Monday 2 February 2015

शहर का अकेलापन‬

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सुबह की धूप और शाम के अँधेरे में फर्क ख़त्म होने लगा है। 
ऐसा ही कुछ सोच कर वो नयी सड़क के अनजान गलियों का सफ़र तय कर रहा था। 
"किधर जाना है?" रिक्शे वाले ने पूछा। 
"नई दिल्ली मेट्रो।"
"40 रुपया।"

वो चलने लगता है। उसे मालूम नहीं कि वो क्यों नयी सड़क गया था- या क्यों नयी दिल्ली जा रहा था। 
"किधर रहते हो?" रिक्शेवाले से पूछा। 
"यहीं- दरियागंज के पास।"
"दिन का कितना काम लेते हो?"
"300 से 400। कोई ठीक नहीं है। कभी ज़्यादा। कभी कम।"
"इस बार किसको वोट दोगे?"
"सोचा नहीं है।" रिक्शेवाला संभल का जवाब देता है।

"ठीक आदमी को वोट देना।"
"हाँ। दे देंगे।"

"यहीं उतार दो।"

एक बेमतलबी संवाद के बाद वो आगे बढ़ चला- कहीं और। उसे नहीं मालूम कि वो कहाँ जा रहा था। एक नशे की हालत में शहर के कोने-कोने भटक रहा था। 
अकेलापन एक नशा है। वो अकेलेपन से लड़ रहा था।

"सिगरेट देना।"
"कौन सी?"
"कोई भी।"

"किधर रहते हो?" दूकान वाले से पूछा। 
"लक्ष्मी नगर।"
"इतने दूर से रोज़ यहाँ आते हो?"
"हाँ।"

और भी लोग थे वहाँ। वो और बात नहीं कर सका। सिगरेट ख़त्म करके वो मेट्रो की तरफ बढ़ा- सोचते हुए कि उसे जाना किधर है।
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