिन नकली हँसी से बेहतर नकली रो लेता है| उसके रोने और हँसने के बीच बहुत अंतर नहीं होता क्योंकि वो दोनों नकली हैं| इसलिए वो अपने आपको बहुत अच्छा अभिनेता नहीं मानता| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसके दोस्त उसे अच्छा एक्टर मानते हैं| उनलोगों ने कभी भी नाटक नहीं देखा| दूसरे का भी नहीं देखा, और इसका भी नहीं देखा| लेकिन उन्हें लगता है कि ये अच्छा एक्टर है क्योंकि ये दिन भर कॉलेज में एक्टिंग करता है; अपने जूनियर्स को एक्टिंग सिखाता है; सीरियस रहता है| हमेशा सीरियस नहीं रहता- मज़ाक भी करता है| लेकिन उसके मज़ाक का कोई मतलब नहीं होता| उसके जोक्स पर ज़्यादा लोग हँसते नहीं हैं| जब भी वो कोई जोक सुनाता है तो सोचता है कि लोग कैसे हँसेंगे; कब हँसेंगे? वो लोगों को हँसाना चाहता है, क्योंकि वो भी दूसरों के जोक्स पर हँसता है| लेकिन जब कोई नहीं हँसता तो उसे लगता है कि उसपर उधार चढ़ गया| उसे उधार चुकाने की जल्दी है| इसलिए उसके जोक्स बहुत सीरियस किस्म के होते हैं- वो कई तरह के इमोसंस को मिक्स कर देता है अपने जोक्स में| हर मर्तबा जब वो जोक सुना चुका होता है तो शर्मिंदा हो जाता है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसे मालूम है कि कॉलेज का ड्रामा प्रेसिडेंट बनना कोई बड़ी बात नहीं थी| उससे अच्छे एक्टर भी ड्रामा टीम में थे| उसे सिर्फ इसलिए ड्रामा प्रेसिडेंट बनाया गया क्योंकि वो रेस्पोंसिबिलिटी लेना चाहता है| उसने एक फ्रेंच नाटक का हिंदी रूपांतरण भी खोजा, जिसे उसने अडाप्ट किया| एक महीने तक वो नाटक अडाप्ट करता रहा| उसने फ्रेंच नाटक को पश्चिम दिल्ली के एक परिवार से मिला दिया| उसे किरदारों को जन्म देना अच्छा लगता है| किरदारों से खेलते वक्त वो अपने आपको बहुत बड़ा महसूस करता है| उसे मालूम है कि वो अच्छा नाटक लिख सकता है| कहानी भी अच्छी लिख सकता है| लेकिन उसे लगता है कि अच्छी कहानी आने में कुछ दिन और लगेंगे| अच्छी कहानी लिखने के लिए उसे अच्छी कहानियाँ पढ़नी होंगी| वो हर वक्त पढ़ने की कोशिश करता रहता है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो अपना नाटक (जो की उसका नहीं है क्योंकि उसने बस अडाप्ट किया है) लेकर ड्रामा टीम के पास जाता है| सभी मिलकर नाटक पढ़ते हैं| जब तक रीडिंग चल रही होती है उसे डर लगता रहता है कि लोग उसके नाटक को नकार देंगे| लेकिन वो उसका नाटक नहीं है- फिर भी उस नाटक के साथ उसका एक रिश्ता बन चुका है| उसके किरदार उसने जन्मे हैं; वो फ्रेंच नहीं हैं| वो बिल्कुल वैसे ही हैं जैसा उसने दिल्ली में रहते हुए देखा है| वो डी.टी.सी बस में सफ़र करने वाले किरदार हैं| वो भिन्डी और टिंडे की सब्जी पसंद करते हैं| उनका पेरिस के किसी भी मोहल्ले से कोई रिश्ता नहीं है| वो अपने किरदारों को लेकर पोसेसिव है| अगर उसके ड्रामा टीम वालों ने उन किरदारों को नहीं पहचाना तो क्या होगा? </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन उसके ड्रामा टीम वाले उन किरदारों को पहचान लेते हैं| अब सभी मिलकर कहानी डिस्कस कर रहे हैं| कहानी से उसका बहुत वास्ता नहीं है| हर किरदार के पास हज़ारों कहानियाँ होती हैं| ये कहानी किसी और की है| अब उसे डर नहीं लगता| लेकिन हर किसी को कहानी अच्छी लगती है, किरदार भी अच्छे लगते हैं| अब ये नाटक साल भर खेला जाएगा; विश्वविद्यालय के हर ड्रामा कोम्पेटिशन में जाएगा| उसके किरदार अभी कुछ दिन जिंदा रहेंगे| वो खुश है| लेकिन बहुत खुश भी नहीं है| क्योंकि उसके किरदार अब उसके नहीं रहेंगे| ड्रामा टीम वाले मिलकर सभी किरदारों को ‘निभाएंगे’| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
वो घर लौट रहा है| आज का दिन अच्छा गुज़रा| घर पर कोई नहीं है| वो शहर में अकेले रहता है| उसे नहीं मालूम घर पर क्या करना है| वो घर पहुँचता है| उसे अकेलापन महसूस होता है| उसे आज कुछ काम नहीं है| वो घर से बाहर निकलता है| वो बगल के एक पार्क में जाकर बैठता है| वो इस पार्क में कभी-कभार ही आता है| उसे पार्क में आना बहुत अच्छा नहीं लगता| पार्क में आने से ठीक पहले उसे अच्छा लगता है कि वो पार्क में जा रहा है, लेकिन पार्क में जाते ही उसे पार्क से बाहर निकलने का मन करता है| ऐसा उसके साथ हमेशा होता है- घर, कॉलेज, ड्रामा रिहर्सल, सिनेमा- वो कहीं भी जाने के बाद वहाँ रहना नहीं चाहता| फिर भी कुछ देर रहता है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अब शाम हो चुकी है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
उसका कोई दोस्त ऐसा नहीं है जो उसे शाम के वक्त मिले| उसे नहीं पता आज वो क्या करेगा| अब वो नाटक भी अडाप्ट नहीं कर रहा| उसके पास कोई किरदार नहीं हैं खेलने के लिए| वो यही सोच रहा है| </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
अचानक उसका रायटर अपनी कॉपी बंद करता है| वो वहीँ पार्क के बेंच पर बैठा रह जाता है|<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQcZEQjM4UjMWmcyR7qYdsFdZavbBC8r_1lXL6ki1RaAaUSVDEXaXLqCDZJCdCyzr4hilCzf1e-786hr3yafmS82e2tg96XSuM-kkh3SbJBPMnmfstpbuV0nejqeRDNj1yZOfgUW_Qqp_v/s1600/3230647670_e3c37353ee.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgQcZEQjM4UjMWmcyR7qYdsFdZavbBC8r_1lXL6ki1RaAaUSVDEXaXLqCDZJCdCyzr4hilCzf1e-786hr3yafmS82e2tg96XSuM-kkh3SbJBPMnmfstpbuV0nejqeRDNj1yZOfgUW_Qqp_v/s320/3230647670_e3c37353ee.jpg" width="320" /></a></div>
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
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30.10.12</div>
Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-82148386660759404292012-01-15T08:43:00.000-08:002012-05-11T08:49:08.284-07:00कुत्तानुमा इंसान/ इंसाननुमा कुत्ता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: justify;">
...और उस दिन कुत्तों को वोट देने का हक़ मिल गया!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div>
<div style="text-align: justify;">
जैसे ही ये खबर फूटपाथ पर बैठे एक कुत्तों के झुण्ड तक पहुँची, उन में एक नया उत्साह आ गया | ऐसा लगा जैसे जीने के नए माने मिल गए हों, वर्ना कुछ हज़ार-दस हज़ार सालों में इज्ज़त घट सी गयी थी | पहले तो सब एक से ही थे- क्या बन्दर, क्या कुत्ता, और क्या इंसान! सभी साथ रहते थे, इंसान माँस खाता, तो कुत्ता हड्डी, बन्दर कभी इस पेड़ तो कभी उस पेड़ कूदता रहता | लेकिन रहता अपनी हद में! दूसरे जानवरों से झगड़ता नहीं, अपने आप में मस्त था | अलबत्ता, सभी कुछ इस तरह से ही रहते थे | दुनिया इतनी बड़ी तो ज़रूर थी कि उनकी सभी ज़रूरतों को पूरा कर दे | खाने को सब्जी थे, फल थे, पीने को पानी था, सोने को ज़मीन थी | और सबसे ज़रूरी बात बराबरी थी, जिसकी तलाश कुछ ढाई सौ साल पहले मार्क्स नाम के एक अजीब से जंतु ने की | उसे इंसानों ने काफी हद तक नकार दिया | कुछ तो ये तक बोल पड़े की बराबरी कभी हो ही नहीं सकती! वो तो अच्छा हुआ कि मार्क्स इंसानों के बीच ही बराबरी लाना चाहता था, अगर वो जानवरों को भी अपनी फेहरिस्त में शामिल कर लेता तो जिंदा जला दिया जाता!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
खैर, उस वकत भी इंसानों को रहने का ये तरीका बहुत पसंद नहीं आया था | अब क्या कुत्तों के साथ बैठ कर माँस खाना और बंदरों-लंगूरों को उछलते-कूदते देखना | इसलिए दुनिया का हिसाब बिगाड़ने में लग गया! कपड़े पहनने लगा, घर बनाने लगा | यहाँ तक तो सब ठीक था, लेकिन एक दिन उसने साफ़ -साफ़ कह दिया, "ये ज़मीन मेरी है!" बस सारा हिसाब-किताब बिगड़ गया | बन्दर को भी उसने अपने साथ मिलाना चाहा, लेकिन बन्दर ने उसे ये कह कर किनारा किया कि इंसान ने बहुत पी रखी है, जब नशा उतरेगा तो बात करेगा | आज तक बात नहीं कर पाया है|</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
बात यहीं खत्म नहीं हुयी | इंसान ने नशे के हालत में भगवान बना डाला | बाद में जब इंसानों के बीच ही झगड़े शुरू हो गए तो खुदा और गॉड का भी जन्म हुआ | अलबत्ता ये कहना ज़रा मुश्किल है कि पहले किसका जन्म हुआ | ज़रूरी बात ये कि उन्हें इंसान ने जन्मा | हँसी कि बात ये रही कि इंसान ने खुदा को जन्म दिया, और चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि खुदा ने उसे जन्मा है | गधापन इंसानों में बहुत था (पुराने वक्त में गधे साथ रहते होंगे शायद), तो सभी इंसान यही मान बैठे | बोले अब कौन जिरह करता रहे, चलो मान लेते हैं कि खुदा ने ही जन्मा है | जब इंसान ने लिखना सीखा तो खुदा-भगवान के नाम से किताबें भी लिखने लगा | कुछ इंसान तो ऐसे निकले कि सुबह उठते ही किसी पहाड़ पर चढ जाते और शाम में कुछ भी लिख कर ले आते | कहते "खुदा ने दिया है"- या तो खुदा खुद लिखता था, या अनपढ़ रहा होगा तो उससे लिखवाता होगा | हज़ारों साल बीत गए, अब तक उसे खुदा की जुबां समझ कर किसी सरफिरे इंसान की बात मान रहे हैं |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
कुत्ते क्योंकि पुराने दोस्त थे (साथ में बैठ कर हड्डी जो खाते), उन्हें इंसानों ने पालतू बना लिया | शुरुआत के साढ़े तीन हज़ार साल तक तो कुत्तों को पता ही नहीं चला की माज़रा क्या है | वो समझते रहे कि सबकुछ ठीक चल रहा है, बस इंसान ज़रा खुद से खफ़ा -खफ़ा सा है | वक्त का मरहम लगे तो ठीक हो जाएगा | वो तो उन्हें बाद में पता चला कि ये सबसे खफ़ा है, अपने प्यारे दोस्त कुत्ते से भी! बस पुरानी आदत की वजह से साथ रह रहे हैं | कुत्तों का दिल टूट गया | </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
एक वो दिन था, और एक आज का दिन था- आज कुत्तों को वोट देने का हक़ मिला था | </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
किसी खुराफाती इंसान के दिमाग की उपज थी कि जम्हूरियत (माने डेमोक्रेसी) में कुत्तों को भी वोट देना चाहिए | वजह ये नहीं थी कि वो अपनी पुरानी गलती सुधारना चाहता था | वजह ये थी कि हिंदुस्तान में इलेक्शन का वक्त था | पिछले कुछ सालों में वोट मांगने के लिए मुद्दे कम से हो गए थे | यूँ कहना बेहतर होगा की हंगामा करने के वजह खत्म हो गए थे | सौ साल पहले किसी अन्ना ने वक्त काटने के लिए कुछ भ्रष्टाचार हटाने की बात कही थी | वो तो कुछ हटा नहीं, जमा रहा वहीँ जहाँ उसे रहना था- हर गली, हर नुक्कड़ पर | आदत कुछ ऐसी हो गयी थी की अब उसके बारे में कोई बात भी नहीं करता था | और जबसे संसद ने सरकारी रूप से मान्यता दी थी, भ्रष्टाचार कोई समस्या ही नहीं रहा | जब तक हुक्मरान कहते रहते थे की ये गैरसरकारी है तब तक वो सबसे बड़ा गुनाह दिखता रहा | जिस लम्हे ये कहा गया कि भ्रष्टाचार सरकारी है, जड़ से ही उखड़ गया | हुक्मरानों ने पहली दफ़ा इमानदारी दिखाई थी |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये भूमिका इस लिए दी गयी कि आप समझ जाएँ कि हुक्मरानों के पास जब मजाक करने को ज्यादा कुछ बचा नहीं था तो कुत्तों को वोट देने का हक़ दे दिया | और इस तरीके से सत्ताधारी पार्टी ने (जो खुद एक कुत्तानुमा पार्टी थी) अपने लिए एक नया वोट बैंक तैयार कर लिया |</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
ये एक बहुत ही समझदारी भरा फैसला था | कुत्ते, जो हमेशा इंसानों के वफादार रहे थे, कभी इंसानों की तरह धोखा तो देते नहीं | बस हड्डी की लालच थी | लेकिन जबसे उन्हें पेडेग्री का चस्का लगा था सत्ताधारी पार्टी को "डीलिंग" ज़रा महंगी पड़ी थी | अब सिर्फ हड्डी लटकाने भर से काम नहीं चला, पेडेग्री के दो-तीन टुकड़े भी फेकने पड़े | हाँ ये अलग बात है कि उन दो-तीन टुकड़ों के लिए कुछ सौ-दो सौ कुत्ते लड़ पड़ते, कभी कभी इंसान भी लड़ पड़ते- आदत भी पुरानी थी और पेट कि भूख भी नहीं मिटी थी | </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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इंसानों को ऐसा भी लगा था कि कुत्ते क्योंकि बेजुबान होते हैं, इनकी बात कोई सुनेगा नहीं | सस्ते में निपट जायेंगे और वोट भी दे देंगे | यहाँ गलती हो गयी | कुत्ते बेवकूफ थे लेकिन गधे तो बिल्कुल ही नहीं थे | वोट की बात सुन कर उनके कान खड़े हो गए | रातों रात उनका लीडर भी खड़ा हो गया, पार्टी भी बन गयी "कुत्ता कल्याण समाज (लिबरल)"| शुरुआत में जो इनका सबसे बड़ा नेता बना वो देश के गृह मंत्री का पसंदीदा कुत्ता था | गृह मंत्री साहब ने उसे अपने बच्चे की तरह पाला था, इसलिए वो अपने आप को प्राकृतिक तौर पर कुत्तों का नेता मान बैठा | कुत्तों ने भी उसको इज्ज़त दी और अपना नेता माना | आखिर उसके और गृह मंत्री साहब के अच्छे रिश्तें थे जो पूरे देश के कुत्ते वोट देने का सोच भी रहे थे | </div>
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उधर बिहार के कुत्तों ने भी एक पार्टी बनायीं | उन्होंने एक बहुत जायज़ माँग उठाई- "भों-भों" भाषा को संवैधानिक दर्ज़ा दिया जाए | और क्योंकि बिहार से ही सर्वाधिक प्रशासनिक पदाधिकारी (माने आई.ए.एस ऑफिसर) निकलते थे तो उन्हें भी सरकारी पदों में रिज़र्वेशन दिया जाये | उनके पार्टी का नाम कुकुर पार्टी (मार्क्सिस्ट) रखा गया, बाद में इनका एक आर्म्ड विंग भी बना जिसका नाम कुकुर पार्टी (मार्क्सिस्ट-लेनेनिस्ट) हुआ | कुत्तों में आज़ादी की उम्मीद जग गयी थी | उन्हें ऐसा लगा कि ये मौका है हज़ारों साल के ज़ुल्मात के हिसाब बराबर करने का | हर गली, हर नुक्कड़ पर बात हो रही थी कि अगर उन्हें ये जायज़ हक़ मिल गया तो नतीजा क्या होगा? हर कुत्ता अपने पिल्ले को उम्मीद भरी निगाहों से देख रहा था | ऐसा लग रहा था हर नुक्कड़ पर हर घंटे पाँच आई.ए.एस पैदा हो रहे हैं | जो गलती इंसानों ने कई साल पहले की थी, कुत्ते अब करने वाले थे!</div>
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बात आगे बढ़ी | इलेक्शन नज़दीक आ रहे थे | इंसानों में एक तबका ऐसा भी था जिसे ये सब पसंद नहीं आया | उसे लगा कि ये इंसानों की ज़िंदगी के साथ खिलवाड़ है | उन्हें अपने बारे में बहुत ज्यादा ग़लतफहमी थी | रिजर्वेशन के सौदागर तो खुश हो गए थे | आखिर कब तक हिंदू-मुसलमान के बीच रिजर्वेशन का टेढ़ा-मेढा हिसाब चला कर काम चलता रहता | उन्हें भी वक्त काटने के लिए कोई नया लतीफ़ा चाहिए था | उधर कुत्ते खुश थे कि उन्हें खूब सहूलियत मिल रही है- वो भी "मुफ़्त" में | लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था | इंसानों के एक तबके ने (जो कुत्तों से इस बात से नाराज़ चल रहा था कि वो अब इंसानों को मालिक नहीं मानते थे) एक रात कुत्तों के एक मोहल्ले में धावा बोल दिया | कुत्तों के लिए सब कुछ नया था, इंसानों के लिए पुराना | वो समझ नहीं पाए कि माज़रा क्या है | इंसान रात में अचानक से नाचने-चिल्लाने क्यों लगा? अभी शाम तक तो ठीक था, इलेक्शन के नामांकन की बात करके गया था | कुछ हड्डियों का सौदा हुआ था | लेकिन जैसे ही कुत्तों ने अपने परिवार के बच्चों की लाश देखी, उनके पैर तले ज़मीन सड़क गयी | वो बच्चे जो अभी घंटे भर पहले आई.ए.एस बनने की बात कर रहे थे, वो बच्चे जिन्हें इंसानों ने स्कूल में दाखिला दिलाने का वचन दिया था, वो बच्चे जो ठीक से भों-भों भाषा बोलना भी नहीं सीख पाए थे, वो बच्चे जो असल में बच्चे नहीं, पिल्ले थे- इंसान ने अपने मतलब के लिए उन्हें भी बच्चों की संज्ञा दी थी | कुत्ते जवाबी हमला कर नहीं पाए | कोशिश बहुत की , लेकिन इंसान के वहशीपन के सामने वो मजबूर साबित हुए | जो बच गए वो मरे हुए को देखते रह गए, जो मर गए वो आगे के वहशीपन से बच गए |</div>
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अगली सुबह अपने साथ बहुत कुछ लायी | सत्ताधारी पार्टी इस दंगे से बहुत खुश थी | अलबत्ता उसका इसमें कुछ हाथ नहीं था, लेकिन उसे पूरा यकीन हो चला था कि ये दंगा उसे इलेक्शन जीता कर जायेगा | बस उसने अपने वादों का पिटारा खोल दिया | रिज़र्वेशन, हड्डी और पेडेग्री के अलावा भी काफी कुछ दिया, जैसे उम्मीद कि उनके साथ इन्साफ नाम की कोई हरकत की जाएगी | कुछ एक कुत्ते चुन लिए गए जो अपने छेत्र का प्रतिनिधित्व इलेक्शन में करने वाले थे | इंसानों के कुछ पार्टी ने उनका समर्थन भी किया, अब कुत्तों के पास भी वोट देने का हक़ था- समर्थन तो बनता था!</div>
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कुछ दिन बीते, इलेक्शन भी बीत चला | गृह मंत्री साहब के कुत्ते की पार्टी ने कमाल कर दिया, इंसानों और कुत्तों दोनों का समर्थन लेकर सर्वाधिक सीट हासिल की | ये सत्ताधारी पार्टी ने सोचा नहीं था | उन्हें तो लगा था की कुत्ते पहली बार इलेक्शन लड़ रहे हैं तो कुछ पाँच-दस सीट निकाल लेंगे, बस! लेकिन यहाँ तो हिसाब ही उल्टा हो गया था | गृह मंत्री साहब का कुत्ता बहुत खुश था की कुत्तों के ऊपर दंगे हुए थे | उन दंगों की वजह से ही ये आश्चर्यजनक नतीजे आये थे | गृह मंत्री साहब भी पुराने खिलाड़ी थे | अपने बच्चे के साथ कुछ "डीलिंग" की और सारे समीकरण बदल दिए |</div>
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अगले दिन के अखबार ने कुछ ऐसा लिखा था, "गृह मंत्री का कुत्ता देश का नया प्रधान मंत्री"! </div>
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गृह मंत्री साहब ने अपनी कुर्सी बचा ली थी, कुत्ता अब इंसान बन चुका था |</div>
</div>Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-2154960697540989692.post-80627834540462246282011-10-06T12:44:00.000-07:002012-05-11T08:50:26.508-07:00वापसी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; line-height: 28px;"></span><br />
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<span style="font-family: inherit;">पटना से वो निकल चुका था | </span><br />
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<span style="font-family: inherit;">सुबह सुबह ही उसके पापा ने उसे तीन बार आवाज़ दे कर उठाया था | माँ भी कई दफा याद दिला चुकी थी कि आज छपरा जाना है दादा-दादी से मिलने | कई रोज़ हुए वो गया नहीं था मिलने | अब दिल्ली में रहने लगा था | पिछले चार सालों में दिल्ली से फ़ोन भी नहीं किया दादा दादी या चचेरे भाई-बहन से बात करने के लिए | ऐसा नहीं था कि वो बात करना नहीं चाहता था | उसने कई बार फ़ोन करने का सोचा भी, लेकिन हर दफा यह सोच कर रह जाता कि बात क्या करे ? अपने भाई-बहन से प्यार भी बहुत करता था | उसके छोटे भाई-बहन भी उसे बहुत मानते थे | जबसे उनके पापा और रोहन के चाचा इस दुनिया को छोड़ कर कही और वक़्त काटने गए, तब से रोहन खुद को चचेरे भाई -बहन के ज्यादा करीब पाता था | लेकिन फ़ोन पर तब ही बात करता था जब पटना आता |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">कार में बैठे हुए करीबन एक घंटा बीत गया | वक़्त काटने के लिए वो कहानियों की एक किताब लेकर बैठा था | आगे पापा और ड्राईवर बैठे थे | पीछे माँ के साथ रोहन गुलज़ार की कहानियों में कुछ किरदार ढूँढ रहा था | "सीमा" पढ़ने के बाद खुद के बारे में सोचने लगा | वो जानना चाहता था कि वो किस कहानी का हिस्सा है?कहानी लिखने का नया शौक चढ़ा था, तो लैपटॉप निकाल कर कुछ टाइप करने लगा | उसकी माँ रह-रह कर एक दफा देख लेती कि आखिर वो कर क्या रहा है | ऐसा नहीं था की उन्हें कुछ समझ आता | लेकिन रोहन कुछ 7-8 महीने बाद घर आया था तो किसी बहाने उससे बात करती रहती थी | मज़ाक में बोल देती कि उन्हें लैपटॉप पर काम करना सीखा दे ,फिर वो भी फेसबुक पर उसकी खबर रखेंगी! घर के बगल की किसी शैतान बच्ची ने उन्हें फेसबुक का मतलब समझाया था |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">वो सोनपुर से आगे नया गाँव पहुच गए थे | रोहन सोच रहा था कि वो वहाँ जाकर क्या करेगा | शायद कोई और कहानी पढ़ेगा या दोनों बच्चों के साथ वक़्त बिताएगा | छपरा से उसकी बहुत यादें जुड़ी थी | बचपन वहीँ बीता था | उसे याद आ रहा था जब वो मुजफ्फरपुर में रहा करते थे | उस समय कार नहीं थी तो ट्रेन से घंटो का सफ़र तय करके छपरा जाते | बात तेरह-चौदह साल पहले की है | उस वक़्त घर में बहुत लोग रहा करते थे-<span id="6_TRN_dp"> दोनों </span>चाचा-चाची, दादा-दादी, सारे बच्चे, और हमेशा कोई न कोई आता रहता था- कोई रिश्तेदार- कोई पड़ोसी | कुछ ऐसा लगता था जैसे कोई मेला सा लगा हो जहाँ सबकुछ घर में ही मिल जाए- खुशियाँ सबसे ज्यादा |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">लेकिन अब सबकुछ बदल गया था | दोनों चाचा की मौत हो चुकी थी | बड़ी चाची ने आत्महत्या की थी | उनका बेटा, और रोहन का पहला चचेरा भाई अब अपने ननिहाल रहता था | दस साल हुए, घर का कोई भी सदस्य शानू से नहीं मिल पाया | चाची के मरने के एक साल बाद बड़े चाचा की मौत हुयी | जब बड़े चाचा की मौत हुई तो शानू के मामा ने बाप को आग लगाने के लिए भी शानू को नहीं आने दिया | रोहन के पापा ने बहुत कोशिश की लेकिन शानू को ला ना सके | रोहन के एक और छोटे भाई की मृत्यु हुयी थी | फिर छोटे चाचा की मौत भी | ये सबकुछ तीन या चार साल के भीतर हुआ था | कुछ ऐसा लगता था जैसे बसे बसाये घर में सुनामी आ गया और कुछ रेफ्यूजी से इंसान जिंदा रह गए जो पुरानी यादों को भूल तो नहीं पाते थे लेकिन याद भी नहीं करते थे |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">रोहन के साथ दिक्कत थी | उसका बचपन कही उसके जेहेन में छुपा हुआ था जो रह-रह कर उसे याद आता रहता | बहुत प्यार तो वो किसी से नहीं करता था लेकिन अपने बचपन से उसे बहुत प्यार था | उसका घर उसकी यादों का एक कैनवस था जिस पर उसने अपने जेहेन में एक तस्वीर बना रखी थी | उसके बनाये तस्वीर पर कोई और अपने रंग चढ़ा दे ये उसे मंज़ूर ना था भले ही वो ज़िंदगी क्यों ना हो | इसलिए उसने बेहतर समझा था सब से पीछा छुड़ा लेने में | शायद इसलिए किसी से ज्यादा बात नहीं करता था | ये कितना सच है-उसे भी नहीं मालूम |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">धीरे -धीरे छपरा नज़दीक आ रहा था और बचपन भी | पटना से करीब <span id="6_TRN_lh"><span id="6_TRN_lt">3 घंटे </span></span>का सफ़र है छपरा का | अब वो शीतलपुर पहुँच गए थे | अचानक से रोहन के चेहरे पर एक स्माइल आ गयी | बचपन में जब भी शीतलपुर से गुजरता तो उसके पापा गाड़ी रोक कर रसगुल्ला खिलाया करते थे सबको | वहां के रसगुल्लों में क्या खासियत थी, ये तो नहीं पता लेकिन सब कहते थे अच्छा होता है तो वो भी खा लिया करता | उसके पापा हमेशा पूछते, "स्पंज खाओगे ?" दरअसल वो रसगुल्ले बहुत ही मुलायम होते, और स्पंज जैसे लगते थे | कोई बहुत ही अलग से रसगुल्ले नहीं हुआ करते थे, लेकिन इतने सालों से खाता आया था तो अच्छे भी लगने लगे थे | ऐसा ही वो दिल्ली में भी किया करता था जब भी पुरानी दिल्ली में जलेबीवाले के पास से गुज़रता | उसे वहाँ के जलेबी बहुत पसंद नहीं थे फिर भी जब भी वहाँ से गुजरता खाता ज़रूर | एक रूटीन सा था उसकी ज़िन्दगी में- शायद उसके पापा से मिला था विरासत में | और ना जाने क्या-क्या उसके पापा को उसके दादा से मिला होगा | लेकिन पता नहीं क्यों आज उसने रसगुल्ले नहीं खाए | पापा ने बस पूछा भर | तो उसने सीधे से मना कर दिया | सोनपुर के आगे उसे उलटी हुई थी इसलिए खाने का मन नहीं कर रहा था | या फिर बचपन से दूरी बनाने की कोशिश कर रहा था |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">छपरा नज़दीक आ गया | तबियत ठीक ना मालूम हुई तो रोहन ने आँखें झेप ली | सोचा कुछ देर सो जाएगा तो सफ़र जल्दी ख़त्म होगा | आँखें झेप कर नींद तो ना आ सकी, यादें आती रहीं | वो बचपन के उन दिनों को याद करने लगा जब हर त्यौहार में पूरा परिवार दादाजी के घर आता था | घर भी बहुत बड़ा था और बच्चों के खेलने के लिए तो भव्य था | ना जाने उस घर में कौन-कौन से खेल इजाद किये थे सबने मिलकर | अब तो सिर्फ खयालों में ही मुलाक़ात हो सकती थी सबसे एक साथ | कुछ रिश्तेदारों से रिश्ता टूट गया, तो कुछ का दुनिया से | सबसे ज्यादा मज़ा छठ पूजा में आता जब परिवार के साथ-साथ आस पास के लोग भी घर में आते थे | उसकी दादी छठ पूजा करती थीं | तीन-चार दिन तो ऐसा माहौल रहता था जैसे घर में ओल्म्पिक्स का आयोजन हुआ हो | लम्बे और बड़े से घर में उधम मचाते रहते थे सब के सब | शाम होती तो सब शिव मंदिर चले जाते जो था घर के पास ही लेकिन नन्ही पावों को बड़ी दूर लगता | सभी बच्चे खेलते खेलते चले जाते वहाँ | कोई एक बड़ा होता था उनके साथ उनका ख़याल रखने को | अब रोहन नास्तिक हो गया था |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;">आँख खुली जब पापा ने बोला छपरा आ गया | 'आये तो वो छपरा थे' ये सोचते हुए रोहन ने आस पास देखा | गाड़ी उस गली में चल रही थी जो बचपन में बहुत ही बड़ी लगती थी उसे | आज लगा जैसे वो गली बहुत संकरी और छोटी हो गयी है | रस्ते में वो मंदिर तो नहीं दिखा लेकिन उस मंदिर तक पहुचने का रास्ता दिखा | चेहरे पर मुस्कान आई |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
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<span style="font-family: inherit;">गाड़ी घर के बाहर रुकी | दादाजी कुर्सी पर बैठे थे- हाथ में पंखा लिए- दरवाजे के पास ही | ऐसा लगा सालों से वहीँ बैठे थे- अपने परिवार के इंतज़ार में | रोहन को कुछ अंतर दिखा ही नहीं वहाँ | सालों पहले भी बाबा वहीँ बैठा करते थे और आज भी वहीँ- उसी कुर्सी पर | रोहन के पापा ने बताया नहीं था कि वो आ रहे हैं- सरप्राइज़ देने का सोचा था |</span></div>
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<span style="font-family: inherit;"><br /></span></div>
<div style="text-align: justify;">
<span style="font-family: inherit;">कई दिनों बाद बड़े पोते को देख कर दादाजी का गला रूंध गया | बस धीरे से चिल्ला पड़े," ऐ बाबु, देखो भईया मिलने आया है |”</span></div>
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</div>Nihal Parasharhttp://www.blogger.com/profile/01787925237104432556noreply@blogger.com0